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‘देबारी की ऐतिहासिक गुफ़ा’ जहां मीटर गेज़ ट्रेन चला करती थी, अब वहां ‘टॉय ट्रेन’ चलेगी..

देबारी, उदयपुर स्थित राजस्थान की सबसे पहली रेलवे टनल और कभी अपने टाइम पर सबसे लम्बी टनल रही ‘देबारी की गुफ़ा’ में अब जल्द ही ‘टॉय ट्रेन’ चलेगी। इंडियन रेलवेज़ ने उस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिखा दी है जिसमें इस संभावना पर विचार करने को कहा गया था। साल 2016, में इस प्रोजेक्ट को रेलवे मिनिस्ट्री भेजा गया था। जिसको ToI ने भी कवर किया था। अब जब इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिल गई है तो उदयपुर के लोगो को इंतज़ार है तो बस इस बात का कि इस प्रोजेक्ट पर जल्द से जल्द काम शुरू होवे।

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picture courtesy: RMWEB

देबारी टनल का इतिहास:

देबारी टनल का ब्रॉडगेज़ परिवर्तन के बाद से पिछले 12 साल में कोई इस्तेमाल नहीं लिया गया। लेकिन अगर हम इन 12 सालों को छोड़ दे तो इस देबारी टनल का इतिहास बड़ा रोचक रहा है। आपको बता दें देबारी टनल करीब 119 बरस पुरानी है। इसे सन् 1889 में बनाया गया था। सन् 1884 में महाराणा सज्जन सिंह ने पहली बार उदयपुर को रेल नेटवर्क से जोड़ने का प्रयास किया। सन् 1885 तक सभी महत्वपूर्ण सर्वे और कागज़ी करवाई भी कम्पलीट होने को आ गई थी। लेकिन महाराणा के आकस्मिक देहांत की वजह से यह प्रोजेक्ट अनिश्चितकालीन अवधि के लिए रुक गया। हालाँकि इसके 10 साल बाद महाराणा फ़तेह सिंह जी ने इस प्रोजेक्ट को फिर से शुरू करवाया और इस तरह उदयपुर पहली बार सन् 1895 में रेल नेटवर्क से जुड़ा लेकिन सिर्फ़ देबारी तक ही। देबारी-चित्तौडगढ़ रेल लाइन 60 मील लम्बी थी और इसी पर थी ऐतेहासिक देबारी टनल। लेकिन रेल लाइन को उदयपुर तक आने में 4 साल लग गए। क्योंकि अगस्त,1895 से लेकर दिसम्बर, 1899 तक, उदयपुर-देबारी के इस 6.5 मील लम्बे ट्रैक को बॉम्बे-बरोड़ा और सेंट्रल लाइन ऑपरेट करते थे। 25 अगस्त, 1899 को इस छोटे से टुकड़े को देबारी-चित्तौडगढ़ रेल लाइन से जोड़ लिया गया और इस तरह उदयपुर ने पहली बार रेल लाइन को देखा। 

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picture courtesy: RMWEB

सन् 2005 के बाद उदयपुर-चित्तौड़गढ़ रेल-लाइन ब्रॉडगेज़ में तब्दील हो गई और देबारी-टनल का उपयोग भी उसी के साथ थम गया। देबारी टनल का इस तरह वीरान पड़े रहना कई लोगो को तकलीफ़ देता रहा है। बीच में कई बार इसको टूरिस्ट अट्रैक्शन बनाने की मांग भी उठती रही थी। इसका इस तरह यूँ वीरान पड़े रहना इसलिए भी अखरता था क्योंकि देबारी टनल उस समय की बनी उन जटिल कलाकृतियों में से थी जिसे तब के कारीगरों ने बिना किसी मशीन की सहायता से, सिर्फ़ हाथ-हथौड़ो की मदद से बनाया था। यह सच में एक अजूबा है। 

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picture courtesy: RMWEB

देबारी टनल और टॉय ट्रेन: toy train

शुक्रवार को जब इस प्रपोजल को एक्सेप्ट किया जा रहा था तब राजस्थान के गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया, जोनल मैनेजर पुनीत चावला भी मौजूद थे। पुनीत चावला ने कहा है कि यह टॉय ट्रेन UIT या नगर निगम, उदयपुर की देखरेख में चलेगी। इस प्रोजेक्ट का एस्टीमेट बजट 5 करोड़ रूपए का है।

जल्दी ही टॉय ट्रेन के लिए ट्रैक लगा दिया जाएगा साथ ही साथ दोनों तरफ रेलवे स्टेशन भी बनाए जायेंगे। सिग्नल्स भी लगे जाएँगे ताकि बच्चे इन सबको देखकर कुछ सीखें। 🙂

