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बप्पा रावल : एक अद्वितीय मेवाड़ी योद्धा

बप्पा रावल मेवाड़ी राजवंश के सबसे प्रतापी योद्धा थे । वीरता में इनकी बराबरी भारत का कोई और योद्धा कर ही नहीं सकता। यही वो शासक एवं योद्धा है जिनके बारे में राजस्थानी लोकगीतों में कहा जाता है कि –

 सर्वप्रथम बप्पा रावल ने केसरिया फहराया ।

और तुम्हारे पावन रज को अपने शीश लगाया ।।

फिर तो वे ईरान और अफगान सभी थे जिते ।

ऐसे थे झपटे यवनो पर हों मेवाड़ी चीते ।।

सिंध में अरबों का शासन स्थापित हो जाने के बाद जिस वीर ने उनको न केवल पूर्व की ओर बढ़ने से सफलतापूर्वक रोका था, बल्कि उनको कई बार करारी हार भी दी थी, उसका नाम था बप्पा रावल। बप्पा रावल गहलोत राजपूत वंश के आठवें शासक थे और उनका बचपन का नाम राजकुमार कलभोज था। वे सन् 713 में पैदा हुए थे और लगभग 97 साल की उम्र में उनका देहान्त हुआ था। उन्होंने शासक बनने के बाद अपने वंश का नाम ग्रहण नहीं किया बल्कि मेवाड़ वंश के नाम से नया राजवंश चलाया था और चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया ।

इस्लाम की स्थापना के तत्काल बाद अरबी मुस्लिमों ने फारस (ईरान) को जीतने के बाद भारत पर आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिए थे। वे बहुत वर्षों तक पराजित होकर जीते रहे, लेकिन अन्ततः राजा दाहिर के कार्यकाल में सिंध को जीतने में सफल हो गए। उनकी आंधी सिंध से आगे भी भारत को लीलना चाहती थी, किन्तु बप्पा रावल एक सुद्रढ़ दीवार की तरह उनके रास्ते में खड़े हो गए। उन्होंने अजमेर और जैसलमेर जैसे छोटे राज्यों को भी अपने साथ मिला लिया और एक बलशाली शक्ति खड़ी की। उन्होंने अरबों को कई बार हराया और उनको सिंध के पश्चिमी तट तक सीमित रहने के लिए बाध्य कर दिया, जो आजकल बलूचिस्तान के नाम से जाना जाता है।

इतना ही नहीं उन्होंने आगे बढ़कर गजनी पर भी आक्रमण किया और वहां के शासक सलीम को बुरी तरह हराया। उन्होंने गजनी में अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया और तब चित्तौड़ लौटे। चित्तौड़ को अपना केन्द्र बनाकर उन्होंने आसपास के राज्यों को भी जीता और एक दृढ़ साम्राज्य का निर्माण किया। उन्होंने अपने राज्य में गांधार, खुरासान, तूरान और ईरान के हिस्सों को भी शामिल कर लिया था।

बप्पा बहुत  ही शक्तिशाली शासक थे। बप्पा का लालन-पालन ब्राह्मण परिवार के सान्निध्य में हुआ। उन्होंने अफगानिस्तान व पाकिस्तान तक अरबों को खदेड़ा था। बप्पा के सैन्य ठिकाने के कारण ही पाकिस्तान के शहर का नाम रावलपिंडी पड़ा।आठवीं सदी में मेवाड़ की स्थापना करने वाले बप्पा भारतीय सीमाओं से बाहर ही विदेशी आक्रमणों का प्रतिकार करना चाहते थे।  

हारीत ऋषि का आशीर्वाद

हारीत ऋषि का आशीर्वाद मिला बप्पा के जन्म के बारे में अद्भुत बातें प्रचलित हैं। बप्पा जिन गायों को चराते थे, उनमें से एक बहुत अधिक दूध देती थी। शाम को गाय जंगल से वापस लौटती थी तो उसके थनों में दूध नहीं रहता था। बप्पा दूध से जुड़े हुए रहस्य को जानने के लिए जंगल में उसके पीछे चल दिए। गाय निर्जन कंदरा में पहुंची और उसने हारीत ऋषि के यहां शिवलिंग अभिषेक के लिए दुग्धधार करने लगी। इसके बाद बप्पा हारीत ऋषि की सेवा में जुट गए। ऋषि के आशीर्वाद से बप्पा मेवाड़ के राजा बने |

रावल के संघर्ष की कहानी 

बप्पा रावल सिसोदिया राजवंश के संस्थापक थे जिनमें आगे चल कर महान राजा राणा कुम्भा, राणा सांगा, महाराणा प्रताप हुए। बप्पा रावल बप्पा या बापा वास्तव में व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है, अपितु जिस तरह “बापू” शब्द महात्मा गांधी के लिए रूढ़ हो चुका है, उसी तरह आदरसूचक “बापा” शब्द भी मेवाड़ के एक नृपविशेष के लिए प्रयुक्त होता रहा है। सिसौदिया वंशी राजा कालभोज का ही दूसरा नाम बापा मानने में कुछ ऐतिहासिक असंगति नहीं होती। इसके प्रजासरंक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही संभवत: जनता ने इसे बापा पदवी से विभूषित किया था। महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बापा का समय संवत् 810 (सन् 753) ई. दिया है। एक दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बापा के राज्यत्याग का समय था। यदि बापा का राज्यकाल 30 साल का रखा जाए तो वह सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठा होगा। उससे पहले भी उसके वंश के कुछ प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके थे, किंतु बापा का व्यक्तित्व उन सबसे बढ़कर था। चित्तौड़ का मजबूत दुर्ग उस समय तक मोरी वंश के राजाओं के हाथ में था। परंपरा से यह प्रसिद्ध है कि हारीत ऋषि की कृपा से बापा ने मानमोरी को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया। टॉड को यहीं राजा मानका वि. सं. 770 (सन् 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बापा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है।

