सत्य को छुपा सकते है ये लोग, मिटा नहीं सकते। इसका यही स्वेग है कि देर से ही सही सत्य सामने ज़रूर आता हैं।
भारतीय होने के नाते आपको यह पता होना चाहिए की आपसे, आपके पूर्वजो से वो कोन–कोन से सत्य छुपाये गए हैं जो आपकी आनेवाली पीढ़ि,आपके बच्चों को भी पता नही चलेंगे अगर आज आप कोशिश नहीं करोगे तो..
तो ऐसी ढेरो बातें हैं जो एक स्वतंत्र भारत के नागरिक को पता होनी चाहिए, लेकिन अफसोस …इनके बारे मे कम ही लोग बात करते है ।
।। ऐसा ही एक सत्य है हल्दीघाटी का ।
“डॉ चंद्रशेखर शर्मा “ आप मेवाड़ के वो रत्न है जिन्होंने अपने जीवन के कई वर्ष महाराणा प्रताप और हल्दी घाटी के युध्द पर शोध में लगा दिए । इन्होंने इस विषय पर अपनी PHD. की , और अपनी गहन शोध के द्वारा इस सत्य से पर्दा उठाया।
मीरा कन्या महाविद्यालय उदयपुर (राज.) के प्रोफेसर.डॉ चंद्रशेखर शर्मा ने अपनी इस शोध को एक किताब में संकलित किया है जिसका नाम “राष्ट्ररत्न महाराणा प्रताप” है। डॉ शर्मा ने महाराणा प्रताप,हल्दीघाटी युद्ध और मेवाड़ पर कुल 4 किताबे लिखी है जिसमे से यह एक है
आप ने अपनी शोध मे खुदाई से प्राप्त ताम्र पत्रो ,भूमि के पट्टो ,मंदिर के अभिलेखों एव प्रताप कालीन ऐतिहासिक स्त्रोत आईने–अकबरी , अकबर नाम जोकि क्रमशः अबुल फजल व बदायू द्वारा लिखे गए है पर आधारित तर्कों के आधार पर यह प्रमाणित किया कि “हल्दीघाटी के युद्ध मे महान महाराणा प्रताप ही विजय हुए थे“ !
समस्त विश्व शर्मा जी का आभारी रहेगा, क्योकि गलत इतिहास पढ़ कर हम कभी सही भविष्य की तरफ नही जा सकते।
शर्मा जी की पुस्तक “राष्ट्ररत्न महाराणा प्रताप” आजकल राजस्थान विश्वविद्यालय में MA, स्नातकोत्तर पढ़ी जाती है।
“इतिहास को कोई व्यक्ति नही तथ्य बदलते है, इतिहास सत्य एवं तथ्यो का आग्रह है। इतिहास क्या है, इसकी समीक्षा राजनेताओं को नही करनी चाहिए, ये काम सत्य, तथ्य, एवं विद्वानो तथा निष्पक्ष लोगो व जनता पर छोड़ देना चाहिए ।
ये शब्द शर्मा जी ने एक साक्षात्कार में कहे थे ।
★ इस पुरे प्रकरण में सोचने वाली बात ये है कि सत्य और इतिहास में फेरबदल करने कि कोशिश कौन करता है ?
★ सही इतिहास जनता तक ना पँहुचे इसमे किसका फायदा है ??
– स्व. श्री राजीव दीक्षित जी ने अपने एक शोध व्याख्यान में समझाया था कि किस प्रकार मुग़लो, एवं अरबो ने हमारे इतिहास ,ग्रंथों, मंदिरो को नष्ट किया, उनके बाद अंग्रेजो ने किस प्रकार मैक्समूलर (जर्मन विद्वान) एवं विलियम हंटर कमीशन की सहायता से हमारे इतिहास और धर्म ग्रंथो में विकृतिया डाली, जो कि अतार्किक है एवं घटिया है, जैसे आर्य बाहर से आये थे, जैसे उन्होंने मनुस्मृति में विकृति डाली आदि ऐसी कई है ।आपको असली मनुस्मृति पढ़नी चाहिए वो पुस्तक महान है, अंग्रेजी संसद को हंटिंग कमीशन ने हजारों पत्तों की रिपोर्ट सोपि थी, जिसमें लिखा था कि उन्होंने किन किन भारतीय ग्रन्थों में क्या क्या विकृतिया डाली ।
अंग्रेज विकृत इतिहास हमे पढ़ना चाहते थे , ताकि हम गुलाम ही बने रहे ,सीधी सी बात है वो हमसे ये बात छुपाना चाहते थे कि हमारे पूर्वज महान थे। इस अंधकार भरे क्षेत्र में मेवाड़ के “श्री चंद्रशेखर शर्मा“ जी एक जोकि एक खोजी विद्वान है एक स्वर्णिम सूरज की तरह उभरे है, मुझे गर्व है उनपर साथ ही उनके आगामी खोजी कार्यो के लिए शुभकामनाएं।
आज अंग्रेज नही है, ना ही मुग़लो, अफगानों की सत्ता है ,तो फिर इस विकृत इतिहास से किसको लाभ है ? आजभी अंग्रेजो द्वारा निर्मित इतिहास का कोंन समर्थक है? क्या कोई ऐसा भी है जो आज भी इतिहास मे विकृतिया डालने का इतिहास दोहरा रहा है? इन प्रश्नों के उत्तर में आप पर छोड़ता हूँ।
मित्रो ये 21वी सदी है, भारत की सदी, हमारा फ़ोन हमारा हथियार है, इंटरनेट सहायक है, और सत्य लक्ष्य है ।
यह उदयपुर का सबसे प्राचीन एवं प्रमुख गुफा मंदिर है, आध्यात्म की दृष्टि से भी इसका प्रमुख स्थान है, इसे “उदयपुर का अमरनाथ” भी कहा जाता है। यह प्राचीन गुफा उदयपुर के बिलिया गाँव में ओड़ा पर्वत के शिखर पर स्थित है, जो की तितरडी गाँव के पास है| यहाँ भगवान शिव का प्राचीन मंदिर है, ऊपर पहाड़ पर यह मंदिर बड़े ही विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है, इस गुफा की एक खासियत यह भी हें की इस तक चढ़ाई का रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा हैं जो की आगन्तुको को अति आनंदित करता है।
यह एक गहरी गुफा है जिसके दुसरे छोर पर शिवलिंग हें, इस गुफा में प्रवेश करते समय हमें हजारों चमकादड़े गुफा की दीवारों पर उल्टी लटकती हुई दिख जाती हैं, साथ ही पत्थर के प्राकृतिक सर्प भी दीवारों पर दिख जाते हैं। इस मंदिर से अक्सर अखंड मंत्रोचार की आवाज़े आती रहती हैं कुछ विशेष अवसरों पर पूरा पहाड़ सुन्दरकाण्ड, भजनों व मंत्रो से गुंजायमान रहता हैं। हर माह यहाँ 48 घंटो का अनवरत जाप होता है।
इस गुफा का भ्रमण करने से एक विशिष्ट आध्यात्मिक आनंद का अनुभव होता है तथा यहाँ के सम्पूर्ण मंदिर परिसर में छाई शांति हमें खुद में एक उर्जा का अनुभव करवाती हैं। इस गुफा के अंदर एक और छोटी गुफा है जो की एक रहस्यमयी गुफा है, यह दूसरी गुफा इतनी बड़ी और लम्बी है की इसके दुसरे छोर पर आज तक कोई नहीं पहुच सका हैं, बड़े बुजुर्ग कहते हें की यह दूसरी गुफा काशी तक जाती हैं।
इस मंदिर का एक आश्चर्यजनक प्रभाव यह है की जब हम पहाड़ की चढाई से थककर गुफा में पहुचते हैं तो गुफा में कुछ ही क्षण बिताने पर हम फिर से खुद को उर्जावान महसूस करते हैं। यहाँ शांत वातावरण, शुद्ध एवं ठंडी हवा के झोके हमें चिंता मुक्त कर देते हैं, साथ ही सारी मानसिक थकान भी दूर हो जाती हैं। यहाँ पहाड़ से देखने पर पूरा उदयपुर दिखाई देता हैं, यहाँ एक सुन्दर बगीचा और एक भव्य हनुमान मंदिर भी हैं। इस गुफा में हर पूर्णिमा की रात को भजन संध्या होती हैं जो कि एक संगीतमय रात्रि जागरण होता हैं।
अब कैसे छूटे राम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी,
जाकी अँग-अँग बास समानी ।।
गुरुजीश्रीश्री 1008 श्रीबृजबिहारीजीबन
सद्गुरु श्री श्री 1008 श्री बृज बिहारी बन पिता श्री कैसाराम जी तिवारी शर्मा माता संगम देवी गांव राजाजी का प्रयागपुर जिला बराईच (उ.प्र.) को हुआ। आप का मन बचपन से ही भक्ति भाव मे रहा।
17 वर्ष की उम्र में ही भक्ति में तपस्वी के रूप में भिन्न स्थानों पर तपस्याएं करते रहे। आप निराहार रहकर 12 वर्षो तक एक पांव पर ही खड़े रहकर तपस्या की जो स्थान गुप्तेश्वर महादेव की पहाड़ी होडा पर्वत के अंदर प्राकृतिक गुफा में है वहीं उनकी तपस्या रही जहाँ आज भी अंदर की तरफ अलग से गुफा है। गुरूदेव ने अपना जीवन बड़ी विनम्र और प्रेममयी भावना से बच्चो, बूढ़ो, माताओं, बहनों को ज्ञान देने एवं हमारा जीवन प्रभु प्रीत से जोड़ने में व्यतीत कर दिया।
शिवलिंग का स्वप्न