 

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126 साल पुराना ये चर्च कैसे अस्तित्व में आया? इसके पीछे की कहानी…

क्रिसमस नज़दीक है। इस मौक़े पर आप लोगों के सामने हम लेकर आए है उदयपुर के सबसे पुराने चर्च के अस्तित्व में आने की पूरी कहानी।

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आपको सीधा ले चलते है 126 साल पहले। ब्रिटिश इंडिया के समय उदयपुर रीज़न की मिशनरी डॉ शेफ़र्ड संभाल रहे थे। इनके शुरूआती 12 साल के दौरान क्रिस्चियन कम्युनिटी शहर में नई-नई रहना शुरू ही हुई थी। तब इनकी संख्या मुश्किल से 50 के करीब होगी। लेकिन इन लोगो के लिए कोई प्रार्थना स्थल नहीं होने से डॉ शेफ़र्ड ने एक चर्च बनवाने की इच्छा जताई। तब महाराणा फ़तेह सिंह जी ने क्रिस्चियन कम्युनिटी को ये ज़मीन 4 अगस्त, 1889 में तोहफ़े के तौर पर दी।

ये सब तब हो रहा जब भारत में ब्रिटिश रूल था। डॉ शेफ़र्ड के शुरूआती 12 सालों के दौरान क्रिस्चियन कम्युनिटी उदयपुर में बसना शुरू हो गई थी और करीब 50 के आसपास लोग रहने आ गए थे। मेवाड़ में मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारा तो पहले ही थे, डॉ शेफर्ड चाहते थे कि  एक चर्च भी बने जो न केवल प्रार्थना के लिए बल्कि सर्वधर्म सद्भाव को ध्यान में रखते हुए मेवाड़ का नाम करे। तब के स्टेट इंजिनियर थॉमस कैम्पबेल ने भी डॉ शेफ़र्ड की इस बात में अपनी दिलचस्पी दिखाई। आपको बता दे कि थॉमस कैम्पबेल वही है जिन्होंने फतेहसागर बाँध, विक्टोरिया मेमोरियल और चित्तौडगढ़ लाइन का निर्माण करवाया।

इस तरह ये चर्च 5 जुलाई, 1891 में पूरा बनकर तैयार हुआ। डॉ शेफ़र्ड के नाम पर इसका नाम शेफ़र्ड मेमोरियल चर्च पड़ा। ये बहुत विशाल तरीके से नहीं बनाया हुआ है फिर भी अपने आर्कीटेक्चर की वजह से एक अलग स्थान रखता है। इसका आर्कीटेक्चर आपको ब्रिटिश-काल की याद दिलाएगा।

इस चर्च में पहली प्रार्थना जॉन ट्रेल के द्वारा की गई थी जिसमें मेवाड़ के आम लोगों के साथ-साथ यहाँ के प्रबुद्ध लोगों ने भी हिस्सा लिया था, जिनमें महाराणा फ़तेह सिंह जी भी शामिल थे।

तब से लेकर आजतक ये चर्च उदयपुर में क्रिस्चियन कम्युनिटी के प्रार्थना का केंद्र बना हुआ है। आज की तारीख़ में हर रविवार करीब 1000 लोग प्रभु यीशु के सामने प्रार्थना करने आते है।

अभी यहाँ के पादरी रैमसों विक्टर है और इसके एडमिनिस्ट्रेशन का जिम्मा चर्च ऑफ़ नार्थ इंडिया(CNI) के पास है।

पिछले साल ही इसने अपने 125 वर्ष पुरे किए थे। 126 साल से ज्यादा पुराना होने के बावजूद आज भी पुरे राजस्थान में अपनी बनावट के लिए जाना जाता है। इसका आर्किटेक्चर और पत्थरों का चुनाव ब्रिटिश-काल के दिनों की याद ताज़ा करता है। इस चर्च को बनाने का मक़सद न सिर्फ किसी एक कम्युनिटी के लिए प्रार्थना स्थल बनाना था बल्कि मेवाड़ में धर्मो के बीच सामंजस्य स्थापित करना भी था। आज भी राजस्थान में कुल जनसँख्या के सिर्फ 1% लोग ही क्रिश्चियन समुदाय से है। लेकिन आज से 126 साल पहले  सिर्फ 50 लोगो की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए चर्च का निर्माण करवाना एक मिसाल कायम करने जैसा था।

 

Content Courtesy: Mr. Bhupendra Singh Auwa