Image courtesy: legends of mewar

चित्तौड़ पर अधिकार करना आसान न था। अनुमान है कि बापा की विशेष प्रसिद्धि अरबों से सफल युद्ध करने के कारण हुई। सन् 712 ई. में मुहम्मद कासिम से सिंधु को जीता। उसके बाद अरबों ने चारों ओर धावे करने शुरु किए। उन्होंने चावड़ों, मौर्यों, सैंधवों, कच्छेल्लों को हराया। मारवाड़, मालवा, मेवाड़, गुजरात आदि सब भूभागों में उनकी सेनाएँ छा गईं। इस भयंकर कालाग्नि से बचाने के लिए ईश्वर ने राजस्थान को कुछ महान व्यक्ति दिए जिनमें विशेष रूप से गुर्जर प्रतिहार सम्राट् नागभट प्रथम और बापा रावल के नाम उल्लेखनीय हैं। नागभट प्रथम ने अरबों को पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया। बापा ने यही कार्य मेवाड़ और उसके आसपास के प्रदेश के लिए किया। मौर्य (मोरी) शायद इसी अरब आक्रमण से जर्जर हो गए हों। बापा ने वह कार्य किया जो मोरी करने में असमर्थ थे और साथ ही चित्तौड़ पर भी अधिकार कर लिया। बापा रावल के मुस्लिम देशों पर विजय की अनेक दंतकथाएँ अरबों की पराजय की इस सच्ची घटना से उत्पन्न हुई होंगी।

बप्पा रावल ने अपने विशेष सिक्के जारी किए थे। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प लेख है। बाईं ओर त्रिशूल है और उसकी दाहिनी तरफ वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिनी ओर नंदी शिवलिंग की ओर मुख किए बैठा है। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत् करते हुए एक पुरुष की आकृति है। पीछे की तरफ सूर्य और छत्र के चिह्न हैं। इन सबके नीचे दाहिनी ओर मुख किए एक गौ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता हुआ बछड़ा है। ये सब चिह्न बपा रावल की शिवभक्ति और उसके जीवन की कुछ घटनाओं से संबद्ध हैं।

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पन्ना धाय के बलिदान की कहानी

चित्तौड़गढ़ के इतिहास में जहाँ पद्मिनी के जौहर की अमरगाथाएं, मीरा के भक्तिपूर्ण गीत गूंजते हैं वहीं पन्नाधाय जैसी मामूली स्त्री की स्वामीभक्ति की कहानी भी अपना अलग स्थान रखती है।

बात तब की है‚ जब चित्तौड़गढ़ का किला आन्तरिक विरोध व षड्यंत्रों में जल रहा था। मेवाड़ का भावी राणा उदय सिंह किशोर हो रहा था। तभी उदयसिंह के पिता के चचेरे भाई बनवीर ने एक षड्यन्त्र रच कर उदयसिंह के पिता की हत्या महल में ही करवा दी तथा उदयसिंह को मारने का अवसर ढूंढने लगा। उदयसिंह की माता को संशय हुआ तथा उन्होंने उदय सिंह को अपनी खास दासी व उदय सिंह की धाय पन्ना को सौंप कर कहा कि,

“पन्ना अब यह राजमहल व चित्तौड़ का किला इस लायक नहीं रहा कि मेरे पुत्र तथा मेवाड़ के भावी राणा की रक्षा कर सके‚ तू इसे अपने साथ ले जा‚ और किसी तरह कुम्भलगढ़ भिजवा दे।”

पन्ना धाय राणा साँगा के पुत्र राणा उदयसिंह की धाय माँ थीं। पन्ना धाय किसी राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। अपना सर्वस्व स्वामी को अर्पण करने वाली वीरांगना  पन्ना धाय का जन्म कमेरी गावँ में हुआ था। राणा साँगा के पुत्र उदयसिंह को माँ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना ‘धाय माँ’ कहलाई थी। पन्ना का पुत्र चन्दन और राजकुमार उदयसिंह साथ-साथ बड़े हुए थे। उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान पाला था। पन्नाधाय ने उदयसिंह की माँ रानी कर्मावती के सामूहिक आत्म बलिदान द्वारा स्वर्गारोहण पर बालक की परवरिश करने का दायित्व संभाला था। पन्ना ने पूरी लगन से बालक की परवरिश और सुरक्षा की। पन्ना चित्तौड़ के कुम्भा महल में रहती थी।

चित्तौड़  का शासक, दासी का पुत्र बनवीर बनना चाहता था। उसने राणा के वंशजों को एक-एक कर मार डाला। बनवीर एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या करके उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई। पन्ना राजवंश और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महल से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उसके बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला। पन्ना अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना धन्य हैं! जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आँखों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।