दाता होकम जब दशानन करते हुए निरंजनी अखाड़े के साथ उदयपुर पधारे, तब उन्हें एक रात स्वप्न आया कि मध्य उदयपुर से कुछ ही दूर किसी गुफानुमा पहाड़ी के अंदर एक छोटा सा महादेव का लिंग है तब से गुरुजी को वो स्वप्न बार बार हर रात्रि को आने लगा । मानो वो लिंग उनको अपनी तरफ खींच रहा हो । देशाटन करते हुए वह जहा भी जाते वह स्वप्न उनका पीछा नही छोड़ता , उनको नींद नही लेते हुए बहुत समय बीत गया था ।
अपने गुरूजी की आज्ञा पाकर दाता हुकम 1951 कार्तिक माह में सर्वप्रथम उदयपुर से 10 किलोमीटर दूर मानव खेडा गांव में पधारे और वह तीन-चार दिन रुके। वहाँ लोगो से अपने स्वप्न दृश्य की चर्चा कर की एवं स्वप्न से मिलता जुलता स्थान ढूंढते हुए वह एकलिंगपुरा जा पहुंचे । वहाँ पर भी लोगो को अपने सपने का वृत्तांत सुनाया। वहा के लोगो ने गुरुजी को कुछ बच्चो के साथ संध्या काल मे होंडा पर्वत जो कि तितरडी (बिलिया) में है वहां तक पहुचाया। वो कार्तिक पूर्णिमा का दिन था। वहाँ पर्वत पर पहले से एक धूणी थी। गुरुदेव कुछ समय तक उस धूणी के पास बैठे रहे फिर उन्हें लगा की वो सपने वाला लिंग उन्हें अपनी तरफ बुला रहा है वहाँ खोजबीन करने पर गुरुजी को गुफा के मुख्य द्वार दिखाई पड़ा जो कि उस समय चमकादडो की पीठ से करीब करीब पूरा बन्द था गुरुजी ने अपने वस्त्रो से गुफा की सफाई की तथा अंदर जा कर शिवलिंग की खोज की । सद्गुरु बृज बिहारी जी बन की उम्र वर्तमान में करीब 95 से 100 वर्ष की हो चुकी है । पर वह हम सभी भक्तों को एक परिवार की तरह मानकर अपार प्रेम करते है। ऐसे सरल एवं प्रेममयी जीवन जीने वाले तथा निस्वार्थ भाव रखकर सम्पूर्ण मानव कल्याण में सर्वस्व लुटाने वाले गुरुदेव को हम बारम्बार प्रणाम केते है ।।जयमहादेव।
सदस्यता प्राप्त :- दाता हुकम श्री श्री 1008 श्री बृज बिहारी जी बन के शिष्य (उत्तराधिकारी) श्री तन्मय जी बन महाराज, ने माघ सुदी त्रयोदशी सं २०७४ तदनुसार दिनांक 29 जनवरी 2018 को निरंजनी अखाड़ा हरिद्वार में औपचारिक सदस्यता प्राप्त की , साथ ही निरंजनी अखाड़ा के द्वारा श्री तन्मय जी बन का सम्मान हुआ ! इसी दिन दाता हुकम की तरफ से निरंजनी अखाड़े में अखाड़ा परिचय भोज (भंडारा) भी कराया गया !
मेवाड़ योद्धाओं की भूमि है, यहाँ कई शूरवीरों ने जन्म लिया और अपने कर्तव्य का प्रवाह किया । उन्ही उत्कृष्ट मणियों में से एक थे राणा सांगा । पूरा नाम महाराणा संग्राम सिंह । वैसे तो मेवाड़ के हर राणा की तरह इनका पूरा जीवन भी युद्ध के इर्द-गिर्द ही बीता लेकिन इनकी कहानी थोड़ी अलग है । एक हाथ , एक आँख, और एक पैर के पूर्णतः क्षतिग्रस्त होने के बावजूद इन्होंने ज़िन्दगी से हार नही मानी और कई युद्ध लड़े ।
ज़रा सोचिए कैसा दृश्य रहा होगा जब वो शूरवीर अपने शरीर मे 80 घाव होने के बावजूद, एक आँख, एक हाथ और एक पैर पूर्णतः क्षतिग्रस्त होने के बावजूद जब वो लड़ने जाता था ।।
कोई योद्धा, कोई दुश्मन इन्हें मार न सका पर जब कुछ अपने ही विश्वासघात करे तो कोई क्या कर सकता है । आईये जानते है ऐसे अजयी मेवाड़ी योद्धा के बारे में, खानवा के युद्ध के बारे में एवं उनकी मृत्यु के पीछे के तथ्यों के बारे में।
परिचय –
राणा रायमल के बाद सन् 1509 में राणा सांगा मेवाड़ के उत्तराधिकारी बने। इनका शासनकाल 1509- 1527 तक रहा । इन्होंने दिल्ली, गुजरात, व मालवा मुगल बादशाहों के आक्रमणों से अपने राज्य की बहादुरी से ऱक्षा की। उस समय के वह सबसे शक्तिशाली राजा थे । इनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की।
राणा सांगा अदम्य साहसी थे । इन्होंने सुलतान मोहम्मद शासक माण्डु को युद्ध में हराने व बन्दी बनाने के बाद उन्हें उनका राज्य पुनः उदारता के साथ सौंप दिया, यह उनकी बहादुरी को दर्शाता है। बचपन से लगाकर मृत्यु तक इनका जीवन युद्धों में बीता। इतिहास में वर्णित है कि महाराणा संग्राम सिंह की तलवार का वजन 20 किलो था ।
सांगा के युद्धों का रोचक इतिहास –
* महाराणा सांगा का राज्य दिल्ली, गुजरात, और मालवा के मुगल सुल्तानों के राज्यो से घिरा हुआ था। दिल्ली पर सिकंदर लोदी, गुजरात में महमूद शाह बेगड़ा और मालवा में नसीरुद्दीन खिलजी सुल्तान थे। तीनो सुल्तानों की सम्मिलित शक्ति से एक स्थान पर महाराणा ने युद्ध किया फिर भी जीत महाराणा की हुई। सुल्तान इब्राहिम लोदी से बूँदी की सीमा पर खातोली के मैदान में वि.स. 1574 (ई.स. 1517) में युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहिम लोदी पराजित हुआ और भाग गया। महाराणा की एक आँख तो युवाकाल में भाइयो की आपसी लड़ाई में चली गई थी और इस युद्ध में उनका दाया हाथ तलवार से कट गया तथा एक पाँव के घुटने में तीर लगने से सदा के लिये लँगड़े हो गये थे।
* महाराणा ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर को लड़ाई में ईडर, अहमदनगर एवं बिसलनगर में परास्त कर अपने अपमान का बदला लिया अपने पक्ष के सामन्त रायमल राठौड़ को ईडर की गद्दी पर पुनः बिठाया।
अहमदनगर के जागीरदार निजामुल्मुल्क ईडर से भागकर अहमदनगर के किले में जाकर रहने लगा और सुल्तान के आने की प्रतीक्षा करने लगा । महाराणा ने ईडर की गद्दी पर रायमल को बिठाकर अहमद नगर को जा घेरा। मुगलों ने किले के दरवाजे बंद कर लड़ाई शुरू कर दी। इस युद्ध में महाराणा का एक नामी सरदार डूंगरसिंह चौहान(वागड़) बुरी तरह घायल हुआ और उसके कई भाई बेटे मारे गये। डूंगरसिंह के पुत्र कान्हसिंह ने बड़ी वीरता दिखाई। किले के लोहे के किवाड़ पर लगे तीक्ष्ण भालों के कारण जब हाथी किवाड़ तोड़ने में नाकाम रहा , तब वीर कान्हसिंह ने भालों के आगे खड़े होकर महावत को कहा कि हाथी को मेरे बदन पर झोंक दे। कान्हसिंह पर हाथी ने मुहरा किया जिससे उसका शरीर भालो से छिन छिन हो गया और वह उसी क्षण मर गया, परन्तु किवाड़ भी टूट गए। इससे मेवाड़ी सेना में जोश बढा और वे नंगी तलवारे लेकर किले में घुस गये और मुगल सेना को काट डाला। निजामुल्मुल्क जिसको मुबारिजुल्मुल्क का ख़िताब मिला था वह भी बहुत घायल हुआ और सुल्तान की सारी सेना तितर-बितर होकर अहमदाबाद को भाग गयी।
* माण्डू के सुलतान महमूद के साथ वि.स्. 1576 में युद्ध हुआ जिसमें 50 हजार सेना के साथ महाराणा गागरोन के राजा की सहायता के लिए पहुँचे थे। इस युद्ध में सुलतान महमूद बुरी तरह घायल हुआ। उसे उठाकर महाराणा ने अपने तम्बू पहुँचवा कर उसके घावो का इलाज करवाया। फिर उसे तीन महीने तक चितौड़ में कैद रखा और बाद में फ़ौज खर्च लेकर एक हजार राजपूत के साथ माण्डू पहुँचा दिया। सुल्तान ने भी अधीनता के चिन्हस्वरूप महाराणा को रत्नजड़ित मुकुट तथा सोने की कमरपेटी भेंट स्वरूप दिए, जो सुल्तान हुशंग के समय से राज्यचिन्ह के रूप में वहाँ के सुल्तानों के काम आया करते थे। बाबर बादशाह से सामना करने से पहले भी राणा सांगा ने 18 बार बड़ी बड़ी लड़ाईयाँ दिल्ली व् मालवा के सुल्तानों के साथ लड़ी। एक बार वि.स्. 1576 में मालवे के सुल्तान महमूद द्वितीय को महाराणा सांगा ने युद्ध में पकड़ लिया, परन्तु बाद में बिना कुछ लिये उसे छोड़ दिया।
