Udaipur is known as the Venice of the east. It is also called the city of lakes and known as the Kashmir of Rajasthan since it is the most beautiful city of Rajasthan.
The city of Dawn, Udaipur is a lovely land around the azure water lake, hemmed in by the lush hills of the Aravallis. A vision in white drenched in romance and beauty, Udaipur is a fascinating blend of sights, sound and experiences and inspiration for the imagination of poets, painters and writers.
The city of lakes or Udaipur was established by Maharana Udai Singhji in 1559 A.D., after he was advised by a hermit to do so.
Udaipur is truly famous for its beautiful lakes and watercourses. Lakes make a perfect backdrop to the romantic setting of Udaipur. Water is a basic necessity of life and lakes full of water give a sense of relief. The Picturesque lakes offering fabulous view of the mountains make Udaipur, a dream destination of every tourist. Since ages, these lakes have been providing water to the city dwellers.
In the evening, boat-ride in these watercourses leaves a soothing impact on the tangled nerves of the people. Lake Pichola, Udai Sagar Lake, Fateh Sagar Lake, Rajsamand Lake and Jaisamand Lake are the five prominent lakes of Udaipur. Apart from these lakes, Doodh Talai, Badi Ka Talab and Kumharia Talab are other lakes that form the part of watercourses in Udaipur.
Udaipur is also famous for its food stalls, cafes and restaurants which makes it more attractive and beautiful city. To understand this there is one aspect which aids in concerning the perspective of how the new food stalls and cafe is entertained in the city.
मेवाड़ वीरों की भूमि रही है। यहाँ पर बहुत सारे वीरों ने जन्म लिया है। इसका सबसे सर्वोत्तम उदाहरण है “महाराणा प्रताप”। इनके साथ में कुछ और भी व्यक्तित्व के धनी लोग थे, जिन्होंने मेवाड़ की वीर भूमि पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इन्ही में से कुछ पांच रत्नों की बात आज हम यहाँ कर रहे है।
1. पन्नाधाय
जनवरी 1535 की बात है। गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने चित्तौड़ पहुंचकर दुर्ग को घेर लिया था। हमले की खबर सुनकर चित्तौड़ की राजमाता कर्मवती ने अपने सभी राजपूत सामंतो को सन्देश भिजवा दिया कि-यह तुम्हारी मातृभूमि है, इसे मैं तुम्हे सौंपती हूँ, चाहो तो इसे रखो, चाहो तो दुश्मन को सौंप दो।
इस सन्देश से पूरे मेवाड़ में सनसनी फैल गई और सभी राजपूत सामंत मेवाड़ की रक्षा करने चित्तौड़ दुर्ग में जमा हो गए। रावत बाघ सिंह किले की रक्षात्मक मोर्चेबंदी करते हुए स्वयं प्रथम द्वार पाडन पोल पर युद्ध के लिए तैनात हुए। मार्च 1535 में बहादुर शाह के पुर्तगाली तोपचियों ने अंधाधुन गोले दाग कर किले की दीवारों को काफी नुकसान पहुंचाया तथा किले के नीचे सुरंग बनाकर उसमें विस्फोट कर किले की दीवारें उड़ा दी।
राजपूत सैनिक अपने शौर्यपूर्ण युद्ध के बावजूद तोपखाने के आगे टिक नहीं पाए और ऐसी स्थिति में जौहर और शाका का निर्णय लिया गया। राजमाता कर्मवती के नेतृत्व में 13000 वीरांगनाओं ने विजय स्तम्भ के सामने लकड़ी के अभाव में बारूद के ढेर पर बैठ कर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया। जौहर व्रत संपन्न होने के बाद उसकी प्रज्वलित लपटों की छाया में राजपूतों ने केसरिया वस्त्र धारण कर शाका किया। वहीँ किले का द्वार खोल शत्रु सेना पर टूट पड़े। बहादुर शाह दिल्ली का मुग़ल बादशाह था। वो चित्तौड़ किले में पहुंचा और उसने भयंकर लूटपाट मचाई। चित्तौड़ विजय के बाद बहादुर शाह, हुमायूं से लड़ने के लिए रवाना हुए और मंदसौर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया। जिसकी खबर मिलते ही 7000 राजपूत सैनिकों ने आक्रमण कर पुनः दुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया। विक्रमादित्य, जो रानी कर्मवती के पुत्र थे, पुनः उन्हें उनकी गद्दी पर बैठा दिया गया।
चित्तौड़ लौटते समय विक्रमादित्य ने देखा कि नगर नष्ट हो चुका है, अब चित्तौड़ के असली उत्तराधिकारी विक्रमादित्य थे। उनका एक छोटा भाई था, जो उस समय मात्र छः वर्ष का था। परन्तु उस समय एक दासी पुत्र बनबीर ने रीजेंट के अधिकार हथिया लिए थे। उसकी नियत और लक्ष्य चित्तौड़ की राजगद्दी हासिल करना था। उसी के चलते उसने विक्रमादित्य की हत्या कर दी थी। अब उसका एकमात्र लक्ष्य चित्तौड़ के वंशानुगत बालक उत्तराधिकारी उदय सिंह को मारना था।
बालक उदय की धाय माँ पन्नाधाय ने उसकी माँ राजमाता कर्मवती के जौहर द्वारा स्वर्गारोहण पर पालन पोषण का दायित्व संभाला था। वे स्वामी भक्तित्व अनुकरणीय लगन से उसकी सुरक्षा कर रही थी। तभी महल के एक तरफ से तेज चीखे सुनाई देने पर पन्नाधाय ने यह अनुमान लगा लिया था की शत्रु राजकुमार बालक उदय सिंह की तलाश में आ ही गया। उसने तुरंत बालक उदय सिंह को टोकरी में सुलाकर पत्तियों से ढक कर एक सेवक को उसे सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी सौंप दी और उस खाट पर उदय सिंह की जगह अपने बालक को सुला दिया। सत्ता पाने के नशे में चूर बनबीर ने वहां पहुँचते ही पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर तलवार से वही मार डाला।