Source: gyandarpan

पुत्र की मृत्यु के बाद पन्ना उदयसिंह को लेकर बहुत दिनों तक सप्ताह शरण के लिए भटकती रही पर दुष्ट बनबीर के खतरे के डर से कई राजकुल जिन्हें पन्ना को आश्रय देना चाहिए था, उन्होंने पन्ना को आश्रय नहीं दिया। पन्ना जगह-जगह राजद्रोहियों से बचती, कतराती तथा स्वामिभक्त प्रतीत होने वाले प्रजाजनों के सामने अपने को ज़ाहिर करती भटकती रही। कुम्भलगढ़ में उसे यह जाने बिना कि उसकी भवितव्यता क्या है शरण मिल गयी। उदयसिंह क़िलेदार का भांजा बनकर बड़ा हुआ। तेरह वर्ष की आयु में मेवाड़ी उमरावों ने उदयसिंह को अपना राजा स्वीकार कर लिया और उसका राज्याभिषेक कर दिया। उदय सिंह 1542 में मेवाड़ के वैधानिक महाराणा बन गए।

 

आईये उस महान वीरता से परिपूर्ण पन्ना की कहानी को इस कविता के माध्यम से समझते है ।।

चल पड़ा दुष्ट बनवीर क्रूर, जैसे कलयुग का कंस चला

राणा सांगा के, कुम्भा के, कुल को करने निर्वश चला

 

उस ओर महल में पन्ना के कानों में ऐसी भनक पड़ी

वह भीत मृगी सी सिहर उठी, क्या करे नहीं कुछ समझ पड़ी

 

तत्क्षण मन में संकल्प उठा, बिजली चमकी काले घन पर

स्वामी के हित में बलि दूंगी, अपने प्राणों से भी बढ़ कर

 

धन्ना नाई की कुंडी में, झटपट राणा को सुला दिया

ऊपर झूठे पत्तल रख कर, यों छिपा महल से पार किया

 

फिर अपने नन्हें­मुन्ने को, झट गुदड़ी में से उठा लिया

राजसी वसन­भूषण पहना, फौरन पलंग पर लिटा दिया

 

इतने में ही सुन पड़ी गरज, है उदय कहां, युवराज कहां

शोणित प्यासी तलवार लिये, देखा कातिल था खड़ा वहां

 

पन्ना सहमी, दिल झिझक उठा, फिर मन को कर पत्थर कठोर

सोया प्राणों­का­प्राण जहां, दिखला दी उंगली उसी ओर

 

छिन में बिजली­सी कड़क उठी, जालिम की ऊंची खड्ग उठी

मां­मां मां­मां की चीख उठी, नन्हीं सी काया तड़प उठी

 

शोणित से सनी सिसक निकली, लोहू पी नागन शांत हुई

इक नन्हा जीवन­दीप बुझा, इक गाथा करुण दुखांत हुई

 

जबसे धरती पर मां जनमी, जब से मां ने बेटे जनमे

ऐसी मिसाल कुर्बानी की, देखी न गई जन­जीवन में

 

तू पुण्यमयी, तू धर्ममयी, तू त्याग­तपस्या की देवी

धरती के सब हीरे­पन्ने, तुझ पर वारें पन्ना देवी

तू भारत की सच्ची नारी, बलिदान चढ़ाना सिखा गयी

तू स्वामिधर्म पर, देशधर्म पर, हृदय लुटाना सिखा गयी

सत्य नारायण गोयंका

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जाने मेवाड़ी संत कवि चतुर सिंह जी बावजी के बारे में

हम सभी ने अपने-अपने शिक्षकों अथवा घर के बड़े बुजुर्गों से महाराज चतुर सिंह के बारे में तो सुना ही होगा, व उनके दोहे एवं शेर भी सुने होंगे । आईये जानते हैं उन महान मेवाड़ी कवि संत चतुर सिंह जी बावजी के बारे में ।

महाराज चतुर सिंह जी बावजी मेवाड़ के लोक संत के रूप में जाने जाते हैं, इन्हें चतर सिंह जी बावजी भी कहते हैं ।       इनका जन्म 9 फरवरी 1880 को हुआ था , अर्थात (विक्रम संवत सन 1936 माघ शुक्ला चतुर्दशी)। योगीवर्य महाराज चतुरसिंह जी मेवाड़ की भक्ति परम्परा के एक परमहंस व्यक्तित्व थे । इस संत ने लोकवाणी मेवाड़ी के माध्यम से अपने अद्भुत विचारों को साहित्य द्वारा जन-जन के लिए सुलभ बनाया। इनके लेखन की विशेषता यह थी की यह अत्यंत गूढ़ से गूढ़ बातों को आसान शब्दो में बयां कर देते थे।

Chatur Singh ji Bawji | Udaipurblog
Chatur Singh ji Bawji

बावजी का जन्म एक राजपरिवार में हुआ था, इनकी माता रानी कृष्ण कँवर एवं पिता श्री सूरत सिंह थे। इनका जन्म स्थान कर्जली उदयपुर था । इनके गुरु ठाकुर गुमान सिंह जी सारंगदेवोत थे, जो कि लक्ष्मणपुरा से थे।

चतुर सिंह जी बावजी ने लगभग 21 छोटे बड़े ग्रंथो की रचना की। जिनमे से मेवाड़ी बोली में लिखी गईं गीता पर गंगा-जलि एवं चंद्र शेखर स्त्रोत  विश्व प्रसिद्ध  हैं। –