मीरा बाई से सम्बंध –
महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम भोजराज था, जिनका विवाह मेड़ता के राव वीरमदेव के छोटे भाई रतनसिंह की पुत्री मीराबाई के साथ हुआ था। मीराबाई मेड़ता के राव दूदा के चतुर्थ पुत्र रतनसिंह की इकलौती पुत्री थी।
बाल्यावस्था में ही उसकी माँ का देहांत हो जाने से मीराबाई को राव दूदा ने अपने पास बुला लिया और वही उसका लालन-पालन हुआ।
मीराबाई का विवाह वि.स्. 1573 (ई.स्. 1516) में महाराणा सांगा के कुँवर भोजराज के साथ होने के कुछ वर्षों बाद कुँवर युवराज भोजराज का देहांत हो गया। मीराबाई बचपन से ही भगवान की भक्ति में रूचि रखती थी। उनका पिता रत्नसिंह राणा सांगा और बाबर की लड़ाई में मारा गया। महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद छोटा पुत्र रतनसिंह उत्तराधिकारी बना और उसकी भी वि.स्. 1588(ई.स्. 1531) में मरने के बाद विक्रमादित्य मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। मीराबाई की अपूर्व भक्ति और भजनों की ख्याति दूर दूर तक फैल गयी थी जिससे दूर दूर से साधु संत उससे मिलने आया करते थे। इसी कारण महाराणा विक्रमादित्य उससे अप्रसन्न रहा करते और तरह तरह की तकलीफे दिया करता थे। यहाँ तक की उसने मीराबाई को मरवाने के लिए विष तक देने आदि प्रयोग भी किये, परन्तु वे निष्फल ही हुए। ऐसी स्थिति देख राव विरामदेव ने मीराबाई को मेड़ता बुला लिया। जब जोधपुर के राव मालदेव ने वीरमदेव से मेड़ता छीन लिया तब मीराबाई तीर्थयात्रा पर चली गई और द्वारकापुरी में जाकर रहने लगी। जहा वि.स्. 1603(ई.स्. 1546) में उनका देहांत हुआ।
खानवा का युद्ध –
बाबर सम्पूर्ण भारत को रौंदना चाहता था जबकि राणा सांगा तुर्क-अफगान राज्य के खण्डहरों के अवशेष पर एक हिन्दू राज्य की स्थापना करना चाहता थे, परिणामस्वरूप दोनों सेनाओं के मध्य 17 मार्च, 1527 ई. को खानवा में युद्ध आरम्भ हुआ।
इस युद्ध में राणा सांगा का साथ महमूद लोदी दे रहे थे। युद्ध में राणा के संयुक्त मोर्चे की खबर से बाबर के सौनिकों का मनोबल गिरने लगा। बाबर अपने सैनिकों के उत्साह को बढ़ाने के लिए शराब पीने और बेचने पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर शराब के सभी पात्रों को तुड़वा कर शराब न पीने की कसम ली, उसने मुसलमानों से ‘तमगा कर’ न लेने की घोषणा की। तमगा एक प्रकार का व्यापारिक कर था जिसे राज्य द्वारा लगाया जाता था। इस तरह खानवा के युद्ध में भी पानीपत युद्ध की रणनीति का उपयोग करते हुए बाबर ने सांगा के विरुद्ध सफलता प्राप्त की। युद्ध क्षेत्र में राणा सांगा घायल हुए, पर किसी तरह अपने सहयोगियों द्वारा बचा लिए गये। कालान्तर में अपने किसी सामन्त द्वारा विष दिये जाने के कारण राणा सांगा की मृत्यु हो गई। खानवा के युद्ध को जीतने के बाद बाबर ने ‘ग़ाजी’ की उपाधि धरण की।
मृत्यु –
खानवा के युद्ध मे राणा सांगा के चेहरे पर एक तीर आकर लगा जिससे राणा मूर्छित हो गए ,परिस्थिति को समझते हुए उनके किसी विश्वास पात्र ने उन्हें मूर्छित अवस्था मे रण से दूर भिजवा दिया एवं खुद उनका मुकुट पहनकर युद्ध किया, युद्ध मे उसे भी वीरगति मिली एवं राणा की सेना भी युद्ध हार गई । युद्ध जीतने की बाद बाबर ने मेवाड़ी सेना के कटे सरो की मीनार बनवाई थी । जब राणा को होश आने के बाद यह बात पता चली तो वो बहुत क्रोधित हुए उन्होंने कहा मैं हारकर चित्तोड़ वापस नही जाऊंगा उन्होंने अपनी बची-कुची सेना को एकत्रित किया और फिर से आक्रमण करने की योजना बनाने लगे इसी बीच उनके किसी विश्वास पात्र ने उनके भोजन में विष मिला दिया ,जिससे उनकी मृत्यु हो गई ।
अर्थात सिंह एक ही बार संतान को जन्म देता है. सज्जन लोग बात को एक ही बार कहते हैं । केला एक ही बार फलता है. स्त्री को एक ही बार तेल एवं उबटन लगाया जाता है अर्थात उसका विवाह एक ही बार होता है. ऐसे ही राव हमीर का हठ है. वह जो ठानते हैं, उस पर दोबारा विचार नहीं करते।
ये वो मेवाड़ी शासक है जिन्होंने अल्लाउद्दीन खिलजी को तीन बार हराया था ,और अपनी कैद में भी रखा था । इनके नाम के आगे आज भी हठी जोड़ा जाता है , आइये जानते है इस मेवाड़ी शासक के बारे में और उसके हठ, तथा ऐतिहासिक युद्धो के बारे में ।।
परिचय –
राव हम्मीर देव चौहान रणथम्भौर “रणतभँवर के शासक थे। ये पृथ्वीराज चौहाण के वंशज थे। इनके पिता का नाम जैत्रसिंह था। ये इतिहास में ‘‘हठी हम्मीर के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। जब हम्मीर वि॰सं॰ १३३९ (ई.स. १२८२) में रणथम्भौर (रणतभँवर) के शासक बने तब रणथम्भौर के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है।हम्मीर देव रणथम्भौर के चौहाण वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण शासक थे। इन्होने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था।
राव हमीर का जन्म सात जुलाई, 1272 को चौहानवंशी राव जैत्रसिंह के तीसरे पुत्र के रूप में अरावली पर्वतमालाओं के मध्य बने रणथम्भौर दुर्ग में हुआ था। बालक हमीर इतना वीर था कि तलवार के एक ही वार से मदमस्त हाथी का सिर काट देता था. उसके मुक्के के प्रहार से बिलबिला कर ऊंट धरती पर लेट जाता था। इस वीरता से प्रभावित होकर राजा जैत्रसिंह ने अपने जीवनकाल में ही 16 दिसम्बर, 1282 को उनका राज्याभिषेक कर दिया। राव हमीर ने अपने शौर्य एवं पराक्रम से चौहान वंश की रणथम्भौर तक सिमटी सीमाओं को कोटा, बूंदी, मालवा तथा ढूंढाढ तक विस्तृत किया। हमीर ने अपने जीवन में 17 युद्ध लड़े, जिसमें से 16 में उन्हें सफलता मिली। 17वां युद्ध उनके विजय अभियान का अंग नहीं था।
इतिहासमेंस्थान –
मेवाड़ राज्य उसकी उत्तपत्ति से ही शौर्य और वीरता का प्रतीक रहा है। मेवाड़ की शौर्य धरा पर अनेक वीर हुए। इसी क्रम में मेवाड़ के राजा विक्रमसिंह के बाद उसका पुत्र रणसिंह(कर्ण सिंह) राजा हुआ। जिसके बाद दो शाखाएँ हुई एक रावल शाखा तथा दूसरी राणा शाखा । जिसमे से रावल शाखा वाले मेवाड़ के स्वामी बने और राणा शाखा वाले सिसोदे के जागीरदार रहे। राणा शाखा वाले सिसोदे ग्राम में रहने के कारण सिसोदिया कहलाये।