पन्ना कई समय तक दुष्ट बनबीर के चंगुल में न आने के डर से इधर-उधर भटकती रही। फिर उन्हें कुम्भलगढ़ में शरण मिली। उदय सिंह किलेदार का भांजा बनकर बड़े हुए, तेरह वर्ष की उम्र में उनको मेवाड़ी उमरावों ने अपना राजा स्वीकार कर लिया और राज्याभिषेक कर दिया। इस तरह उदय सिंह मेवाड़ के वैधानिक महाराणा बन गए। स्वामिभक्ति एवं निःस्वार्थ भाव से पन्नाधाय ने अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा के लिए अपने पुत्र का बलिदान दे दिया। एक माँ का इस प्रकार से अपने स्वामी की रक्षा के लिए पुत्र का बलिदान का उदाहरण इतिहास में कहीं भी नहीं मिलेगा।
2. भामाशाह
भामाशाह महाराणा प्रताप के बचपन के ख़ास मित्र है। उनका जन्म ओसवाल जैन परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम भारमल था, जो रणथम्भौर के किलेदार थे। उन्हें बाद में महाराणा उदय सिंह के नेतृत्व में प्रधानमंत्री बना दिया था। भामाशाह ने अपने छोटे भाई ताराचंद के साथ मेवाड़ की बहुत सी लड़ाइयों में भाग लिया था। कहा जाता है कि जब महाराणा प्रताप अपने परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे, तब भामाशाह ने अपनी सारी जमा पूंजी महाराणा को समर्पित कर दी थी। जिस समय मेवाड़ एवं महाराणा प्रताप को धन की अत्यधिक आवश्यकता थी, ऐसे कठिन समय में ताराचंद एवं भामाशाह ने महाराणा प्रताप को लाखों रुपए एवं सोने के सिक्के भेंट किए। इस धन से महाराणा ने एक सेना संगठित की तथा बाद में मुग़लों की सेना के शिविरों पर हमला किया। 11 जनवरी 1600 को इनकी मृत्यु किसी बीमारी के कारण हो गई थी। भामाशाह ने अपना पूरा जीवन लालच और स्वार्थ से ऊपर उठकर मेवाड़ पर बलिदान कर दिया।
3. राणा पूंजा
राणा पूंजा भील जनजाति के थे। वे महाराणा प्रताप के विश्वसनीय सैनिक थे। पूंजा ने महाराणा प्रताप हल्दी घाटी युद्ध में मुग़ल सेना से लड़ाई लड़ी थी। पूंजा एवं उनके साथी, भील जनजाति ने महाराणा प्रताप युद्ध में अपना एक बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया था। आज भी इतिहास के पन्नो में एक तरफ महाराणा प्रताप तो दूसरी तरफ राणा पूंजा का नाम भी आता है। स्वयं महाराणा प्रताप ने पूंजा के नाम के आगे “राणा” की उपाधि लगाईं थी। संपूर्ण मेवाड़ पूंजा के त्याग के कारण भील जनजाति का अत्यधिक ऋणी है। मेवाड़ के इतिहास में इनके त्याग के फलस्वरूप जब भी कोई नया महाराणा राजगद्दी का उत्तराधिकारी बनता था तो एक भील अपने खून से नए महाराणा का राजतिलक किया करता था। उसके बाद ही नए महाराणा को मान्यता मिलती थी। इसके साथ ही राणा पूंजा एवं भील जाति के लोगों के त्याग एवं बलिदान की भावना का सम्मान करते हुए, मेवाड़ के राजवंश ने अपने राजचिन्हों अथवा मेवाड़ के झंडो में एक राजपूत के साथ-साथ एक भील को भी शस्त्रों के साथ खड़ा दिखाया है, जो भील समुदाय के लिए अत्यंत सम्मान की बात थी। भील समुदाय के योगदान मेवाड़ के लिए अविस्मरणीय रहेंगे।
4. झाला मन्ना
झाला मन्ना बड़ी सादड़ी से थे। झाला मन्ना हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से मुगलों के विरुद्ध लड़े थे। झाला ने हल्दीघाटी युद्ध में अपना पूरा बहादुरी के साथ त्याग समर्पण बलिदान दिया था। जब राणा पूंजा हल्दी घाटी युद्ध में घायल हो गए थे तथा जब उनको युद्ध क्षेत्र से बाहर ले जाया गया था, तब झाला मन्ना ने स्वयं को महाराणा प्रताप के भाँती मेवाड़ के राजमुकुट एवं महाराणा प्रताप के प्रतीक चिन्हों से सजाया एवं निरंतर लड़ाई जारी रखी। झाला मन्ना की चाल कामयाब रही और शत्रुओं ने झाला मन्ना को ही महाराणा प्रताप समझ लिया और उन पर आक्रमण करने के लिए टूट पड़े। इसी भीषण युद्ध को करते-करते झाला मन्ना वीरगति को प्राप्त हुए। वीरगति को प्राप्त होने से पहले ही झाला मन्ना मुगल सेना को पूर्व की ओर पीछे धकेल चुके थे। इनके इसी बलिदान की वजह से महाराणा प्रताप मेवाड़ को मुक्त करवा पाए।
5. हकीम खां सूर
इनको हकीम सोज खां अफगान के नाम से भी जाना जाता है। ये एक अफगानी मुस्लिम पठान थे, जो महाराणा प्रताप के प्रमुख सैनिक थे। वे महाराणा प्रताप के तोपखाने के प्रमुख हुआ करते थे। हकीम खां हल्दी घाटी के युद्ध में अकबर की सेना के खिलाफ प्रताप की सेना के सेनापति के रूप में रहे। इन्होने महाराणा प्रताप युद्ध में वीरता से युद्ध किया और युद्ध क्षेत्र में ही इनकी मृत्यु हो गई। हकीम खां, सूर वंश शेरशाह सूरी के वंशज थे। ये एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जो मुग़लो के खिलाफ मुसलमान होते हुए भी महाराणा प्रताप की तरफ से लड़े। हकीम खां वीरता, बहादुरी, त्याग, ईमानदारी के अतुलनीय उदाहरण है।