  1. अलख पचीसी
  2. तू ही अष्टक
  3. अनुभव प्रकाश
  4. चतुर प्रकाश
  5. हनुमत्पंचक
  6. अंबिका अष्टक
  7. शेष चरित्र
  8. चतुर चिंतामणि: दोहावाली/पदावली
  9. समान बत्तीसी
  10. शिव महिम्न स्त्रोत
  11. चंद्रशेखर स्त्रोत
  12. श्री गीता जी
  13. मानव मित्र राम चरित्र
  14. परमार्थे विचार 7 भाग
  15. 15. ह्रदय रहस्य
  16. बालकारी वार
  17. बालकारी पोथी
  18. लेख संग्रह
  19. सांख्यकारिका
  20. तत्व समास
  21. योग सूत्र

 

चंद्रधारक चंद्रधारक चंद्रधारक पालजे, चंद्रधारक चंद्रधारक चंद्रधारक राखजे

रत्न पर्वत धनुष कीधो मुठ रूपागिर कर्यो,करयौ वासक नाग डोरो  बाण अग्नि विष्णु रो ।।

बालन्हान्यो त्रिपुर पल में देवता वंदन करे , चन्द्रधारक आसरे मु काल मारो कई करें ।।

 

चंद्रधारक चंद्रधारक चंद्रधारक पालजे, चंद्रधारक चंद्रधारक चंद्रधारक राखजे

      मादा हाथी री मनोहर ओढ राखी खाल ने,विष्णु ब्रम्हा चरण कमला में जणीरे  धोग दे।।

     जटा गंगा री तरंगा सु सदा भीजि रहे, चन्द्रधारक आसरे मु काल मारो कई करें ।।

 

उनकी रचनाओं में ईश्वर ज्ञान और लोक व्यवहार का सुन्दर मिश्रण है। कठिन से कठिन ज्ञान तत्व को हमारे जीवन के दैनिक व्यवारों के उदाहरणों से समझाते हुए सुन्दर लोक भाषा में इस चतुराई से ढाला है कि उनके गीत, उनमें बताई गई बात एक दम गले उतर कर हृदय में जम जाती हैं, मनुष्य का मस्तिष्क उसे पकड़ लेता है।

 

एक बात और है। बावजी चतुर सिंहजी के गीत और दोहे जीवन की हर घड़ी, विवाह-शादी, समारोह, आदि अवसरों पर गाये-सूनाये जाने योग्य है। उन्हें सुनने, सुनाने वाले के मन भी शान्ती, शुध्दता और नई रोशनी मिलती है।

 

आप सभी सज्जनों से निवेदन हैं कि इस महान् सन्त कवि बावजी चतुर सिंहजी की कविताओं को पढ़े अन्य बालक बालिकाओं और लोगों को पढ़ावे और समाज में अधिक से अधिक प्रचार कर लोगों के मन और मस्तिष्क को नया ज्ञान, पृकाश, ओर नया आनन्द दे।

प्रस्तुत है बावजी की कुछ रचनाएँ ।।

 

कोई केवे मु करु कोई केवे राम

न्यारा न्यारा कोई नि मु मारो राम ।।

 

रेंट फरे चरख्योफरे पण फरवा में फेर।

वो तो वाड हर्यो करे ,वी छूता रो ढेर ।।

 

धरम रा गेला री गम नी है, जीशूँ अतरी लड़ा लड़ी है ।।

शंकर, बद्ध, मुहम्मद, ईशा, शघलां साँची की’ है ।

अरथ सबांरो एक मिल्यो है, पण बोली बदली है।।

 

आप आपरो मत आछो पण, आछो आप नहीं है।

आप आपरा मत री निंदा, आप आप शूं व्ही है।।

 

नारी नारी ने जाणे, पर नर सू अणजाण ।

जाण व्हियां पे नी जणे, उद्या अलख पहचाण ।।

 

कृष्ण कूख तें प्रकट भे, तेज लच्छ हिमतेस।

ब्रहम्मलीन हैं चतुर गुरु, चतुर कुँवर सुरतेस॥

 

मानो के मत मानो, केणो मारो काम।

कीका डांगी रे आँगणे, रमता देखिया राम॥

पर घर पग नी मैलणो, बना मान मनवार। अंजन आवै देखनै, सिंगल रो सतकार॥

ऊँध सूधने छोड़ने, करणो काम पछाण। कर ऊँधो सूँधो घड़ो, तरती भरती दाँण॥

भावै लख भगवंत जश, भावे गाळाँ भाँड। द्वात कलम रो दोष नी, मन व्हे’ ज्यो ही मांड ।।

 

पगे पगरखी गांवरी, ऊँची धोती पैर। कांधे ज्ञान पछेवड़ो, चतुर चमक चहुँफेर॥

 

 

 जय महाराज चतुर सिंह बावजी  की ।।

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Udaipur- Then, Now and Further

On this day, 18 April, The Foundation Day of Udaipur- let us know about our beautiful city of lakes. Udaipur- Then, Now and Further!

Then-

We all know that Maharana Udai Singh II founded Udaipur in 1553 but do you know how? In the 16th century, Maharana Udai Singh II wanted to move his capital from Chittaurgarh due to ongoing attacks of Mughal. One day while hunting in the foothills of the Aravali Range, Udai Singh Ji came upon a monk who blessed him to build a palace at a spot which is now Pichola. He rejected the idea of building it at Ayad as it was the flood-prone area at that time. Further, to protect Udaipur from the enemies he built a six-kilometer-long wall with main gates known as Surajpole, Chandpole, Udiapole, Hathipole, Ambapole, Brahmpole and so on. The area within the wall is still known as the old city. Udaipur remained safe afterward as it was a mountainous region and it was difficult for the Mughals to carry their heavy weapons and horses up there.