रावल शाखा में कर्णसिंह के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र क्षेमसिंह मेवाड़ के राजा हुआ। जिसके बाद इस वंश का रावल रतनसिंह तक मेवाड़ पर राज्य रहा। रावल वंश की समाप्ति अल्लाउद्दीन खिलजी के विस्. 1360 (ई.स. 1303) में रावल रतनसिंह सिंह से चित्तौड़ छीनने पर हुई। राणा शाखा के राहप के वंशज ओर सिसोदा के राणा हम्मीर ने चित्तौड़ के प्रथम शाके में रावल रतनसिंह के मारे जाने के कुछ वर्षों पश्चात चित्तौड़ अपना अधिकार जमाया और मेवाड़ के स्वामी हुआ। राणा हम्मीर ने मेवाड़ पर सिसोदिया की राणा शाखा का राज्य विस्. 1383 (ईस. 1326) के आसपास स्थापित कर महाराणा का पद धारण किया। इस प्रकार सिसोदे कि राणा शाखा में माहप ओर राहप से राणा अजयसिंह तक के सब वंशज सिसोदे के सामन्त रहे। चित्तौड़ का गया हुआ राज्य अजयसिंह के भतीजे (अरिसिंह का पुत्र) राणा हम्मीर ने छुड़ा लिया था और मेवाड़ पर सिसोदियों की राणा शाखा का राज्य स्थिर किया। तब से लेकर भारत के स्वतंत्रता के पश्चात मेवाड़ राज्य के भारतीय संघ में विलय होने तक मेवाड़ पर सोसोदियो की राणा शाखा का राज्य चला आता है।
हठीहम्मीरसिंहऔरखिलजीकायुद्ध–
हम्मीर के नेतृत्व में रणथम्भौर के चौहानों ने अपनी शक्ति को काफी सुदृढ़ बना लिया और राजस्थान के विस्तृत भूभाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया था। अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के निकट चौहानों की बढ़ती हुई शक्ति को नहीं देखना चाहता था, इसलिए संघर्ष होना अवश्यंभावी था।
अलाउद्दीन की सेना ने सर्वप्रथम छाणगढ़ पर आक्रमण किया। उनका यहाँ आसानी से अधिकार हो गया। छाणगढ़ पर मुगलों ने अधिकार कर लिया है, यह समाचार सुनकर हम्मीर ने रणथम्भौर से सेना भेजी। चौहान सेना ने मुगल सैनिकों को परास्त कर दिया। मुगल सेना पराजित होकर भाग गई, चौहानों ने उनका लूटा हुआ धन व अस्त्र-शस्त्र लूट लिए। वि॰सं॰ १३५८ (ई.स. १३०१) में अलाउद्दीन खिलजी ने दुबारा चौहानों पर आक्रमण किया। छाणगढ़ में दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में हम्मीर स्वयं नहीं गया था। वीर चौहानों ने वीरतापूर्वक युद्ध किया लेकिन विशाल मुगल सेना के सामने कब तक टिकते। अन्त में सुल्तान का छाणगढ़ पर अधिकार हो गया।
तत्पश्चात् मुगल सेना रणथम्भौर की तरफ बढ़ने लगी। तुर्की सेनानायकों ने हमीर देव के पास सूचना भिजवायी, कि हमें हमारे विद्रोहियों को सौंप दो, जिनको आपने शरण दे रखी है। हमारी सेना वापिस दिल्ली लौट जाएगी। लेकिन हम्मीर अपने वचन पर दृढ़ थे। मुगल सेना का घेरा बहुत दिनों तक चलता रहा। लेकिन उनका रणथम्भौर पर अधिकार नहीं हो सका।
अलाउद्दीन ने राव हम्मीर के पास दुबारा दूत भेजा की हमें विद्रोही सैनिकों को सौंप दो, हमारी सेना वापस दिल्ली लौट जाएगी। हम्मीर हठ पूर्वक अपने वचन पर दृढ था। बहुत दिनों तक मुगल सेना का घेरा चलता रहा और चौहान सेना मुकाबला करती रही। अलाउद्दीन को रणथम्भीर पर अधिकार करना मुश्किल लग रहा था। उसने छल-कपट का सहारा लिया। हम्मीर के पास संधि का प्रस्ताव भेजा जिसको पाकर हम्मीर ने अपने आदमी सुल्तान के पास भेजे। उन आदमियों में एक सुर्जन कोठ्यारी (रसद आदि की व्यवस्था करने वाला) व कुछ सेना नायक थे। अलाउद्दीन ने उनको लोभ लालच देकर अपनी तरफ मिलाने का प्रयास किया। इनमें से गुप्त रूप से कुछ लोग सुल्तान की तरफ हो गए।
दुर्ग का धेरा बहुत दिनों से चल रहा था, जिससे दूर्ग में रसद आदि की कमी हो गई। दुर्ग वालों ने अब अन्तिम निर्णायक युद्ध का विचार किया। राजपूतों ने केशरिया वस्त्र धारण करके शाका किया। राजपूत सेना ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए। भीषण युद्ध करना प्रारम्भ किया। दोनों पक्षों में आमने-सामने का युद्ध था। एक ओर संख्या बल में बहुत कम राजपूत थे तो दूसरी ओर सुल्तान की कई गुणा बडी सेना, जिनके पास पर्येति युद्धादि सामग्री एवं रसद थी। अंत में राजपूतों की सेना वजयी रही।
बादशाह को रखा तीन माह जेल में –
बादशाह खिलजी को राणा ने हराने के बाद तीन माह तक जेल में बंद रखा । तीन माह पश्चात उससे अजमेर रणथम्भौर, नागौर शुआ और शिवपुर को मुक्त कराके उन्हें अपने लिए प्राप्त कर और एक सौ हाथी व पचास लाख रूपये लेकर जेल से छोड़ दिया।
राणा ने अपने जीवन काल में मारवाड़ जयपुर, बूंदी, ग्वालियर, चंदेरी रायसीन, सीकरी, कालपी तथा आबू के राजाओं को भी अपने अधीन कर पुन: एक शक्तिशाली मेवाड़ की स्थापना की।
बप्पा रावल मेवाड़ी राजवंश के सबसे प्रतापी योद्धा थे । वीरता में इनकी बराबरी भारत का कोई और योद्धा कर ही नहीं सकता। यही वो शासक एवं योद्धा है जिनके बारे में राजस्थानी लोकगीतों में कहा जाता है कि –
सर्वप्रथम बप्पा रावल ने केसरिया फहराया ।
और तुम्हारे पावन रज को अपने शीश लगाया ।।
फिर तो वे ईरान और अफगान सभी थे जिते ।
ऐसे थे झपटे यवनो पर हों मेवाड़ी चीते ।।
सिंध में अरबों का शासन स्थापित हो जाने के बाद जिस वीर ने उनको न केवल पूर्व की ओर बढ़ने से सफलतापूर्वक रोका था, बल्कि उनको कई बार करारी हार भी दी थी, उसका नाम था बप्पा रावल। बप्पा रावल गहलोत राजपूत वंश के आठवें शासक थे और उनका बचपन का नाम राजकुमार कलभोज था। वे सन् 713 में पैदा हुए थे और लगभग 97 साल की उम्र में उनका देहान्त हुआ था। उन्होंने शासक बनने के बाद अपने वंश का नाम ग्रहण नहीं किया बल्कि मेवाड़ वंश के नाम से नया राजवंश चलाया था और चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया ।
इस्लाम की स्थापना के तत्काल बाद अरबी मुस्लिमों ने फारस (ईरान) को जीतने के बाद भारत पर आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिए थे। वे बहुत वर्षों तक पराजित होकर जीते रहे, लेकिन अन्ततः राजा दाहिर के कार्यकाल में सिंध को जीतने में सफल हो गए। उनकी आंधी सिंध से आगे भी भारत को लीलना चाहती थी, किन्तु बप्पा रावल एक सुद्रढ़ दीवार की तरह उनके रास्ते में खड़े हो गए। उन्होंने अजमेर और जैसलमेर जैसे छोटे राज्यों को भी अपने साथ मिला लिया और एक बलशाली शक्ति खड़ी की। उन्होंने अरबों को कई बार हराया और उनको सिंध के पश्चिमी तट तक सीमित रहने के लिए बाध्य कर दिया, जो आजकल बलूचिस्तान के नाम से जाना जाता है।
इतना ही नहीं उन्होंने आगे बढ़कर गजनी पर भी आक्रमण किया और वहां के शासक सलीम को बुरी तरह हराया। उन्होंने गजनी में अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया और तब चित्तौड़ लौटे। चित्तौड़ को अपना केन्द्र बनाकर उन्होंने आसपास के राज्यों को भी जीता और एक दृढ़ साम्राज्य का निर्माण किया। उन्होंने अपने राज्य में गांधार, खुरासान, तूरान और ईरान के हिस्सों को भी शामिल कर लिया था।
बप्पा बहुत ही शक्तिशाली शासक थे। बप्पा का लालन-पालन ब्राह्मण परिवार के सान्निध्य में हुआ। उन्होंने अफगानिस्तान व पाकिस्तान तक अरबों को खदेड़ा था। बप्पा के सैन्य ठिकाने के कारण ही पाकिस्तान के शहर का नाम रावलपिंडी पड़ा।आठवीं सदी में मेवाड़ की स्थापना करने वाले बप्पा भारतीय सीमाओं से बाहर ही विदेशी आक्रमणों का प्रतिकार करना चाहते थे।
हारीतऋषिकाआशीर्वाद –
