India is a land of eclectic cultural diversity and each region has a variety of things that differentiate them from the rest of the country. There are several languages spoken in the country and if you happen to be a tourist, you might get stuck in searching for the right word. Rajasthan and especially Udaipur is one of the most tourist-friendly cities in the state as well as in the country. Predominantly, the language spoken in Udaipur is Mewari. So, if you’re planning your trip to the magical land of lakes, these translations will make you cross the language barrier. Below is the list of Common Translations for a visitor to Udaipur.
Translations
Hindi
English
Mewari
namaste
नमस्ते
Hello
Khamma Ghani
खम्मा घणी
alavida
अलविदा
Goodbye
Khamma Ghani
खम्मा घणी
phir milenge
फिर मिलेंगे
See you again
pachhe malaan/milaanga
पछे मलां/मिलांगा।
dhanyavaad
धन्यवाद
Thank you
aabhar
आभार
kya main yahaan baith sakata hoon?
क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?
Can I sit here?
kai mhoo athe baithee/beee sakoon?
कइ म्हू अठे बैठी/बेई सकूँ?
aap kaise hain?
आप कैसे हैं?
How are you doing?
aap kistar/katar/kashaan ho?
आप किस्तर/कतर/कशान हो?
mujhe ek (taxi, car, telephone, pen) chaahiye
मुझे एक (टैक्सी, कार, टेलीफोन, कलम) चाहिए
I need a (taxi, car, telephone, pen)
mhane ek (motaragaadee, kaar, teleephon, pain) chaeen rayo hai.
म्हणे एक (मोटरगाड़ी, कार, टेलीफोन, पैन) चाईं रयो है।
Yes/No
एस/नो
Yes/No
Ha (हाँ)
Ni (नी)
mera naam hai …
मेरा नाम है …
my name is …
mharo naam ______ chhai/hai.
म्हारो नाम ______ छे/है..
kya aap angrezee bolate hain?
क्या आप अंग्रेज़ी बोलते हैं?
Do you speak English?
thane English aave he?
थाणे इंग्लिश आवे हे?
shubh prabhaat
शुभ प्रभात
good morning
shubh prabhaat
शुभ प्रभात
Susandhya
सुसंध्या
good evening
Susandhya
सुसंध्या
shubh raatri
शुभ रात्रि
good night
shubh raatri
शुभ रात्रि
madad
मदद
Help
madad
मदद
chikitsak
चिकित्सक
Doctor
Dactar saab
डाक्टर साब
tumhaara naam kya he?तुम्हारा नाम क्या है?
What is your name?
थारो नाम काई छे/है?
Tharo Naam kaai Che/hea?
samay kya hua hai?
समय क्या हुआ है?
What’s the time?
tem kai vyo hai?
टेम कइ व्यो है?
is kee keemat kya hogee?
इस की कीमत क्या होगी?
How much does this cost?
anee ra paya/paisa katara vya?
अणी रा पया/पैसा कतरा व्या?
aapase milakar achchha laga
आपसे मिलकर अच्छा लगा
It is nice to meet you
aaparooon mali ne gano badhiya laagyo.
आपरोऊँ मलि ने गणो बढ़िया लाग्यो।
mujhe maaph karen
मुझे माफ करें
excuse me
mhane maaf kar.
म्हणे माफ़ कर।
aap kahaan hain?
आप कहाँ हैं?
Where are you?
aap kathe ha?
आप कठे हा?
baad mein milate hain!
बाद में मिलते हैं!
See you later!
va pachhe malaan.
वा पछे मलां।
kya aap ise dobaara bol sakate hain?
क्या आप इसे दोबारा बोल सकते हैं?
Can You Say It Again?
kai aap anee ne paachho bol sako?
कइ आप अणी ने पाछो बोल सको?
Hindi mein kya kaha jaata hai?
हिंदी में क्या कहा जाता है?
What’s That Called in Hindi?
hindee mein kai keven?
हिंदी में कइ केवें?
chinta mat karo
चिंता मत करो
Don’t worry!
chinta mati kar/ tensan mati le/ ataro mati hoch.
चिंता मति कर/ टेंसन मति ले/ अतरो मति हॉच।
Maaf Kro
माफ़ करो
Sorry
म्हाने माफ़ करो
Mhane Maaf Karo
mujhe vaastav mein yah pasand hai!
मुझे वास्तव में यह पसंद है!
I really like it!
mhane haanchee/sach mein yo badhiya laagyo.
म्हणे हांची/सच में यो बढ़िया लाग्यो।
main tumase pyaar karata hoon!
मैं तुमसे प्यार करता हूँ!