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हम सभी के जीवन में गुरु का बहुत विशेष महत्व होता है। हमारी भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान से भी ऊँचा दर्जा दिया गया है। एक गुरु का जीवन में होना बहुत मायने रखता है क्योंकि एक गुरु ही है जो शिष्यों को अंधकार से निकालकर प्रकाश की और ले जाता है, सही गलत का अर्थ समझाता है, जीवन में सही दिशा की और अग्रसर करता है। गुरु के ज्ञान और संस्कार की वजह से ही एक शिष्य का जीवन सफल होता है और वह ज्ञानी बनता है। गुरु किसी भी मंदबुद्धि शिष्य को ज्ञानी बना देते है।
गुरु की महत्वता को देखते हुए ही पुराने ग्रंथों व किताबों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उपाधि दी गई है।
हर व्यक्ति को जीवन में ज्ञान की बहुत आवश्यकता होती है तभी वह अपने जीवन में उन्नति के मार्ग पर चल पाता है। एक विद्यार्थी तभी चमक सकता है, जब उसे सही शिक्षक का प्रकाश मिलता है। एक व्यक्ति सभ्य और संस्कारवान सिर्फ उसके गुरु की वजह से ही बनता है। एक सभ्य और शिक्षित समाज के निर्माण में यदि सर्वाधिक योगदान किसी का होता है तो वे हमारे गुरु का होता है।
महाभारत के रचयिता एवं आदि गुरु वेद व्यास जी की जयंती को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता हैं। आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का यह त्यौहार मनाया जाता है। प्राचीनकाल से ही गुरु और शिष्य की जोड़ी चली आ रही है। इतिहास में भी हमें कई सारे गुरुओं का उल्लेख मिलता है – महाभारत काव्य में शिष्य अर्जुन, एकलव्य, कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य का उल्लेख है। कर्ण के गुरु परशुराम जी थे। चन्द्रगुप्त के गुरु चाणक्य थे। ऐसे ही हमें कई सारे गुरु शिष्य की जोड़ी की कई सारी कहानियों के बखान मिल जाएंगे।
क्या आप जानते है ऐसी ही गुरु शिष्य की एक अनोखी जोड़ी जो हमारे मेवाड़ के इतिहास जगत में भी है। विश्व प्रसिद्ध “महर्षि हरित राशि” और “बप्पा रावल” की जोड़ी । हरित राशि, बप्पा रावल के गुरु थे। हरित राशि एकलिंगनाथ जी के बहुत बड़े भक्त थे और बप्पा रावल जिन्हे “कालभोज” के नाम से भी जाना जाता है।
बप्पा रावल वल्लभीपुर से आए थे, जो अब भारत के गुजरात राज्य में है। वह उदयपुर से 20 किलोमीटर दूर कैलाशपुरी गांव के पास महर्षि हरित राशि के आश्रम के छात्रों में से एक थे। अपनी मृत्यु से पहले, हरित राशी ने अपने सभी शिष्यों में से बप्पा रावल को “दीवान” के रूप में चुना और श्री एकलिंगजी नाथ की पूजा और प्रशासन के अधिकार की जिम्मेदारी सौंप दी। उदयपुर के उत्तर में कैलाशपुरी में स्थित इस मन्दिर का निर्माण 734 ई. में बप्पा रावल ने ही करवाया। इसके निकट हरीत ऋषि का आश्रम भी है।
बप्पा रावल पूर्ण रूप से से अपने गुरु के प्रति समर्पित थे। हरित राशि ने अपने पसंदीदा छात्र को मेवाड़ राज्य प्रदान किया और अपने राज्य के शासन के दिशा-निर्देश और मुख्य नियम तैयार करके दिए। इसके बाद बप्पा रावल 8वीं शताब्दी की शुरुआत में मेवाड़ के संस्थापक बने।
आज “महर्षि हरित राशि पुरस्कार” एक राज्य पुरस्कार है। वैदिक संस्कृति, प्राचीन ‘शास्त्र’ और ‘कर्मकांड’ के माध्यम से समाज को जगाने में स्थायी मूल्य के कार्य करने वाले विद्वानों को सम्मानित करने के लिए इस पुरस्कार की स्थापना की गई है।
हमारी यहां गुरु सम्मान की परम्परा हजारो सालों से चलती हुई आई है औरआज तक जीवित हैं। हमें हमारे जीवन में गुरु की महिमा को समझना चाहिए उनका आदर सत्कार करना चाहिए। एक गुरु ही है जो हमारे जीवन को बदल सकता है सत्य की राह दिखा सकता है। गुरु पूर्णिमा का पर्व एक इसी तरह का अवसर हैं जब हम गुरु दक्षिण देकर अपने प्रिय गुरु के प्रति श्रद्धा भाव प्रकट कर सके।
“Mhaaro Rang Rangeelo Rajasthan” is truly blessed with vivacious cultures, royal heritages, holy traditions, communities living in harmony and enchanting nature. It is also, literally and in every sense, the “Land of Kings.” This time we are here to tell you the difference between two major regions of Rajasthan that are the Mewar Province and the Marwar Province. Mewar and Marwar are pretty much similar on the basic level, but when scrutinized, they have some contrasting features. Let’s find out more about the
‘two regions with a sole soul.’
“Territories of the “Land of Kings”
Mewar, the south-central region of the state of Rajasthan includes:
➤ Bhilwara,
➤ Rajsamand,
➤ Chittorgarh,
➤ Udaipur,
➤Tehsil Pirawa of Jhalawar District,
➤Neemuch and Mandsaur districts of Madhya Pradesh
➤and some parts of Gujarat.
Marwar region includes:
➤ Barmer
➤ Sirohi
➤Jalore
➤Nagaur
➤ Jodhpur
➤Pali
➤and parts of Sikar.
“What’s in a name they say, but then everything has a name”
The word “Mewar” is loosely extracted from the word ‘Medapata’ which is the ancient name of the region. ‘Meda’ refers to the Meda Tribe who used to reside in the region (now called Badnor) and ‘pata’ refers to the administrative unit.