हारीत ऋषि का आशीर्वाद मिला बप्पा के जन्म के बारे में अद्भुत बातें प्रचलित हैं। बप्पा जिन गायों को चराते थे, उनमें से एक बहुत अधिक दूध देती थी। शाम को गाय जंगल से वापस लौटती थी तो उसके थनों में दूध नहीं रहता था। बप्पा दूध से जुड़े हुए रहस्य को जानने के लिए जंगल में उसके पीछे चल दिए। गाय निर्जन कंदरा में पहुंची और उसने हारीत ऋषि के यहां शिवलिंग अभिषेक के लिए दुग्धधार करने लगी। इसके बाद बप्पा हारीत ऋषि की सेवा में जुट गए। ऋषि के आशीर्वाद से बप्पा मेवाड़ के राजा बने |
रावलकेसंघर्षकीकहानी–
बप्पा रावल सिसोदिया राजवंश के संस्थापक थे जिनमें आगे चल कर महान राजा राणा कुम्भा, राणा सांगा, महाराणा प्रताप हुए। बप्पा रावल बप्पा या बापा वास्तव में व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है, अपितु जिस तरह “बापू” शब्द महात्मा गांधी के लिए रूढ़ हो चुका है, उसी तरह आदरसूचक “बापा” शब्द भी मेवाड़ के एक नृपविशेष के लिए प्रयुक्त होता रहा है। सिसौदिया वंशी राजा कालभोज का ही दूसरा नाम बापा मानने में कुछ ऐतिहासिक असंगति नहीं होती। इसके प्रजासरंक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही संभवत: जनता ने इसे बापा पदवी से विभूषित किया था। महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बापा का समय संवत् 810 (सन् 753) ई. दिया है। एक दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बापा के राज्यत्याग का समय था। यदि बापा का राज्यकाल 30 साल का रखा जाए तो वह सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठा होगा। उससे पहले भी उसके वंश के कुछ प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके थे, किंतु बापा का व्यक्तित्व उन सबसे बढ़कर था। चित्तौड़ का मजबूत दुर्ग उस समय तक मोरी वंश के राजाओं के हाथ में था। परंपरा से यह प्रसिद्ध है कि हारीत ऋषि की कृपा से बापा ने मानमोरी को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया। टॉड को यहीं राजा मानका वि. सं. 770 (सन् 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बापा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है।
चित्तौड़ पर अधिकार करना आसान न था। अनुमान है कि बापा की विशेष प्रसिद्धि अरबों से सफल युद्ध करने के कारण हुई। सन् 712 ई. में मुहम्मद कासिम से सिंधु को जीता। उसके बाद अरबों ने चारों ओर धावे करने शुरु किए। उन्होंने चावड़ों, मौर्यों, सैंधवों, कच्छेल्लों को हराया। मारवाड़, मालवा, मेवाड़, गुजरात आदि सब भूभागों में उनकी सेनाएँ छा गईं। इस भयंकर कालाग्नि से बचाने के लिए ईश्वर ने राजस्थान को कुछ महान व्यक्ति दिए जिनमें विशेष रूप से गुर्जर प्रतिहार सम्राट् नागभट प्रथम और बापा रावल के नाम उल्लेखनीय हैं। नागभट प्रथम ने अरबों को पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया। बापा ने यही कार्य मेवाड़ और उसके आसपास के प्रदेश के लिए किया। मौर्य (मोरी) शायद इसी अरब आक्रमण से जर्जर हो गए हों। बापा ने वह कार्य किया जो मोरी करने में असमर्थ थे और साथ ही चित्तौड़ पर भी अधिकार कर लिया। बापा रावल के मुस्लिम देशों पर विजय की अनेक दंतकथाएँ अरबों की पराजय की इस सच्ची घटना से उत्पन्न हुई होंगी।
बप्पा रावल ने अपने विशेष सिक्के जारी किए थे। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प लेख है। बाईं ओर त्रिशूल है और उसकी दाहिनी तरफ वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिनी ओर नंदी शिवलिंग की ओर मुख किए बैठा है। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत् करते हुए एक पुरुष की आकृति है। पीछे की तरफ सूर्य और छत्र के चिह्न हैं। इन सबके नीचे दाहिनी ओर मुख किए एक गौ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता हुआ बछड़ा है। ये सब चिह्न बपा रावल की शिवभक्ति और उसके जीवन की कुछ घटनाओं से संबद्ध हैं।
चित्तौड़गढ़ के इतिहास में जहाँ पद्मिनी के जौहर की अमरगाथाएं, मीरा के भक्तिपूर्ण गीत गूंजते हैं वहीं पन्नाधाय जैसी मामूली स्त्री की स्वामीभक्ति की कहानी भी अपना अलग स्थान रखती है।
बात तब की है‚ जब चित्तौड़गढ़ का किला आन्तरिक विरोध व षड्यंत्रों में जल रहा था। मेवाड़ का भावी राणा उदय सिंह किशोर हो रहा था। तभी उदयसिंह के पिता के चचेरे भाई बनवीर ने एक षड्यन्त्र रच कर उदयसिंह के पिता की हत्या महल में ही करवा दी तथा उदयसिंह को मारने का अवसर ढूंढने लगा। उदयसिंह की माता को संशय हुआ तथा उन्होंने उदय सिंह को अपनी खास दासी व उदय सिंह की धाय पन्ना को सौंप कर कहा कि,
“पन्ना अब यह राजमहल व चित्तौड़ का किला इस लायक नहीं रहा कि मेरे पुत्र तथा मेवाड़ के भावी राणा की रक्षा कर सके‚ तू इसे अपने साथ ले जा‚ और किसी तरह कुम्भलगढ़ भिजवा दे।”
पन्ना धाय राणा साँगा के पुत्र राणा उदयसिंह की धाय माँ थीं। पन्ना धाय किसी राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। अपना सर्वस्व स्वामी को अर्पण करने वाली वीरांगना पन्ना धाय का जन्म कमेरी गावँ में हुआ था। राणा साँगा के पुत्र उदयसिंह को माँ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना ‘धाय माँ’ कहलाई थी। पन्ना का पुत्र चन्दन और राजकुमार उदयसिंह साथ-साथ बड़े हुए थे। उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान पाला था। पन्नाधाय ने उदयसिंह की माँ रानी कर्मावती के सामूहिक आत्म बलिदान द्वारा स्वर्गारोहण पर बालक की परवरिश करने का दायित्व संभाला था। पन्ना ने पूरी लगन से बालक की परवरिश और सुरक्षा की। पन्ना चित्तौड़ के कुम्भा महल में रहती थी।
चित्तौड़ का शासक, दासी का पुत्र बनवीर बनना चाहता था। उसने राणा के वंशजों को एक-एक कर मार डाला। बनवीर एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या करके उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई। पन्ना राजवंश और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महल से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उसके बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला। पन्ना अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना धन्य हैं! जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आँखों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।
पुत्र की मृत्यु के बाद पन्ना उदयसिंह को लेकर बहुत दिनों तक सप्ताह शरण के लिए भटकती रही पर दुष्ट बनबीर के खतरे के डर से कई राजकुल जिन्हें पन्ना को आश्रय देना चाहिए था, उन्होंने पन्ना को आश्रय नहीं दिया। पन्ना जगह-जगह राजद्रोहियों से बचती, कतराती तथा स्वामिभक्त प्रतीत होने वाले प्रजाजनों के सामने अपने को ज़ाहिर करती भटकती रही। कुम्भलगढ़ में उसे यह जाने बिना कि उसकी भवितव्यता क्या है शरण मिल गयी। उदयसिंह क़िलेदार का भांजा बनकर बड़ा हुआ। तेरह वर्ष की आयु में मेवाड़ी उमरावों ने उदयसिंह को अपना राजा स्वीकार कर लिया और उसका राज्याभिषेक कर दिया। उदय सिंह 1542 में मेवाड़ के वैधानिक महाराणा बन गए।