Udaipur- Then, Now and Further
Source: Wikipedia

Our ancestors put in great mind in the making of Udaipur. The majestic beauty and safety of the city were all in their brains back then. There’s a reason why there are so many man-made lakes in Udaipur. In ancient times, people of Udaipur had no source of water apart from rainwater. To solve this problem man-made lakes were formed which made a lake system with seven lakes. All these lakes were interconnected to each other so that in case of heavy rainfall, the water can travel further and doesn’t drown the city. The lake system comprises of Lakes Pichola, Rang Sagar, Swaroop Sagar, Fateh Sagar, Badi, Madar and Udai Sagar. All the lakes of Udaipur form a chain in the saucer-shaped Udaipur valley.

Timeline of Udaipur

1553 – Founded by Udai Singh II and Ruled by Sisodia clan of Rajput for next 265 years.

1678 – Fateh Sagar Lake built by Maharana Jai Singh which was improvised later by Maharana Fateh Singh.

1818 – Became the British princely states under British rule.

1884 – Ruled by 73rd Rana when Udaipur saw major development with railway, college, schools, hospitals, and dispensaries all established.

1947 – After independence, the Maharaja of Udaipur granted the place to the government of India. Mewar was merged into the state of Rajasthan.

Udaipur- Then, Now and Further
Photographer: Lala Deen Dayal
Udaipur- Then, Now and Further
Source: Udaipurbeats.com

Now –

After Independence, Udaipur is constantly developing and now has become the dream destination of every tourist in the world. Udaipur, also known as ‘The City of Lakes’ or ‘Kashmir of Rajasthan’ is the romance fantasy for all the couples out there. The city has also been excelling in its massive historic forts and palaces, museums, galleries, natural locations and gardens, architectural temples, as well as traditional fairs, festivals, and structures.

Udaipur- Then, Now and Further
Photographer: Lala Deen Dayal
Udaipur- Then, Now and Further
Source: Udaipurbeats.com

 

And further 

After the smart city mission launched by Prime Minister Narendra Modi on 25 June 2015, there has been latest changes and developments that all the Udaipurites can see:

  • New public parking constructed at various places like townhall, Nagar Nigam parking near Gulab Bagh, etc.
  • Many tourist spots have been renovated lately. If you have noticed Fatehsagar has been renovated completely in last few years.
  • Place similar to Fatehsagar is been constructed around Daiji footbridge near gangaur ghat where you can enjoy your evenings by simply walking and pleasuring your eyes with the amazing view.
  • Udaipur is also developing itself with the comforting hospitality that it provides. The city is filled with all kind of hotels and places where a tourist can find peace and enjoy his journey.

Now that you know all about Udaipur, go and please your body and soul in the charm of the city.

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गोरा-बादल | जानिए इन अविस्मरणीय राजपूत योद्धाओं के बारे में

मेवाड़ की पावन धरती ने कई महान एवं वीर, पराक्रमी योद्धाओं को जन्म दिया है। गोरा एवं बादल उन्ही वीर योद्धाओं में से एक है ,ये धरती हमेशा उनकी कृतज्ञ रहेगी! तो आइए जानते हैं उन दो महान योद्धाओं के बारे में जिनके लिए यह कहा जाता है कि जिनका शीश कट जाए फिर भी धड़ दुश्मनों से लड़ता रहे वो राजपूत

गोरा-बादलगोरा-बादल | जानिए इन अविस्मरणीय राजपूत योद्धाओं के बारे में

गोरा तत्कालीन चित्तौड़ के सेनापति थे एवं बादल उनके भतीजे थे। दोनो अत्यंत ही वीर एवं पराक्रमी योद्धा थे, उनके साहस, बल एवं पुरुषार्थ से सारे शत्रु डरते थे। गोरा एवं बादल इतिहास के उन गिने चुने लड़ाकों में से एक थे जिनके पास बाहुबल के साथ साथ तीव्र बुद्धि भी थी।

इनकी बुद्धि एवं वीरता ने उस असंभव कार्य को संभव कर दिखाया जिसे कोई और शायद ही कर पाता ।

ये ऐसे योद्धा थे जो दिल्ली जाकर खिलजी की कैद से राणा रतन सिंह को छुड़ा लाये थे ।  इस युद्ध में जब गोरा ने खिलजी के सेनापति को मारा था तब तक उनका खुद का शीश पहले ही कट चुका था, केवल धड़ शेष रहा था । यह सब कैसे संभव हुआ इसका वर्णन मैं मेवाड़ के राज कवि श्री श्री नरेन्द्र मिश्र की अत्यंत खूबसूरत कविता के छोटे से अंश से करता हूँ ।

बात उस समय की है जब खिलजी ने धोके से राणा रतन सिंह को कैद कर लिया था, जब राणा जी दिल्ली में खिलजी की कैद में थे तब रानी पद्मिनी गोरा के पास गयीं;  गोरा सिंह रानी पद्मिनी को वचन देते हुए कहते है कि –