The word “Marwar” comes from the word ‘Maru,’ a Sanskrit word, which means desert and from a Rajasthani slang‘wad’ which means a particular area. Marwar is basically known as ‘The Region of Desert’.
“The richest histories in the country”
History of both Mewar and Marwar is quite rich and somewhat similar as both were founded by Rajputs. On one hand, where Mewar has a history of wars, defeats, successions, and establishments, Marwar’s history is complex with no direct successions and Mughals and Rajputs ruling now and then.
After the establishment of both Mewar and Marwar, the timeline of monarchy witnessed a number of kings and Britishers as well.
Here we have a timeline of reigns of the famous monarchs of Mewar:
Kings
Known for
Reign- period
Bappa Rawal
founder of Mewar
734-753
Maharana Kumbha
➤his reign is considered as the “golden period of Mewar”
➤Was the only Hindu king of his time in India
1433-1468
Maharana Udai Singh
➤Murdered his own father, Rana Kumbha and turned out to be an abominated king.
➤Was struck by lightning just before his daughter’s marriage and died on the spot.
1468-1473
Maharana Udai Singh II
➤Founder of Udaipur, the city of lakes
1537-1572
Maharana Pratap
➤Only ruler to not give up in front of Mughals.
➤Fought the famous “Battle of Haldighati” against Akbar, the then Mughal ruler
1572-1597
Maharana Jagat Singh
➤57th ruler of Mewar
➤The famous Jagmandir Palace and Jagdish temple in Udaipur was built during his reign.
1628-1652
Maharana Swaroop Singh
➤Britishers started settling in India during his reign and he supported Britishers in every way possible.
1842-1861
Maharana Sajjan Singh
➤He did everything in his power for Udaipur and its environment
➤Udaipur became the second city in the country to have a municipality, after Bombay, under his rule
➤He built a beautiful monsoon palace in Udaipur, that is Sajjangarh Fort, to complement the beauty of Udaipur in the backdrop.
1874-1884
Maharana Bhupal Singh
➤Founded many colleges and schools, especially for girls and also worked towards the betterment of lakes and environment of Udaipur
1930-1955
Maharana Bhagwat Singh
➤Last ruler of Mewar
➤Sold off most of his properties like Fateh Prakash, Jagmandir and other architectures on the banks of Lake Pichola so that all of them are well maintained
➤Even though the financial situation of the Royalties was depleting, he worked towards the betterment of Mewar.
1955-1984
Marwar was established by the Gurjara Pratihara, a Rajput clan. They first settled their kingdom in the 6th century in Marwar with the capital at Mandore which is 9 km from Jodhpur.
Here we have the timeline mentioning famous rulers of Marwar:
Kings
Known For
Reign Period
Rao Sheoji
➤first ruler to rule over Marwar from Rathore dynasty
1226-1273
Rao Ranmal
➤Was helped by Sisodias of Mewar to rule over Marwar
➤Was assassinated on the orders of Rana Kumbha of Mewar.
1427-1438
Rao Jodha
➤Founder of Jodhpur
1438-1489
Maharaja Jaswant Singh
➤Fought the Battle of Dharmatpur against Aurangzeb
1638-1678
Maharaja Ajit Singh
➤Became ruler of Marwar after 25 years of war against Aurangzeb.
1679-1724
Maharaja Bakhat Singh
➤Fought the Battle of Gangwana against Mughals and Kachhawa
1751-1752
Maharaja Sir Hanwant Singh
➤Last ruler of Marwar before independence
9 June 1947-15 August 1947
During the famine of 1899-1900, Marwar suffered terribly and seeing the terrible fate Marwar underwent, Maharaja of Jodhpur decided to join the dominion of Pakistan but Lord Mountbatten warned him that majority of his subjects were Hindus and joining Pakistani dominion may create problems for him and the kingdom. In 1950, Rajputana ultimately became the state of Rajasthan.
Proud communities of Mewar and Marwar
Rajputs are a well-known warrior clan of Rajasthan. Their trenchant identity is usually described as “proud Rajput tribes of Rajputana”. Their lineage is traced from the Fire family, the Sun Family and the Moon Family.
The Sun Family includes:
➤ Sisodias of Chittaur and Udaipur
➤Rathores of Jodhpur and Bikaner and
➤Kachawas of Amber and Jaipur.
While the Moon Family includes the Bhattis of Jaisalmer.
The trading communities include Khandelwal, Agrawal, Maheshwari, Jains, and Gahoi of Marwar. Birlas, Bajajs, Goenkas Singhanias are some top business groups in India, who are famous Marwaris from Rajasthan.
The artisan’s communities like Sonar, Lohars, Bhils etc. are majorly found in Mewar.
“Reflection of valor- Mewari, and Marwari”
Mewari should not be confused with Marwari as both the languages are different. People who havebeen into both the regions can easily identify the boldness of Mewari and the Sweetness of Marwadi.
Mewari isinspired by Devanagari script while maximum words of Marwari are adopted from Sanskritlanguage and is traditionally associated with Mahajani language.
Mewari- 5 million speakers coming from Bhilwara, Chittorgarh, Udaipur, and Rajsamand districts of the state of Rajasthan.
Marwari- 20 million speakers (most-spoken)
“Aah, the food”
Dal Bati Churma is the signature dish that opts for both the kitchens of Mewarand Marwar. Although, very few people know that Mewar ’s cuisine includes both vegetarian and non-vegfood.
Whereas, Marwari cuisine generally follows vegetarian food. Some authentic disheslike
➤Laal Maas and Khad Khargosh
are non-vegetarian delights and are relished by the people of Mewar.
Whereas, the people of Marwarenjoys vegetarian delights such as:
➤Bajre ki roti
➤Pyaaz Kachori
➤Bharwa BesanMirch
➤Panchmel Daal
and many more fabulous recipes.
Apart from this, the richness in Mewari authentic Thali can be seen with the use of dried spices(Masalas) and dry fruits like cashews and almonds. Whereas the palette of Marwari food is a little dryreflecting the regional conditions.
Marwari Thali focuses more on ingredients like gram flour (Besan)and vegetables like Ker Sangri, Gavarfali, and more.