हम सभी ने अपने-अपने शिक्षकों अथवा घर के बड़े बुजुर्गों से महाराज चतुर सिंह के बारे में तो सुना ही होगा, व उनके दोहे एवं शेर भी सुने होंगे । आईये जानते हैं उन महान मेवाड़ी कवि संत चतुर सिंह जी बावजी के बारे में ।
महाराज चतुर सिंह जी बावजी मेवाड़ के लोक संत के रूप में जाने जाते हैं, इन्हें चतर सिंह जी बावजी भी कहते हैं । इनका जन्म 9 फरवरी 1880 को हुआ था , अर्थात (विक्रम संवत सन 1936 माघ शुक्ला चतुर्दशी)। योगीवर्य महाराज चतुरसिंह जी मेवाड़ की भक्ति परम्परा के एक परमहंस व्यक्तित्व थे । इस संत ने लोकवाणी मेवाड़ी के माध्यम से अपने अद्भुत विचारों को साहित्य द्वारा जन-जन के लिए सुलभ बनाया। इनके लेखन की विशेषता यह थी की यह अत्यंत गूढ़ से गूढ़ बातों को आसान शब्दो में बयां कर देते थे।
बावजी का जन्म एक राजपरिवार में हुआ था, इनकी माता रानी कृष्ण कँवर एवं पिता श्री सूरत सिंह थे। इनका जन्म स्थान कर्जली उदयपुर था । इनके गुरु ठाकुर गुमान सिंह जी सारंगदेवोत थे, जो कि लक्ष्मणपुरा से थे।
चतुर सिंह जी बावजी ने लगभग 21 छोटे बड़े ग्रंथो की रचना की। जिनमे से मेवाड़ी बोली में लिखी गईं गीता पर गंगा-जलि एवं चंद्र शेखर स्त्रोत विश्व प्रसिद्ध हैं। –
उनकी रचनाओं में ईश्वर ज्ञान और लोक व्यवहार का सुन्दर मिश्रण है। कठिन से कठिन ज्ञान तत्व को हमारे जीवन के दैनिक व्यवारों के उदाहरणों से समझाते हुए सुन्दर लोक भाषा में इस चतुराई से ढाला है कि उनके गीत, उनमें बताई गई बात एक दम गले उतर कर हृदय में जम जाती हैं, मनुष्य का मस्तिष्क उसे पकड़ लेता है।
एक बात और है। बावजी चतुर सिंहजी के गीत और दोहे जीवन की हर घड़ी, विवाह-शादी, समारोह, आदि अवसरों पर गाये-सूनाये जाने योग्य है। उन्हें सुनने, सुनाने वाले के मन भी शान्ती, शुध्दता और नई रोशनी मिलती है।
आप सभी सज्जनों से निवेदन हैं कि इस महान् सन्त कवि बावजी चतुर सिंहजी की कविताओं को पढ़े अन्य बालक बालिकाओं और लोगों को पढ़ावे और समाज में अधिक से अधिक प्रचार कर लोगों के मन और मस्तिष्क को नया ज्ञान, पृकाश, ओर नया आनन्द दे।
प्रस्तुत है बावजी की कुछ रचनाएँ ।।
कोईकेवेमुकरुनकोईकेवेराम।
न्यारान्याराकोईनिमुनमारोराम।।
रेंटफरेचरख्योफरेपणफरवामेंफेर।
वोतोवाडहर्योकरे ,वीछूतारोढेर।।
धरम रा गेला री गम नी है, जीशूँ अतरी लड़ा लड़ी है ।।
शंकर, बद्ध, मुहम्मद, ईशा, शघलां साँची की’ है ।
अरथ सबांरो एक मिल्यो है, पण बोली बदली है।।
आप आपरो मत आछो पण, आछो आप नहीं है।
आप आपरा मत री निंदा, आप आप शूं व्ही है।।
नारी नारी ने जाणे, पर नर सू अणजाण ।
जाण व्हियां पे नी जणे, उद्या अलख पहचाण ।।
कृष्ण कूख तें प्रकट भे, तेज लच्छ हिमतेस।
ब्रहम्मलीन हैं चतुर गुरु, चतुर कुँवर सुरतेस॥
मानो के मत मानो, केणो मारो काम।
कीका डांगी रे आँगणे, रमता देखिया राम॥
पर घर पग नी मैलणो, बना मान मनवार। अंजन आवै देखनै, सिंगल रो सतकार॥
ऊँध सूधने छोड़ने, करणो काम पछाण। कर ऊँधो सूँधो घड़ो, तरती भरती दाँण॥
भावै लख भगवंत जश, भावे गाळाँ भाँड। द्वात कलम रो दोष नी, मन व्हे’ ज्यो ही मांड ।।
मेवाड़ की पावन धरती ने कई महान एवं वीर, पराक्रमी योद्धाओं को जन्म दिया है। गोरा एवं बादल उन्ही वीर योद्धाओं में से एक है ,ये धरती हमेशा उनकी कृतज्ञ रहेगी! तो आइए जानते हैं उन दो महान योद्धाओं के बारे में जिनके लिए यह कहा जाता है कि “जिनकाशीशकटजाएफिरभीधड़दुश्मनोंसेलड़तारहेवोराजपूत“ ।
गोरा-बादल
गोरा तत्कालीन चित्तौड़ के सेनापति थे एवं बादल उनके भतीजे थे। दोनो अत्यंत ही वीर एवं पराक्रमी योद्धा थे, उनके साहस, बल एवं पुरुषार्थ से सारे शत्रु डरते थे। गोरा एवं बादल इतिहास के उन गिने चुने लड़ाकों में से एक थे जिनके पास बाहुबल के साथ साथ तीव्र बुद्धि भी थी।
इनकी बुद्धि एवं वीरता ने उस असंभव कार्य को संभव कर दिखाया जिसे कोई और शायद ही कर पाता ।
ये ऐसे योद्धा थे जो दिल्ली जाकर खिलजी की कैद से राणा रतन सिंह को छुड़ा लाये थे । इस युद्ध में जब गोरा ने खिलजी के सेनापति को मारा था तब तक उनका खुद का शीश पहले ही कट चुका था, केवल धड़ शेष रहा था । यह सब कैसे संभव हुआ इसका वर्णन मैं मेवाड़ के राजकविश्रीश्रीनरेन्द्रमिश्रकी अत्यंत खूबसूरत कविता के छोटे से अंश से करता हूँ ।
बात उस समय की है जब खिलजी ने धोके से राणा रतन सिंह को कैद कर लिया था, जब राणा जी दिल्ली में खिलजी की कैद में थे तब रानी पद्मिनी गोरा के पास गयीं; गोरा सिंह रानी पद्मिनी को वचन देते हुए कहते है कि –
जबतकगोराकेकंधेपरदुर्जयशीशरहेगा।
महाकालसेभीराणाकामस्तकनहीकटेगा।।
तुमनिशिन्तरहोमहलोमेंदेखोसमरभवानी।
औरखिलजीदेखेगाकेसरियातलवारोकापानी।।
राणाकेसकुशलआनेतकगोरानहीमरेगा।
एकपहरतकसरतटनेपरभीधड़युद्धकरेगा।।
एकलिंगकीशपथमहाराणावापसआएंगे।
महाप्रलयकेघोरप्रभंजकभीनारोकपाएंगे।।
यह शपथ लेकर महावीर गोरा, राणा जी को वापस चित्तौड़ लेन की योजना बनाने लगे ।
योजना के बन जाने पर वीर गोरा ने आदेश दिया कि –
गोराकाआदेशहुआसजगयेसातसौडोले।
औरबांकुरेबादलसेगोरासेनापतिबोले।।
खबरभेजदोखिलजीपरपद्मिनीस्वंयआतीहै।
अन्यसातसौसतियाभीवोसंगलिएआतीहै।।
जब यह खबर खिलजी तक पहुँची तो वो खुशी के मारे नाचने लगा ,उसको लगा कि वो जीत गया है। लेकिन ऐसा नहीं था ,पालकियों में तो सशस्त्र सैनिक बैठे थे । एवं पालकी ढ़ोने वाले भी कुशल सैनिक थे ।।
औरसातसौसैनिकजोकियमसेभीभीड़सकतेथे।
हरसैनिकसेनापतिथालाखोसेलड़सकतेथे।।
एक–एककरबैठगए, सजगईडोलियांपलमें।
मरमिटनेकीहौड़लगीथीमेवाड़ीदलमें।।
हरडोलीमेंएकवीर , चारउठानेवाले।
पांचोहीशंकरकीतरहसमरभतवाले।।
सैनिकों से भरी पालकियां दिल्ली पहुँच गई ।
जापहुंचीडोलियांएकदिनखिलजीकीसरहदमें।
उसपरदूतभीजापहुँचाखिलजीकेरंगमहलमें।।
बोलाशहंशाहपद्मिनीमल्लिकाबननेआयीहै।
रानीअपनेसाथहुस्नकीकालियाभीलायीहै।।
एकमगरफरियादफ़क़्तउसकीपूरीकरवादो।
राणारतनसिंहसेकेवलएकबारमिलवादो।।
दूत की यह बात सुनकर मुगल उछल पड़ा , उसने तुरंत ही राणा जी से पद्मिनी को मिलवाने का हुक्म दे दिया । जब ये बात गोरा के दूत ने बाहर आकर बताई तब गोरा ने बादल से कहा कि –
बोलेबेटावक़्तआगयाहैकटमरनेका।
मातृभूमिमेवाड़धाराकादूधसफलकरनेका।।
यहलोहारपद्मिनीवेशमेंबंदीगृहजाएगा।
केवलदसडोलियांलिएगोरापीछेढायेगा।।
यह बंधन काटेगा हम राणा को मुक्त करेंगे।
घुड़सवार कुछ उधर आड़ में ही तैयार रहेंगे।।
जैसे ही राणा आएं वो सब आंधी बन जाएँ।
और उन्हें चित्तोड़ दुर्ग पर वो सकुशल पहुंचाएं।।
गोरा की बुद्धि का यह उत्कृष्ट उदाहरण था । दिल्ली में जहाँ खिलजी की पूरी सेना खड़ी है, वहाँ ये चंद मेवाड़ी सिपाही अपनी योजना, बुद्धि एवं साहस से राणा को छुड़ाने में कामयाब हो जाते हैं। राणा के वहाँ से प्रस्थान करने से पूर्व वीर गोरा, अपने भतीजे बादल से कहते है कि –
राणा जाएं जिधर शत्रु को उधर न बढ़ने देना।
और एक यवन को भी उस पथ पावँ ना धरने देना।।
मेरे लाल लाडले बादल आन न जाने पाए।
