मेवाड़ के शिरोमणि शासक महाराणा प्रताप, बीकानेर के सामंत पृथ्वीराज राठौड़ और राजस्थान के सुप्रसिद्ध कवि कन्हैया लाल सेठिया: इन तीनों शख्सियतों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के केंद्र में है एक पत्र; एक ऐसा दस्तावेज़ जिसने मेवाड़ के इतिहास का रुख बदल कर रख दिया| इस अहम् पत्र के पीछे छिपी है एक रोचक कहानी जो मेवाड़ के गौरवशाली नायक प्रताप के साहसिक जीवन में आये उतार चढ़ावों, टूटते आत्मविश्वास और उभरते शौर्य का भली भांति परिचय देती है | जब भारतवर्ष के रजवाड़ों के अधिकतर शासक मुग़ल सम्राट अकबर से संधि को ही अपनी नियति समझ चुके थे, तब मेवाड़ के स्वाभिमानी के राजा महाराणा प्रताप ही थे जिन्होंने शहंशाह-ए –हिंद से लोहा लेने की ठान ली थी| अकबर के सभी संधि प्रस्ताव ख़ारिज करते हुए, प्रताप ने निडर व्यक्तित्व का परिचय दिया और अंततः,युद्ध निश्चित था|
18 जून 1576 को, हल्दीघाटी में अकबर की विशालकाय सेना का सामना करने चट्टान सा साहस लिए खड़ी थी, प्रताप और उनके विश्वासपात्र योद्धाओं की छोटी सी टुकड़ी| अद्वितीय बहादुरी का परिचय देते हुए प्रताप की सेना अंत तक शत्रु को चुनौती देती रही| अकबर की सेना महाराणा को बंदी बनाने में कामयाब नहीं हो पाई और प्रताप का वफ़ादार घोड़ा चेतक, प्रताप को एक सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने की कोशिश में, गंभीर रूप से ज़ख़्मी होने के कारण शहीद हो गया| युद्ध के बाद, महलों का आलीशान जीवन छोड़कर प्रताप अपने परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे और छापामार युद्ध पद्दति की तैयारी में मसरूफ़ थे| जीवन अभावों में कट रहा था; तभी एक दिन उनके पुत्र के हाथ से घास की रोटी छीन कर एक जंगली बिल्ला ले गया| मेवाड़ के राजकुमार की ऐसी दुर्दशा देख कर, प्रताप का दिल भर आया और उन्होंने बेबस होकर, अकबर को संधि पत्र लिखकर मुग़लों की प्रभुता स्वीकार करने की ठानी| पत्र पाकर अकबर अचंभित हो गया क्योंकि उसे विश्वास नहीं हुआ कि प्रताप जैसा शूरवीर योद्धा भी हार मान सकता है|
राजस्थान के लोकप्रिय कवि कन्हैया लाल सेठिया ने अकबर की इस मनोस्थिति का उम्दा वर्णन अपनी कविता “पीथल और पाथल” में किया है:
“के आज हिमालय पिघल गयो
के आज हुयो सूरज शीतल
के आज शेष रो सर डोल्यो
आ सोच हुयो सम्राट विकल”
प्रताप के अनगिनत प्रशंसकों में से एक था, बीकानेर का सामंत, पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल) जो प्रताप का अनन्य उपासक था और अकबर के सामने प्रताप की तारीफ़ों के पुल बाँध दिया करता था| अकबर ने दूत को भेजकर पृथ्वीराज को बुलवाया और वह पत्र दिखाया| भाट कह कर उसका मखौल उड़ाते हुए अकबर ने पूछा कि, कहाँ गया वो लहू जो राजपूती रगों में बहता था; क्या हुआ महाराणा के उस पराक्रम का जो किसी के आगे झुकना नहीं जानता था| वो पत्र पाकर पीथल ने पाथल (प्रताप) को एक ‘पाती’ लिखी; एक ऐसी पाती जिसने महाराणा के हारे हुए उत्साह को ललकारा और उन्हें समझाया कि दुनिया की हर असंभव चीज़ संभव हो सकती है, लेकिन महाराणा कभी हार मान ले, यह किसी भी हालत में मुमकिन नहीं हो सकता| सेठिया जी लिखते हैं:
“म्हें आज सुणी है‚ नाहरियो, स्याला रै सागै सोवैलो।
म्हें आज सुणी है‚ सूरजड़ो‚ बादल री ओटाँ खोवैलो
म्हें आज सुणी है, चातकड़ो धरती रो पाणी पीवेलो
म्हें आज सुणी है हाथीड़ो कूकर री जून्या जीवेलो |”
इस पत्र को पढ़कर प्रताप को एहसास हो गया कि वे भावनाओं में बहकर अपने दृढ़ संकल्प की बलि देने को तैयार हो गए थे| पत्र पढ़कर वे एक नयी ऊर्जा और जूनून से भर गए और अपने संधि पत्र वाले कदम के लिए खुदको कायर कहकर धिक्कारा| इस प्रकार एक शासक के बुझे हुए हृदय में फिर से आत्मविश्वास की ज्वाला जलाई एक प्रशंसक ने, और एक लोक कवि ने इस घटना को कविता की पंक्तियों में गुथकर हमेशा के लिए अमरत्व का जामा पहना दिया| इस तरह, ये तीन व्यक्ति इतिहास के दोराहों पर मिले और एक सुनहरे अध्याय को माज़ी के पन्नों पर दर्ज़ करके जुदा हो गए|
Article By – Sharmishtha Ranawat