But, in both the culinary concepts, the common things are cookingtechniques, Spicy flavor and the use of ghee.
“The Great and Glorious Festivals”
Besides the culture and region, festivals can also let anyone recognize the distinctive feature ofboth the heritage. Whether it’s Diwali, Holi or Bhaidooj, all the festivals are significant in Rajasthan. Mewar festival, primarily known as ‘Gangaur,’ is celebrated with lots ofenthusiasm amongst women of the region.
And, considering the parts of Marwar, the festival which is widely celebrated by women of the region is “Teej.” which is celebrated in the monsoon season and determined by the cycle of the moon.
Despite these differences, a thing worth remembering is that both the regions and their cultures are blended so well that people always say, and forever say, that not Mewar or Marwar but Rajasthan is Enchanting!
Rajasthan is a state of culture, heritage and royalty, and primary among the attributes of the state, is the kingdom of Mewar, the place where festivals, tribes, rituals and folk mingle together to form a diverse view of culture and lineage.
An American photographer, Waswo X. Waswo, has done much to promote the regional culture of this land. His latest effort, in collaboration with local photographer and artist Rajesh Soni, has been the book and various exhibitions titled “Gavri Dancers”.
Waswo works in the vintage studio portrait mode, making images with painted backdrops at his studio in the Village of Varda. He then prints black and white photographs that are hand-brushed with colour by his long-time collaborator, Rajesh Soni, a third-generation Udaipur photo hand-colourist.
A recent show has just opened close to New Delhi, presented by Gallery Latitude 28 in the large galleries of Museo Camera, Centre for the Photographic Arts in Gurugram. The exhibition is called “Gauri Dancers: The Opera of Mewar”.
Before diving into the event, let’s reconcile what exactly Gavri is.
GAVRI
In the versatile land of Mewar, prevails a tribal dance form known as Gavri, Gavari or Gauri.
The folk dance is treated as a festival by the Bheel tribe of Mewar.
They perform and celebrate the dance ritual with full joy coupled with spirituality.
The festival is significantly celebrated on the next day of Shravani Purnima or Raksha Bandhan or Rakhi Purnima.
Young boys and men of the tribe dress as females and perform the dance form, village to village, telling stories through their folklores and tales.
THE EXHIBITION
The art is being presented by Gallery Latitude 28 in the large galleries of Museo Camera, Centre for the Photographic Arts in Gurugram.
The exhibition commenced from September 17, 2021 and will close on October 17, 2021.
The display of such extensive documentation of a little-know tradition to the Delhi crowd attracted and drew the attention of New Delhi’s art community and high society.
Waswo even brought a group of farmers from the village of Boro Walla Madri to make the traditional Gavri elephant within the gallery, symbolically marking it as a ritual performance.
The elephant was made up of grass straws, three cots, bangles, and other village materials.
The tradition of Gavri is almost unknown known outside Mewar. The seventy-five photographs in this exhibition and book are beginning to change that.
Each of the 75 black and white photographs you’ll find in the gallery have been patiently hand-tinted by Rajesh Soni, a well-known artist from Udaipur.
ABOUT THE ARTIST DUO
Rajesh Soni is from Udaipur and is a third-generation photo hand-colourist, primarily known for his abilities to hand paint digital photographs. His grandfather was Prabu Lal Verma, a court photographer to the Maharana Bhupal Singh of Mewar.
Waswo X. Waswo was born in Milwaukee, Wisconsin, in the U.S.A., and studied photography in both his hometown and Florence, Italy. He has lived and travelled in India for over twenty years and has made his home in Udaipur from the past thirteen. Waswo is known as an artist who collaborates with local artists and miniaturists. Waswo X. Waswo’s series on Gavri began over ten years ago. His style is to capture portraiture with natural light and an eye for detail. Though he shoots his portraits in a studio, he does his best to capture the naturalistic moment.
In 2019 the duo of Waswo X. Waswo and Rajesh Soni created the first full-sized hardcover book on Gauri Dancers, published by Mapin, India.
When Mewar’s Gavri travelled to the national capital, it was definitely a proud moment. The collaborators from our city are on a mission to promote and elaborate the art and culture of Mewar throughout India and the world. Amidst the times when we are losing touch with our history and culture, this exhibition has reminded us to stick to our roots and be proud citizens of Mewar.