तिल तिल कट मरना मेवाड़ी मान न जाने पाए।।
यह सुनकर बादल बोले कि –
ऐसा ही होगा काका राजपूती अमर रहेगी।
बादल की मिट्टी में भी गौरव की गंध रहेगी।।
बादल के ये वचन सुनकर गोरा ने उसे अपने हृदय से लगा लिया!!! लेकिन इस पूरी योजना का क्रियान्वय किस प्रकार हुआ इसका वर्णन महा कवि श्री श्री नरेंद्र मिश्र कि निम्न पंक्तिया करती है –
गोरा की चातुरी चली राणा के बंधन काटे।
छांट छांट कर शाही पहरेदारो के सर काटे।।
लिपट गए गोरा से राणा गलती पर पछताए।
सेनापति की नमक हलाली देख नयन भर आये।।
राणा ने पूर्व में जिस सेनापति का तिरस्कार किया था , संकट की घड़ी में आखिर वो ही काम आया ।यह देख कर राणा के नैन भर आए ।। लेकिन अब तक खिलजी के सेनापति को लग गया था कि कुछ गड़बड़ है ।
जब उसने लिया समझ पद्मिनी नहीँ आयी है।
मेवाड़ी सेना खिलजी की मौत साथ लायी है।।
तो उसने पहले से तैयार सैनिक दल को बुलाया और रण छेड़ दिया ।
दृष्टि फिरि गोरा की मानी राणा को समझाया।
रण मतवाले को रोका जबरन चित्तोड़ पठाया।।
उस समय राणा को सुरक्षित अपने देश पहुचना तथा शत्रु देश से निकलना अधिक महत्वपूर्ण था, राणा ने परिस्थिति को समझा और मेवाड़ की ओर प्रस्थान किया ।।
खिलजी ललकारा दुश्मन को भाग न जाने देना।
रत्न सिंह का शीश काट कर ही वीरों दम लेना।।
टूट पड़ों मेवाड़ी शेरों बादल सिंह ललकारा।
हर हर महादेव का गरजा नभ भेदी जयकारा।।
निकल डोलियों से मेवाड़ी बिजली लगी चमकने।
काली का खप्पर भरने तलवारें लगी खटकने।।
राणा के पथ पर शाही सेनापति तनिक बढ़ा था।
पर उस पर तो गोरा हिमगिरि सा अड़ा खड़ा था।।
कहा ज़फर से एक कदम भी आगे बढ़ न सकोगे।
यदि आदेश न माना तो कुत्ते की मौत मरोगे।।
रत्न सिंह तो दूर न उनकी छाया तुम्हें मिलेगी।
दिल्ली की भीषण सेना की होली अभी जलेगी।।
यह कह के महाकाल बन गोरा रण में हुंकारा।
लगा काटने शीश बही समर में रक्त की धारा।।
खिलजी की असंख्य सेना से गोरा घिरे हुए थे।
लेकिन मानो वे रण में मृत्युंजय बने हुए थे।।
बादल की वीरता की हद यहा तक थी कि इसी लड़ाई में उनका पेट फट चुका था । अंतड़िया बाहर आ गई थी तो भी उन्होंने लड़ना बंद नही किया , अपनी पगड़ी पेट पर बांधकर लड़ाई लड़ी ।
रण में दोनों काका-भतीजे और वीर मेवाड़ी सैनिकों के इस रौद्र प्रदर्शन का वर्णन कवि नरेन्द्र मिश्र इस प्रकार करते है-
पुण्य प्रकाशित होता है जैसे अग्रित पापों से।
फूल खिला रहता असंख्य काटों के संतापों से।।
वो मेवाड़ी शेर अकेला लाखों से लड़ता था।
बढ़ा जिस तरफ वीर उधर ही विजय मंत्र पढता था।।
इस भीषण रण से दहली थी दिल्ली की दीवारें।
गोरा से टकरा कर टूटी खिलजी की तलवारें।।
मगर क़यामत देख अंत में छल से काम लिया था।
गोरा की जंघा पर अरि ने छिप कर वार किया था।।
वहीँ गिरे वीर वर गोरा जफ़र सामने आया।
शीश उतार दिया, धोखा देकर मन में हर्षाया।।
शीश कटने के बाद भी उन्होंने एक ही वार में मुग़ल सेनापति को मार गिराया था । इस अद्भुत दृश्य का वर्णन निम्न पंक्तियों में है ।।
उदयपुर अरावली पर्वतमाला की गोद में बसा हुआ है, इस शहर में महलों, झीलों, ऐतिहासिक इमारतों, के आलावा कई प्राचीन गुफाएं भी है, जिनसे अधिक्तर पर्यटक अपरिचित हैं। प्रकृति ने इन गुफाओ का निर्माण प्राचीन काल में अरावली पर्वत माला के साथ ही किया था। हम उदैपुरिये खुशकिस्मत हैं की हमारे शहर पर प्रकृति ने इतने उपहार बरसाए हैं।
वेसे तो इस शहर मैं अनेक छोटी-बड़ी गुफाएं हैं, लेकिन कुछ विशेष गुफाएं है जो की हम उदयपुर वालो के हृदय के बेहद करीब है, इनमें से अधिक्तर गुफाओ में पुराने समय में ही कुछ खास मंदिरों की स्थापना की गई है, आईये जानते है इनके बारे में –
गुप्तेश्वर महादेव गुफा
यह उदयपुर की सबसे प्राचीन एवं प्रमूख गुफा है, आध्यात्म की दृष्टि से भी इसका प्रमूख स्थान है, इसे “उदयपुर का अमरनाथ” भी कहा जाता है। यह प्राचीन गुफा उदयपुर के बिलिया गाँव में ओड़ा पर्वत के शिखर पर स्थित है, जो की तितरडी के पास है| यहाँ भगवान शिव का प्राचीन मंदिर है, उपर पहाड़ पर यह मंदिर बड़े ही विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है, इस गुफा की एक खासियत यह भी हें की इस तक चढ़ाई का रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा हैं जो की आगन्तुको को अति आनंदित करता है!
यह एक गहरी गुफा है जिसके दुसरे छोर पर शिवलिंग हें, इस गुफा में प्रवेश करते समय हमें हजारों चमकादड़े गुफा की दीवारों पर उल्टी लटकती हुई दिख जाती हैं, साथ ही पत्थर के प्राकृतिक सर्प भी दीवारों पर दिख जाते हैं। इस मंदिर से अक्सर अखंड मंत्रोचार की आवाज़े आती रहती हैं कुछ विशेष अवसरों पर पूरा पहाड़ सुन्दरकाण्ड, भजनों व मंत्रो से गुंजायमान रहता हैं। हर माह यहाँ 48 घंटो का अनवरत जाप होता है।
इस गुफा का भ्रमण करने से एक विशिष्ट आध्यात्मिक आनंद का अनुभव होता है तथा यहाँ के सम्पूर्ण मंदिर परिसर में छाई शांति हमें खुद में एक उर्जा का अनुभव करवाती हैं। इस गुफा के अंदर एक और छोटी गुफा है जो की एक रहस्यमयी गुफा है, यह दूसरी गुफा इतनी बड़ी और लम्बी है की इसके दुसरे छोर पर आज तक कोई नहीं पहुच सका हैं, बड़े बुजुर्ग कहते हें की यह दूसरी गुफा काशी तक जाती हैं।
इस मंदिर का एक आश्चर्यजनक प्रभाव यह है की जब हम पहाड़ की चढाई से थककर गुफा में पहुचते हैं तो गुफा में कुछ ही क्षण बिताने पर हम फिर से खुद को उर्जावान महसूस करते हैं। यहाँ शांत वातावरण, शुद्ध एवं ठंडी हवा के झोके हमें चिंता मुक्त कर देते हैं, साथ ही सारी मानसिक थकान भी दूर हो जाती हैं। यहाँ पहाड़ से देखने पर पूरा उदयपुर दिखाई देता हैं, यहाँ एक सुन्दर बगीचा और एक भव्य हनुमान मंदिर भी हैं। इस गुफा में हर पूर्णिमा की रात को भजन संध्या होती हैं जो कि एक संगीतमय रात्रि जागरण होता हैं।
मायरा कि गुफा –
यह गुफा उदयपुर में गोगुंदा के निकट स्थित हैं। इसके आस-पास घना जंगल हैं, क्षेत्रफल कि दृष्टि से यह मेवाड़ कि सबसे बड़ी गुफा हैं। बारिश के मौसम में यहाँ लगातार झरने देखने को मिलते है। इस गुफा कि संरचना भूलभुलैयाँ कि तरह है। इस गुफा में लंबी, टेढी-मेढी, संकरी गलिया हैं। हल्दिघाटि के युद्ध के दौरान यहाँ महाराणा का निवास स्थान था। इसकि जटिल संरचना के कारण ही महाराणा प्रताप ने इसे अपने शस्त्रागार के रूप में चुना था।
इस गुफा में गुसने के तीन रास्ते है, लेकिन इसकि बाहरी संरचना कुछ इस प्रकार है कि बाहर से देखने पर इसका प्रवेश द्वार नज़र नहीं आता। इस गुफा के एक कमरे में महाराणा प्रताप अपने प्रिय घोड़े चेतक को बाँधा करते थे। इस कमरे के पास माता हिंगलाद का मंदिर भी है। यह राजस्थान के ही नहीं अपितु संपूर्ण भारत के सबसे अनछुए स्थानों में से एक है। अगर आप एक साहसिक भ्रमण पर जाना चाहते है तो यह आपके लिए एक सर्वोत्तम स्थान हैं।
झामेश्वर महादेव मंदिर गुफा –