जब तक गोरा के कंधे पर दुर्जय शीश रहेगा

महाकाल से भी राणा का मस्तक नही कटेगा ।।

तुम निशिन्त रहो महलो में देखो समर भवानी

और खिलजी देखेगा केसरिया तलवारो का पानी ।।

राणा के सकुशल आने तक गोरा नही मरेगा

एक पहर तक सर तटने पर भी धड़ युद्ध करेगा।।

एकलिंग की शपथ महाराणा वापस आएंगे

महाप्रलय के घोर प्रभंजक भी ना रोक पाएंगे ।।

 

यह शपथ लेकर महावीर गोरा, राणा जी को वापस चित्तौड़ लेन की योजना बनाने लगे ।

योजना के बन जाने पर वीर गोरा ने आदेश दिया कि –

गोरा का आदेश हुआ सजगये सातसौ डोले

और बांकुरे बादल से गोरा सेनापति बोले ।।

खबर भेज दो खिलजी पर पद्मिनी स्वंय आती है

अन्य सातसौ सतिया भी वो संग लिए आती है ।।

 

जब यह खबर खिलजी तक पहुँची तो वो खुशी के मारे नाचने लगा ,उसको लगा कि वो जीत गया है। लेकिन ऐसा नहीं था ,पालकियों में तो सशस्त्र सैनिक बैठे थे । एवं पालकी ढ़ोने वाले भी कुशल सैनिक थे ।।

और सातसौ सैनिक जो कि यम से भी भीड़ सकते थे

हर सैनिक सेनापति था लाखो से लड़ सकते थे ।।

एकएक कर बैठ गए, सज गई डोलियां पल में

मर मिटने की हौड़ लगी थी मेवाड़ी दल में ।।

हर डोली में एक वीर , चार उठाने वाले

पांचो ही शंकर की तरह समर भत वाले ।।

सैनिकों से भरी पालकियां दिल्ली पहुँच गई ।

जा पहुंची डोलियां एक दिन खिलजी की सरहद में

उस पर दूत भी जा पहुँचा खिलजी के रंग महल में।।

बोला शहंशाह पद्मिनी मल्लिका बनने आयी है

रानी अपने साथ हुस्न की कालिया भी लायी है ।।

एक मगर फरियाद फ़क़्त उसकी पूरी करवादो

राणा रतन सिंह से केवल एक बार मिलवादो ।।

 

गोरा-बादल | जानिए इन अविस्मरणीय राजपूत योद्धाओं के बारे में
Source: Manoj Chitra Katha

दूत की यह बात सुनकर मुगल उछल पड़ा , उसने तुरंत ही राणा जी से पद्मिनी को मिलवाने का हुक्म दे दिया । जब ये बात गोरा के दूत ने बाहर आकर बताई तब गोरा ने बादल से कहा कि –

बोले बेटा वक़्त आगया है कट मरने का

मातृ भूमि मेवाड़ धारा का दूध सफल करने का ।।

यह लोहार पद्मिनी वेश में बंदीगृह जाएगा

केवल दस डोलियां लिए गोरा पीछे ढायेगा ।।

यह बंधन काटेगा हम राणा को मुक्त करेंगे।

घुड़सवार कुछ उधर आड़ में ही तैयार रहेंगे।।

जैसे ही राणा आएं वो सब आंधी बन जाएँ।

और उन्हें चित्तोड़ दुर्ग पर वो सकुशल पहुंचाएं।।

 

गोरा की बुद्धि का यह उत्कृष्ट उदाहरण था । दिल्ली में जहाँ खिलजी की पूरी सेना खड़ी है, वहाँ ये चंद मेवाड़ी सिपाही अपनी योजना, बुद्धि एवं साहस से राणा को छुड़ाने में कामयाब हो जाते हैं। राणा के वहाँ से प्रस्थान करने से पूर्व वीर गोरा, अपने भतीजे बादल से कहते है कि –

राणा जाएं जिधर शत्रु को उधर न बढ़ने देना।

और एक यवन को भी उस पथ पावँ ना धरने देना।।

मेरे लाल लाडले बादल आन न जाने पाए

तिल तिल कट मरना मेवाड़ी मान न जाने पाए ।।

 

यह सुनकर बादल बोले कि –

ऐसा ही होगा काका राजपूती अमर रहेगी

बादल की मिट्टी में भी गौरव की गंध रहेगी ।।

 

बादल के ये वचन सुनकर गोरा ने उसे अपने हृदय से लगा लिया!!! लेकिन इस पूरी योजना का क्रियान्वय किस प्रकार हुआ इसका वर्णन महा कवि श्री श्री नरेंद्र मिश्र कि निम्न पंक्तिया करती है –

गोरा की चातुरी चली राणा के बंधन काटे

छांट छांट कर शाही पहरेदारो के सर काटे ।।

लिपट गए गोरा से राणा गलती पर पछताए

सेनापति की नमक हलाली देख नयन भर आये ।।

 

राणा ने पूर्व में जिस सेनापति का तिरस्कार किया था , संकट की घड़ी में आखिर वो ही काम आया ।यह देख कर राणा के नैन भर आए ।। लेकिन अब तक खिलजी के सेनापति को लग गया था कि कुछ गड़बड़ है ।

जब उसने लिया समझ पद्मिनी नहीँ आयी है।

मेवाड़ी सेना खिलजी की मौत साथ लायी  है ।।

 