हमारे देश में त्यौहार, समय अनुसार मनाये जाते हैं। उदयपुर के लोग राजाओं-महाराजाओं के काल से ही उत्सव-जलसे बड़े धूम-धाम से मनाते आए हैं। उन्ही त्योहारों में से एक है, गणगौर। गणगौर का त्यौहार चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की तीज पर आता है। आज हम आपको लेकर चल रहे हैं इतिहास के पन्नो में। क्या आपने कभी सोचा है कि महाराणा काल में गणगौर जैसा त्यौहार, जो कि आज भी इतना रंगीन और खुशनुमा है, उस वक़्त कैसे मनाया जाता था? इतिहास का विस्तृत पेश करती हुई गाथा वीर विनोद से आभार सहित कुछ अंश इस जश्न के, हम आपसे प्रस्तुत कर रहे हैं।
18 शताब्दी अर्थात महाराणा सज्जन सिंह जी के काल में गणगौर के इस त्यौहार का विस्तृत वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है- “नवीन वर्ष आरम्भ होते ही सभी ज्योतिष-गण उत्तम वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित होकर, महाराणा की सेवा में उपस्थित होते है तथा शुभकामनाओं के साथ महाराणा को नवीन पंचाग भेंट करते है। गणगौर इसके अगले दिन मनाया जाता है। गणगौर के दिन सभी स्त्रियाँ सुन्दर वस्त्र और आभूषण पहनकर बाग़-बावड़ियों में जाती है। महाराणा के आदेश पर राज्य भर में जश्न होता है। ये जश्न किसी धूम-धाम से कम नहीं होता।
दिन के ठीक तीन बजे पहला नगाड़ा बजता है, उसके बाद दूसरा और फिर तीसरे नगाड़े पर महाराणा घोड़े पर विराजमान होते हैं। एकलिंगगढ़ पर 21 तोपों की सलामी दी जाती है। बड़ी पोल से त्रिपोलिया घाट तक दोनों तरफ़ लकड़ी के बड़े खूंटे लगा दिए जाते है और उन पर रस्सियाँ बाँध दी जाती है। इन खूटों के आसपास पुलिस के जवान पहरा देते हैं। इन पर बाँधी गयी रस्सी के भीतर राजकीय अधिकारियों के अलावा अन्य व्यक्ति नहीं आ सकता है। जब महाराणा की सवारी महल से रवाना होती है तब सवारी के बाद सबसे आगे मेवाड़ के राजकीय निशान से चिन्हित हाथी चलते हैं, उनके पीछे के हाथियों पर सरदार, पासवान और अन्य अधिकारी होते है।
सवारी में जंगी घुड़सवारों के साथ साथ अँग्रेज़ अफ़सर भी शरीक होते है। विदेशी बाजा बजता हुआ निकलता है और उसके पीछे निकलते है सोने चाँदी के हौदे जो ख़ास हाथी पर कसे हुए होते है। इसके साथ ही राज्य के बड़े-बड़े प्रतिष्ठित लोग, उमराव, सरदार और चारण घोड़ों पर आते है। इस कारवाँ के पीछे जरी व सोने-चाँदी से सुसज्जित घोड़े रहते है।”
महाराणा की सवारी का दृश्य कुछ इस प्रकार होता है
“मधुर, सुरीला बाजा बजता रहता है, उसके पीछे महाराणा अच्छी पोशाक, ‘अमर शाही’, ‘आरसी शाही’ और ‘स्वरूप शाही’ पगड़ियों में से एक किस्म की पगड़ी, जामा और नाना प्रकार के हीरे मोतियों के आभूषणों को धारण किये और कमर बंध व ढाल लगाए हुए घोड़े पर विद्यमान रहते है। महाराणा के पीछे दूसरे सरदार, जागीरदार, पासवान व जंगी सैनिक रहते है और सबसे पीछे हाथी चलते है। सवारी के दोनों तरफ छड़ीदारो की बुलंद आवाज़ और आगे वीरता के दोहो का गायन करने वाले ढोलियो की आवाजें सवारी के आनंद को दोगुना कर देती है। इसी ठाठ बाट के साथ महाराणा धीरे-धीरे त्रिपोलिया घाट पर पहुंचते हैं और वह घोड़े से उतर कर नाव पर सवार होते हैं। इनमें से एक नाव के ऊँचे गोखड़े पर लगभग दो फुट ऊंचा सिंहासन रहता है, उस पर चार खम्बों वाली लकड़ी की एक छतरी होती है। सिंहासन और छतरी ज़र्दोजी और ज़री से सुशोभित होती है। सिंहासन के चारो तरफ, नीचे के तख्तो पर शानदार पोशाकों व गहनों से सज्जित सरदार, चारण व पासवान अपने दर्जे के मुताबिक बैठते है और कितने ही अन्य लोग आसपास खड़े रहते है। महाराणा के पद के नीचे के सभ्यगण उसी के समीप जुड़ी हुई नाव में सवार होते है। नाव की सवारी धीरे-धीरे दक्षिण की तरफ बढ़ती है और बड़ी पाल तक जाने के बाद फिर लौट कर त्रिपोलिया घाट पर आती है। दक्षिण के तरफ बढ़ते हुए आतिशबाज़ी चलाने का हुक्म दिया जाता है, तालाब के किनारों तथा कश्तियो पर से तरह-तरह की रंग-बिरंगी आतिशबाज़िया होती है। ये सब देखने में बहुत आनंद आता है।
इस अवसर पर बहुत से लोग सवारी को देखने दूर-दूर से आते है, क्योंकि उदयपुर के गणगौर के जलसे की दूसरे राजपुतानों में बड़ी तारीफ़ होती है। तालाब के किनारे देखने वाले लोगो की बड़ी भीड़ रहती है, इतनी की भीतर घुसना भी बहुत कठिन हो जाता है। इसके बाद महल से गणगौर माता की सवारी निकलती है, जिस के साथ नाना प्रकार की सुन्दर पोशाकों और सोने-चाँदी के गहनों से सुसज्जित दासियो के झुंड साथ चलते है। एक स्त्री के सिर पर लगभग 3 फुट ऊंची, सोने चाँदी के गहनों से शोभायमान, लकड़ी की बनी हुई गणगौर माता की मूर्ति रखी होती है। सवारी के आगे और पीछे, सवारी के लाज़मी हाथी घोड़ों पर पंडित व ज्योतिष लोग विद्यमान रहते हैं।
त्रिपोलिया घाट पर सवारी के पहुंचते ही महाराणा अपने सिंहासन से खड़े होकर गणगौर माता को प्रणाम करते है, फिर गणगौर माता को फर्श युक्त वेदिका पर रखकर, पंडित व ज्योतिषी लोग पूजन करके महाराणा साहिब को पुनः देते है। इसके बाद दासियाँ गणगौर माता के दोनों तरफ बराबर खड़े हो कर, प्रणाम के तौर पर झुकती हुई, “लहुरे” (एक तरह का गाना) गाती है। यह जलसा देखने लायक होता है। यहाँ राज्य में लकड़ी की बनी गणगौर की बड़ी मूर्ति के अलावा मिट्टी की बनी हुई गणगौर और दूसरे भगवानों की छोटी मूर्तियां भी देखी जा सकती है। बाकी शहर में दूसरे भगवान और गणगौर की मूर्तियां साथ ही निकाली जाती है।
राजपूताना की कुल रियासतों में इस त्यौहार को एक बड़े उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। इस देश में ऐसी कहावत है कि दशहरा राजपूतों के लिए और गणगौर स्त्रियों के लिए बड़ा त्यौहार है। यहाँ महादेव को ईसर (ईश्वर) और पार्वती को गणगौर कहते हैं। फिर गणगौर माता को जिस तरह जुलुस के साथ लाते हैं, उसी तरह फिर से महल में पहुंचाया जाता है। इसके बाद उसी फर्श पर दसियों द्वारा घूमर नृत्य और गाना-बजाना होता है। स्थानीय निवासी लोग भी नावों में सवार होकर इस जलसे को देखने के लिए आते हैं। आखिर में महाराणा रूप घाट पर नाव से उतर कर तामजान में सवार हो महल में पधार जाते है जहां कीमती गलीचे- मखमल का फर्श, ज़रदोज़ी के शामियाने व सोने चाँदी से बने हुए सिंहासन व कुर्सियां इनका इंतजार कर रही होती है और इस तरह यह जलसा पूरे 4 या उससे भी ज़्यादा दिन के लिए इसी तरह चलता रहता है”
उपरोक्त दृश्य की परिकल्पना मात्र ही आनंदमय लगती है। उस ज़माने की बात ही कुछ और थी। उम्मीद है आपको ये सब पढ़कर अच्छा लगा होगा। हम आगे भी कुछ ऐसे त्योहारों के बारे में आपको बताएँगे। कैसी लगी आपको हमारी ये पेशकश, हमें कमेंट्स में लिखकर ज़रूर बताएं। तब तक के लिए खम्मा घणी।
Rajasthan government’s long-awaited battle for the possession of historic Udaipur House in New Delhi has come to rest with the recent directives of Supreme Court. The property is situated near the Tees Hazari court at Civil Lines in Delhi. The Historic building was built before Independence by the then ruling Maharana of Mewar, which was occupied by Delhi government post-independence.