यह गुफा उदयपुर में झामर-कोटडा नामक स्थान पर है। यह एक बड़ी गुफा है, इसके आस-पास पानी व हरियाली हैं। यह पूर्ण रूप से प्रकृति कि गोद में स्थित है। इसके आस-पास का वातावरण बहुत शांत एवं खुशनुमा हैं। लंबे-लंबे पैडो, पक्षियों कि आवाज़ों के साथ यहाँ सैकड़ों बंदर भी देखने को मिलते हैं। इस गुफा के अंत में एक प्राचीन प्राकृतिक शिवलिंग हैं, जिसकी खोज आज से करीब 600 वर्ष पहले हुई थी। यह मंदिर परिसर एक विस्तृत क्षेत्र में फैला है, हर दिन यहाँ कई श्रद्धालुओ व पर्यटको का आवागमन होता हैं।
उभैश्वर महादेव गुफा –
यह गुफा उदयपुर की बहुचर्चित एवं सर्वप्रसिद्ध गुफा हैं। उभैश्वर जी जाने का रास्ता मल्लातलाई चौक के दाई तरफ कुछ दूरी पर स्थित रामपुर चौक से जाता है। यह गुफा एवं मंदिर एक ऊँचे पहाड़ की चोटी पर स्थित हैं, यहाँ तक जाने के रास्ते में एक जोखिम भरी खड़ी व गुमावदार चढाई आती हैं। जो की बड़ी खतरनाक है, कयोंकि उस रास्ते पर एक तरफ पहाड है तो दूसरी तरफ खाई है। साथ ही यहाँ जंगली जानवरों का खतरा भी रहता है।
अतः हमें वहाँ जाते समय रास्ते में सावधानी पूर्वक जाना चाहिए। अगर हम वर्षा ऋतु में वहाँ जाते है तो हमें प्रकृति की विशेष सुंदर छटा निहारने का विशिष्ट सौभाग्य प्राप्त होता हैं। ऊपर पहाड से नीचे देखने पर हमें कोई घर, कोई इमारत दिखाई नहीं देती, चारोतरफ दुर -दुर तक सिर्फ पहाड ही पहाड दिखते हैं। पहाड पर एक सुंदर सरोवर हैं जो “कमल तलाई” नाम से विख्यात है।
यहाँ सुंदर श्वेत कमल खिलते है यहाँ से बहता हुआ पानी आगे जाकर झरने के रुप में गिरता है, जो की और आगे जाकर सिसारमा नदी में मिलता हैं। इसी तलाई से थोड़ा आगे एक बड़ी व लंबी गुफा स्थित हैं। जो की उभैश्वर महादेव मंदिर गुफा के नाम से विख्यात हैं। इस गुफा में शिव पूजन के समय सिर्फ कमल तलाई से प्राप्त पुष्प ही अर्पण किए जाते है।
तिलकेश्वर महादेव गुफा –
यह प्राचीन गुफा उदयपुर में गोगुंदा हाई-वे के किनारे स्थित एक गाँव बैरन में स्थित हैं। यह एक दुर्गम गुफा है, इसमें प्रवेश के लिए हमें एक चेन के सहारे नीचे गुफा में उतरना पडता हैं। जहाँ नीचे एक झरना एवं जलाशय हैं इस गुफा में एक प्राचीन शिव मंदिर है जिसके बारे मे कहा जाता है कि, यहीं पर महाराणा प्रताप ने शक्ति सिंह का राजतिलक किया था। यहाँ पास ही में एक खाई है जिसके किनारे अधिक्तर पर्यटक फोटो खिचवाते हैं। यहाँ आसपास कई मनोरम दृश्य हैं ।
पातालेश्वर गुफा-
यह गुफा उदयपुर में टाइगर हील से लगभग तीन किलोमीटर दूर, बडगाँव में नहर के पास स्थित हैं। इस गुफा की विशेषता यह है की ना तो यह गुफा पहाड़ पर स्थित हैं ना ही इसके आस-पास कोई पहाड़ हैं। यह गुफा जमीन में पाताल की दिशा में बनी है, इसीलिए इसका नाम पातालेश्वर रखा गया। इस अंधेरी गुफा में भी एक प्राकृतिक शिवलिंग है जिसकी सुरक्षा एवं देखभाल की जिम्मेदारी एक अघोरी ने अपने कंधो पर ले रखि हैं। इस गुफा के अंदर भी एक खुफिया सुरंग है जिसका दुसरा छोर आज भी एक रहस्य हैं।
जगदीश मंदिर उदयपुर का बड़ा ही सुन्दर,प्राचीन एवं विख्यात मंदिर है। आद्यात्मिक्ता के क्षेत्र में इसका अपना एक विशेष स्थान हैं,साथ ही मेवाड़ के इतिहास में भी इसका योगदान रहा है। यह मंदिर उदयपुर में रॉयल पैलेस के समीप ही स्थित है, यह मंदिर भारतीय-आर्य स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहण है, चूकिं यह मंदिर उदयपुर की शान है इसलिए उदयपुर के बारे में संक्षिप्त जानकारी-
उदयपुर झीलों, पहाड़ों, महलों, ऐतिहासिक इमारतों एवं दर्शनीय स्थलों से सुशोभित एक सुन्दर शहर है । महाराणा उदयसिंह ने सन् 1553 में उदयपुर को अपनी राजधानी बनाया , जो की 1818 तक मेवाड़ की राजधानी रही।
मंदिर निर्माण –
इसका निर्माण महाराणा जगत सिंह ने सन् 1651 में करवाया था , उस समय उदयपुर मेवाड़ की राजधानी था। यह मंदिर लगभग 400 वर्ष पुराना है यह उदयपुर का सबसे बड़ा मंदिर है । मंदिर में प्रतिष्ठापित चार हाथ वाली विष्णु की छवि काले पत्थर से बनी है।
मंदिर भ्रमण –
यह मंदिर जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु को समर्पित है। यह पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है । इसे जगन्नाथ मंदिर के नाम से भी जाना जाता है । इसकी ऊंचाई 125 फीट है । यह मंदिर 50 कलात्मक खंभों पर टिका है । मंदिर में प्रवेश से पहले मैंने पाया कि यह मंदिर सिटी पेलेस से कुछ ही दुरी पर है यहाँ से सिटी पेलेस का बारा पोल सीधा देखा जा सकता है,एवं गणगौर घाट भी यहाँ से नज़दीक ही है । मंदिर में भगवान जगन्नाथ का श्रृंगार बेहद खूबसूरत था । शंख, घधा ,पद्म व चक्र धारी श्री जगन्नाथ जी के दर्शन कर मैं धन्य हुआ।
दर्शन कर मुझे सकारात्मक ऊर्जा की अनुभूति हुई। मंदिर की सभी व्यवस्थाएं मुझे बहुत अच्छी लगी मंदिर में मुख्य मूर्ति के अलावा गणेश जी, शिव जी ,माता पार्वती एवं सूर्य देव की मूर्ति भी है । मंदिर के द्वारपाल के रूप में सीढ़ियों के पास दो हाथियों की मूर्तियां तैनाद है। मंदिर में भ्रमण के दौरान मैं इसकी खूबसूरती व स्थापत्य कला पर मोहित हो गया । मैंने देखा की मंदिर के स्तम्भों पर जटिल नक्काशियां की हुई हैं, मंदिर की उत्कृष्ट शिल्पकारी व कलात्मकता सचमुच दर्शनीय है । यहाँ खंभों पर विभिन्न छोटी-छोटी शिल्प कलाकृतियाँ है जिन्हें देखकर लगता है मानो ये कोई कहानी कह रही हो । मंदिर के अंदर लगे शिलालेख हमें इतिहास के बारे में बहुत कुछ बताते हैं।
पुजारी जी से विशेष बातचीत –
मंदिर में भ्रमण के दौरान पुजारी जी से भेंट हुई एवं उनसे विशेष बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उन्होंने बताया कि भगवान जगन्नाथ की यह मूर्ति डूंगरपुर के पास कुनबा गाँव में एक पेड़ के नीचे खुदाई से प्राप्त हुई थी । तब से लेकर मंदिर की निर्माण कार्य के पूरे होने तक भगवान जगन्नाथ की मूर्ति को एक पत्थर पर रखकर उसकी पूजा-आराधना की गई थी। वो पत्थर आज भी मंदिर में मौजूद है। पुजारी जी ने कहा कि इसके सिर्फ स्पर्श मात्र से शरीर की सारी पीड़ाएँ एवं दर्द दूर हो जाते हैं।
पंडित जी से आगे पूछने पर उन्होंने बताया कि इस मंदिर में दिन में पाँच बार आरती का विधान है। जिसका आरंभ सुबह की मंगल आरती से होता है । मेरी जिज्ञासाओं को देखकर पुजारी जी ने आगे विस्तार से मंदिर के बारे में बताया कि भगवन जगन्नाथ की रथ यात्रा बेहद महत्वपूर्ण व दर्शनीय व रोमांचकारी होती है ।जिसमे भगवन पालकी में बिराजकर भक्तों के कंधों पर सवार हो कर पूरे शहर का भ्रमण करते हैं। और उन्होंने बताया कि होली के मौके पर यहाँ फागोत्सव मनाया जाता है, इसके अलावा सावन के पूरे महीने भगवन जगन्नाथ झूले पर सवार रहते हैं।
मंदिर में दर्शन का समय-
मंदिर में दर्शन का समय प्रातः काल 4:15 से दोपहर 1 बजे तक, एवं सांयकाल 5:15 से लेकर रात्री 8 बजे तक का है