तो उसने पहले से तैयार सैनिक दल को बुलाया और रण छेड़ दिया ।

दृष्टि फिरि गोरा की मानी राणा को समझाया

रण मतवाले को रोका जबरन चित्तोड़ पठाया ।।

 

उस समय राणा को सुरक्षित अपने देश पहुचना तथा शत्रु देश से निकलना अधिक महत्वपूर्ण था, राणा ने परिस्थिति को समझा और मेवाड़ की ओर प्रस्थान किया ।।

खिलजी ललकारा दुश्मन को भाग न जाने देना

रत्न सिंह का शीश काट कर ही वीरों दम लेना ।।

टूट पड़ों मेवाड़ी शेरों बादल सिंह ललकारा

हर हर महादेव का गरजा नभ भेदी जयकारा ।।

निकल डोलियों से मेवाड़ी बिजली लगी चमकने

काली का खप्पर भरने तलवारें लगी खटकने ।।

राणा के पथ पर शाही सेनापति तनिक बढ़ा था

पर उस पर तो गोरा हिमगिरि सा अड़ा खड़ा था।।

कहा ज़फर से एक कदम भी आगे बढ़ न सकोगे

यदि आदेश न माना तो कुत्ते की मौत मरोगे ।।

रत्न सिंह तो दूर न उनकी छाया तुम्हें मिलेगी

दिल्ली की भीषण सेना की होली अभी जलेगी ।।

यह कह के महाकाल बन गोरा रण में हुंकारा

लगा काटने शीश बही समर में रक्त की धारा ।।

खिलजी की असंख्य सेना से गोरा घिरे हुए थे

लेकिन मानो वे रण में मृत्युंजय बने हुए थे ।।

 

बादल की वीरता की हद यहा तक थी कि इसी लड़ाई में उनका पेट फट चुका था । अंतड़िया बाहर आ गई थी तो भी उन्होंने लड़ना बंद नही किया , अपनी पगड़ी पेट पर बांधकर लड़ाई लड़ी ।

रण में दोनों काका-भतीजे और वीर मेवाड़ी सैनिकों के इस रौद्र प्रदर्शन का वर्णन कवि नरेन्द्र मिश्र  इस प्रकार करते है-

पुण्य प्रकाशित होता है जैसे अग्रित पापों से

फूल खिला रहता असंख्य काटों के संतापों से ।।

 

वो मेवाड़ी शेर अकेला लाखों से लड़ता था

बढ़ा जिस तरफ वीर उधर ही विजय मंत्र पढता था ।।

इस भीषण रण से दहली थी दिल्ली की दीवारें

गोरा से टकरा कर टूटी खिलजी की तलवारें ।।

 

मगर क़यामत देख अंत में छल से काम लिया था

गोरा की जंघा पर अरि ने छिप कर वार किया था ।।

वहीँ गिरे वीर वर गोरा जफ़र सामने आया

शीश उतार दिया, धोखा देकर मन में हर्षाया ।।

गोरा-बादल | जानिए इन अविस्मरणीय राजपूत योद्धाओं के बारे में
Source: Roar Media

शीश कटने के बाद भी उन्होंने एक ही वार में मुग़ल सेनापति को मार गिराया था । इस अद्भुत दृश्य का वर्णन निम्न पंक्तियों में है ।।

मगर वाह रे मेवाड़ी गोरा का धड़ भी दौड़ा

किया जफ़र पर वार की जैसे सर पर गिरा हथौड़ा ।।

एक वार में ही शाही सेना पति चीर दिया था

जफ़र मोहम्मद को केवल धड़ ने निर्जीव किया था  ।।

ज्यों ही जफ़र कटा शाही सेना का साहस लरज़ा

काका का धड़ देख बादल सिंह महारुद्र सा गरजा ।।

अरे कायरो नीच बाँगड़ों छल से रण करते हो

किस बुते पर जवान मर्द बनने का दम भरते हो ।।

यह कह कर बादल उस क्षण बिजली बन करके टुटा था

मानो धरती पर अम्बर से अग्नि शिरा छुटा था ।।

ज्वाला मुखी फटा हो जैसे दरिया हो तूफानी

सदियां दोहराएंगी बादल की रण रंग कहानी ।।

अरि का भाला लगा पेट में आंते निकल पड़ी थीं

जख्मी बादल पर लाखो तलवारें खिंची खड़ी थी ।।

कसकर बाँध लिया आँतों को केशरिया पगड़ी से

रंचक डिगा न वह प्रलयंकर सम्मुख मृत्यु खड़ी से ।।

अब बादल तूफ़ान बन गया शक्ति बनी फौलादी

मानो खप्पर लेकर रण में लड़ती हो आजादी ।।

 

उधर वीरवर गोरा का धड़ अरिदल काट रहा था

और इधर बादल लाशों से भूतल पाट रहा था ।।

आगे पीछे दाएं बाएं जम कर लड़ी लड़ाई

उस दिन समर भूमि में लाखों बादल पड़े दिखाई ।।

मगर हुआ परिणाम वही की जो होना था

उनको तो कण कण अरियों के शोणित से धोना था ।।

मेवाड़ी सीमा में राणा सकुशल पहुच गए थे

गोरा बादल तिल तिल कटकर रण में खेत रहे थे ।।

 

एक एक कर मिटे सभी मेवाड़ी वीर सिपाही

रत्न सिंह पर लेकिन रंचक आँच न आने पायी ।।

गोरा बादल के शव पर भारत माता रोई थी

उसने अपनी दो प्यारी ज्वलंत मणियां खोयी थी ।।

 