The majestic building is sprawling over 12000 meters of land at a prime location of Delhi, whose current worth is evaluated around 1500 crore. Before Independence, when Luteyn’s Delhi was being designed, the property was built by Udaipur’s Royal family. That time the British asked the Maharana of Udaipur to build a mansion in Delhi like other princely houses.
Post-independence Delhi government was granted the possession only for use. However, in 2010, Ashok Gehlot, the then Chief Minister of Rajasthan held talks with Delhi government to hand over the property back to Rajasthan, but the plea was declined. Following which the government took the issue to Supreme Court.
Recently Supreme Court issued directives to both the governments to settle the issue. After which a meeting among the representatives from Rajasthan and Delhi was held, where it was decided to hand over the property to Rajasthan government.
598 mtrs above the sea level and spanning over a stretch of only 37 sq km, a small beautiful town in the south of the largest state of India, lies a place, which is famous for its Royal Rajput-era palaces and scenic locations, which is home to exquisite valley views, tranquil lakes and some of world’s most influential & majestic architectures, a place which is on the bucket list of so many tourists, a place where many plan their dream destination weddings, a place that carries a wide history and culture, with it, Yes it is none other than, Udaipur, the city where my heart lies. Many of us call it ‘the City of Lakes, Venice of the East, and the Kashmir of Rajasthan.
It is one of the favorite travelling destination among the globetrotters and hence it was nominated as the No 1 City in Asia in 2018. Making its mark, the city occupied a place among World’s top 10 beautiful cities. This year Udaipur ranked 6th in Asia and 10th in the ‘World’s Best Awards’ for best cities of the world by renowned travel magazine travel and leisure. Not only this, the Leela Palace Udaipur ranked the no 1 hotel among World’s 100 best resorts, together with 38th place held by Taj Lake Palace while Oberoi Udaivilas at 49th, by the readers of the same T+L magazine. The magazine says that “a breathtaking view of Lake Pichola is just one reason, Travel + Leisure readers gave for choosing this Udaipur’s hotel as their favorite”.
From the ornate palaces and narrow winding streets, to the boutique jewelry stores and bustling markets, is what made travelers all around the earth to nominate it as the best travelling destinations. The City of Lakes hold so much treasures which could only be explored by renting a rowboat and sailing through the lakes or escaping into the narrow old city lanes which demonstrate the true Mewari culture.
Besides this, the cinematic history of the luxurious Taj Lake Palace and the Royal City Palace, are cherry on pie, which this city boasts of. Taj Lake Palace has also been voted as one of the Top 10 Asia resort hotels.
Thank you world and Udaipur folks that helped it mark its presence among 4,416 cities of the world.
मेवाड़ के शिरोमणि शासक महाराणा प्रताप, बीकानेर के सामंत पृथ्वीराज राठौड़ और राजस्थान के सुप्रसिद्ध कवि कन्हैया लाल सेठिया: इन तीनों शख्सियतों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के केंद्र में है एक पत्र; एक ऐसा दस्तावेज़ जिसने मेवाड़ के इतिहास का रुख बदल कर रख दिया| इस अहम् पत्र के पीछे छिपी है एक रोचक कहानी जो मेवाड़ के गौरवशाली नायक प्रताप के साहसिक जीवन में आये उतार चढ़ावों, टूटते आत्मविश्वास और उभरते शौर्य का भली भांति परिचय देती है | जब भारतवर्ष के रजवाड़ों के अधिकतर शासक मुग़ल सम्राट अकबर से संधि को ही अपनी नियति समझ चुके थे, तब मेवाड़ के स्वाभिमानी के राजा महाराणा प्रताप ही थे जिन्होंने शहंशाह-ए –हिंद से लोहा लेने की ठान ली थी| अकबर के सभी संधि प्रस्ताव ख़ारिज करते हुए, प्रताप ने निडर व्यक्तित्व का परिचय दिया और अंततः,युद्ध निश्चित था|
18 जून 1576 को, हल्दीघाटी में अकबर की विशालकाय सेना का सामना करने चट्टान सा साहस लिए खड़ी थी, प्रताप और उनके विश्वासपात्र योद्धाओं की छोटी सी टुकड़ी| अद्वितीय बहादुरी का परिचय देते हुए प्रताप की सेना अंत तक शत्रु को चुनौती देती रही| अकबर की सेना महाराणा को बंदी बनाने में कामयाब नहीं हो पाई और प्रताप का वफ़ादार घोड़ा चेतक, प्रताप को एक सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने की कोशिश में, गंभीर रूप से ज़ख़्मी होने के कारण शहीद हो गया| युद्ध के बाद, महलों का आलीशान जीवन छोड़कर प्रताप अपने परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे और छापामार युद्ध पद्दति की तैयारी में मसरूफ़ थे| जीवन अभावों में कट रहा था; तभी एक दिन उनके पुत्र के हाथ से घास की रोटी छीन कर एक जंगली बिल्ला ले गया| मेवाड़ के राजकुमार की ऐसी दुर्दशा देख कर, प्रताप का दिल भर आया और उन्होंने बेबस होकर, अकबर को संधि पत्र लिखकर मुग़लों की प्रभुता स्वीकार करने की ठानी| पत्र पाकर अकबर अचंभित हो गया क्योंकि उसे विश्वास नहीं हुआ कि प्रताप जैसा शूरवीर योद्धा भी हार मान सकता है|