धन्य धरा मेवाड़ धन्य गोरा बादल बलिदानी

जिनके बल से रहा पद्मिनी का सतीत्व अभिमानी ।।

जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी |

दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई क़ुरबानी ||

 

तो ये थी मेवाड़ के अमर शहीद गोरा एवं बादल की गौरव गाथा 

ये है हमारे असली नायक जो की हमारे लिए हमेशा प्रेरणा के स्त्रोत है ।।

इनको पढ़ो, इनके बारे में जानो, इनके जैसे बनो जय मेवाड़।। जय हिंद ।।

 

स्त्रोत :

श्री श्री नरेन्द्र मिश्र

कवि श्री कुमार विश्वास

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‘देबारी की ऐतिहासिक गुफ़ा’ जहां मीटर गेज़ ट्रेन चला करती थी, अब वहां ‘टॉय ट्रेन’ चलेगी..

देबारी, उदयपुर स्थित राजस्थान की सबसे पहली रेलवे टनल और कभी अपने टाइम पर सबसे लम्बी टनल रही ‘देबारी की गुफ़ा’ में अब जल्द ही ‘टॉय ट्रेन’ चलेगी। इंडियन रेलवेज़ ने उस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिखा दी है जिसमें इस संभावना पर विचार करने को कहा गया था। साल 2016, में इस प्रोजेक्ट को रेलवे मिनिस्ट्री भेजा गया था। जिसको ToI ने भी कवर किया था। अब जब इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिल गई है तो उदयपुर के लोगो को इंतज़ार है तो बस इस बात का कि इस प्रोजेक्ट पर जल्द से जल्द काम शुरू होवे।

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देबारी टनल का इतिहास:

देबारी टनल का ब्रॉडगेज़ परिवर्तन के बाद से पिछले 12 साल में कोई इस्तेमाल नहीं लिया गया। लेकिन अगर हम इन 12 सालों को छोड़ दे तो इस देबारी टनल का इतिहास बड़ा रोचक रहा है। आपको बता दें देबारी टनल करीब 119 बरस पुरानी है। इसे सन् 1889 में बनाया गया था। सन् 1884 में महाराणा सज्जन सिंह ने पहली बार उदयपुर को रेल नेटवर्क से जोड़ने का प्रयास किया। सन् 1885 तक सभी महत्वपूर्ण सर्वे और कागज़ी करवाई भी कम्पलीट होने को आ गई थी। लेकिन महाराणा के आकस्मिक देहांत की वजह से यह प्रोजेक्ट अनिश्चितकालीन अवधि के लिए रुक गया। हालाँकि इसके 10 साल बाद महाराणा फ़तेह सिंह जी ने इस प्रोजेक्ट को फिर से शुरू करवाया और इस तरह उदयपुर पहली बार सन् 1895 में रेल नेटवर्क से जुड़ा लेकिन सिर्फ़ देबारी तक ही। देबारी-चित्तौडगढ़ रेल लाइन 60 मील लम्बी थी और इसी पर थी ऐतेहासिक देबारी टनल। लेकिन रेल लाइन को उदयपुर तक आने में 4 साल लग गए। क्योंकि अगस्त,1895 से लेकर दिसम्बर, 1899 तक, उदयपुर-देबारी के इस 6.5 मील लम्बे ट्रैक को बॉम्बे-बरोड़ा और सेंट्रल लाइन ऑपरेट करते थे। 25 अगस्त, 1899 को इस छोटे से टुकड़े को देबारी-चित्तौडगढ़ रेल लाइन से जोड़ लिया गया और इस तरह उदयपुर ने पहली बार रेल लाइन को देखा। 

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सन् 2005 के बाद उदयपुर-चित्तौड़गढ़ रेल-लाइन ब्रॉडगेज़ में तब्दील हो गई और देबारी-टनल का उपयोग भी उसी के साथ थम गया। देबारी टनल का इस तरह वीरान पड़े रहना कई लोगो को तकलीफ़ देता रहा है। बीच में कई बार इसको टूरिस्ट अट्रैक्शन बनाने की मांग भी उठती रही थी। इसका इस तरह यूँ वीरान पड़े रहना इसलिए भी अखरता था क्योंकि देबारी टनल उस समय की बनी उन जटिल कलाकृतियों में से थी जिसे तब के कारीगरों ने बिना किसी मशीन की सहायता से, सिर्फ़ हाथ-हथौड़ो की मदद से बनाया था। यह सच में एक अजूबा है। 

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देबारी टनल और टॉय ट्रेन: toy train

शुक्रवार को जब इस प्रपोजल को एक्सेप्ट किया जा रहा था तब राजस्थान के गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया, जोनल मैनेजर पुनीत चावला भी मौजूद थे। पुनीत चावला ने कहा है कि यह टॉय ट्रेन UIT या नगर निगम, उदयपुर की देखरेख में चलेगी। इस प्रोजेक्ट का एस्टीमेट बजट 5 करोड़ रूपए का है।

जल्दी ही टॉय ट्रेन के लिए ट्रैक लगा दिया जाएगा साथ ही साथ दोनों तरफ रेलवे स्टेशन भी बनाए जायेंगे। सिग्नल्स भी लगे जाएँगे ताकि बच्चे इन सबको देखकर कुछ सीखें। 🙂