राजस्थान के लोकप्रिय कवि कन्हैया लाल सेठिया ने अकबर की इस मनोस्थिति का उम्दा वर्णन अपनी कविता “पीथल और पाथल” में किया है:
“के आज हिमालय पिघल गयो
के आज हुयो सूरज शीतल
के आज शेष रो सर डोल्यो
आ सोच हुयो सम्राट विकल”
प्रताप के अनगिनत प्रशंसकों में से एक था, बीकानेर का सामंत, पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल) जो प्रताप का अनन्य उपासक था और अकबर के सामने प्रताप की तारीफ़ों के पुल बाँध दिया करता था| अकबर ने दूत को भेजकर पृथ्वीराज को बुलवाया और वह पत्र दिखाया| भाट कह कर उसका मखौल उड़ाते हुए अकबर ने पूछा कि, कहाँ गया वो लहू जो राजपूती रगों में बहता था; क्या हुआ महाराणा के उस पराक्रम का जो किसी के आगे झुकना नहीं जानता था| वो पत्र पाकर पीथल ने पाथल (प्रताप) को एक ‘पाती’ लिखी; एक ऐसी पाती जिसने महाराणा के हारे हुए उत्साह को ललकारा और उन्हें समझाया कि दुनिया की हर असंभव चीज़ संभव हो सकती है, लेकिन महाराणा कभी हार मान ले, यह किसी भी हालत में मुमकिन नहीं हो सकता| सेठिया जी लिखते हैं:
“म्हें आज सुणी है‚ नाहरियो, स्याला रै सागै सोवैलो। म्हें आज सुणी है‚ सूरजड़ो‚ बादल री ओटाँ खोवैलो म्हें आज सुणी है, चातकड़ो धरती रो पाणी पीवेलो म्हें आज सुणी है हाथीड़ो कूकर री जून्या जीवेलो |”
इस पत्र को पढ़कर प्रताप को एहसास हो गया कि वे भावनाओं में बहकर अपने दृढ़ संकल्प की बलि देने को तैयार हो गए थे| पत्र पढ़कर वे एक नयी ऊर्जा और जूनून से भर गए और अपने संधि पत्र वाले कदम के लिए खुदको कायर कहकर धिक्कारा| इस प्रकार एक शासक के बुझे हुए हृदय में फिर से आत्मविश्वास की ज्वाला जलाई एक प्रशंसक ने, और एक लोक कवि ने इस घटना को कविता की पंक्तियों में गुथकर हमेशा के लिए अमरत्व का जामा पहना दिया| इस तरह, ये तीन व्यक्ति इतिहास के दोराहों पर मिले और एक सुनहरे अध्याय को माज़ी के पन्नों पर दर्ज़ करके जुदा हो गए|
India’s first online custom furniture store Wooden Street instigates to make its physical presence in the ‘Capital of Mewar Kingdom’ – Udaipur.
Amidst the beautiful lakes and the lavish island hotels, Wooden Street planned the 14th brick and mortar store in a 1238 Sq.ft. to bring this royal city one step closer to their dream furniture.
On this, Mr. Lokendra Ranawat, the CEO of the company stated, “Every home has some sense of commonness and this is why we have designed the entire store like a lived-in apartment. This is the place where the Udaipur folks will be able to see the reflection of their home’’.
Why Brick and Mortar Store in the form of a House?
Believing that the people connect more to a well-furnished home rather than the chaotic stores, Wooden Street is showcasing its products in a 3-BHK apartment.
From the social center of the abode, i.e., living room to the cooking mansion, i.e., kitchen, Wooden Street has showcased all of its wooden furniture delicacies in the different rooms.
A Store Tour- Discover Your Home Vibe
Living room: With the loveliness of the floral fabric upholstered wing-back chair to the naturalness of the wooden sofa set, everything is painted in a singular theme to provide an inspiring regal living room decor.
Bedroom: The bedroom sanctuary stretches from a comfortable king size bed with the floral bed-sheet and assorted cushions to the upholstered bench and a lounge chair, everything is brought up together.
Dining: In accordance with the wooden theme, the dining room consists of all the necessary furniture units, ranging from the ‘essential’ wooden dining table set to the storage space ‘backer’ dining cabinet.
Kitchen: Coming to the cooking mansion, they have equipped it with the right furniture units that excel in storage as well as functionality to satiate current requirements with a traditional vibe.
Wooden Street’s Journey to the Top – The Blooming Success
Wooden Street embarked its journey in 2015 with only 10 efficient employees, and now has a team of 300+ powerful creative minds.
Their great skills of customizing furniture have served happiness and allowed customers to reflect their personalities in their homes.
With the vision of PAN India presence, the company continues to extend painstakingly with 13+ experience stores including major cities such as Bangalore, Pune, Mumbai, and Hyderabad.
In the past 4 years, they have served 50,000+ customers in 100+ cities across India. Towards the end of the financial year 2019, they have planned to expand their experience stores to 25!
“Shopping is all about experience and spreading love in form of furniture across 300+ cities, and this gives us the confidence to provide you different buying experience through our brick and mortar stores,” says COO, Virendra Ranawat.
Do Visit, bond and thoroughly inspect the quality of furniture at Wooden Street’s first brick and mortar store in our lovely city Udaipur at Mangalam Complex!