I love you!
hu/mhey thaa-neh prem karu chu/hu
मैं थारे ने प्रेम करू छु/हु
dhyaan rakhana
ध्यान रखना
Take Care
dhyaan raakhajo
ध्यान राखजो।
Aaiye
आइये
Welcome
थारो स्वागत छे/है
Tharo Swaagat che/hea
bahut achchha
बहुत अच्छा
Very Well
gano badhiya
गणो बढ़िया
achchha
अच्छा
OK
badhiya
बढ़िया
poorv
पूर्व
East
aaguni
अगुनी
pashchim
पश्चिम
West
aathuni
अथुनी
uttar
उत्तर
North
uttar
उत्तर
dakshin
दक्षिण
South
dakshin
दक्षिण
oopar
ऊपर
Up
Upre
उपरे
neeche
नीचे
Down
Niche
निचे
baen
बाएं
Left
dawlo haath
दवलो हाथ
daayen
दाएं
Right
Saavlo-haath
साव्लो हाथ
The Mewari language slightly changes over kilometers, but majorly these are the common translations.
Also, feel free to share your views on this and tell us if you wish to include any phrase in the list 🙂
मेवाड़ योद्धाओं की भूमि है, यहाँ कई शूरवीरों ने जन्म लिया और अपने कर्तव्य का प्रवाह किया । उन्ही उत्कृष्ट मणियों में से एक थे राणा सांगा । पूरा नाम महाराणा संग्राम सिंह । वैसे तो मेवाड़ के हर राणा की तरह इनका पूरा जीवन भी युद्ध के इर्द-गिर्द ही बीता लेकिन इनकी कहानी थोड़ी अलग है । एक हाथ , एक आँख, और एक पैर के पूर्णतः क्षतिग्रस्त होने के बावजूद इन्होंने ज़िन्दगी से हार नही मानी और कई युद्ध लड़े ।
ज़रा सोचिए कैसा दृश्य रहा होगा जब वो शूरवीर अपने शरीर मे 80 घाव होने के बावजूद, एक आँख, एक हाथ और एक पैर पूर्णतः क्षतिग्रस्त होने के बावजूद जब वो लड़ने जाता था ।।
कोई योद्धा, कोई दुश्मन इन्हें मार न सका पर जब कुछ अपने ही विश्वासघात करे तो कोई क्या कर सकता है । आईये जानते है ऐसे अजयी मेवाड़ी योद्धा के बारे में, खानवा के युद्ध के बारे में एवं उनकी मृत्यु के पीछे के तथ्यों के बारे में।
परिचय –
राणा रायमल के बाद सन् 1509 में राणा सांगा मेवाड़ के उत्तराधिकारी बने। इनका शासनकाल 1509- 1527 तक रहा । इन्होंने दिल्ली, गुजरात, व मालवा मुगल बादशाहों के आक्रमणों से अपने राज्य की बहादुरी से ऱक्षा की। उस समय के वह सबसे शक्तिशाली राजा थे । इनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की।
राणा सांगा अदम्य साहसी थे । इन्होंने सुलतान मोहम्मद शासक माण्डु को युद्ध में हराने व बन्दी बनाने के बाद उन्हें उनका राज्य पुनः उदारता के साथ सौंप दिया, यह उनकी बहादुरी को दर्शाता है। बचपन से लगाकर मृत्यु तक इनका जीवन युद्धों में बीता। इतिहास में वर्णित है कि महाराणा संग्राम सिंह की तलवार का वजन 20 किलो था ।
सांगा के युद्धों का रोचक इतिहास –
* महाराणा सांगा का राज्य दिल्ली, गुजरात, और मालवा के मुगल सुल्तानों के राज्यो से घिरा हुआ था। दिल्ली पर सिकंदर लोदी, गुजरात में महमूद शाह बेगड़ा और मालवा में नसीरुद्दीन खिलजी सुल्तान थे। तीनो सुल्तानों की सम्मिलित शक्ति से एक स्थान पर महाराणा ने युद्ध किया फिर भी जीत महाराणा की हुई। सुल्तान इब्राहिम लोदी से बूँदी की सीमा पर खातोली के मैदान में वि.स. 1574 (ई.स. 1517) में युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहिम लोदी पराजित हुआ और भाग गया। महाराणा की एक आँख तो युवाकाल में भाइयो की आपसी लड़ाई में चली गई थी और इस युद्ध में उनका दाया हाथ तलवार से कट गया तथा एक पाँव के घुटने में तीर लगने से सदा के लिये लँगड़े हो गये थे।
* महाराणा ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर को लड़ाई में ईडर, अहमदनगर एवं बिसलनगर में परास्त कर अपने अपमान का बदला लिया अपने पक्ष के सामन्त रायमल राठौड़ को ईडर की गद्दी पर पुनः बिठाया।
अहमदनगर के जागीरदार निजामुल्मुल्क ईडर से भागकर अहमदनगर के किले में जाकर रहने लगा और सुल्तान के आने की प्रतीक्षा करने लगा । महाराणा ने ईडर की गद्दी पर रायमल को बिठाकर अहमद नगर को जा घेरा। मुगलों ने किले के दरवाजे बंद कर लड़ाई शुरू कर दी। इस युद्ध में महाराणा का एक नामी सरदार डूंगरसिंह चौहान(वागड़) बुरी तरह घायल हुआ और उसके कई भाई बेटे मारे गये। डूंगरसिंह के पुत्र कान्हसिंह ने बड़ी वीरता दिखाई। किले के लोहे के किवाड़ पर लगे तीक्ष्ण भालों के कारण जब हाथी किवाड़ तोड़ने में नाकाम रहा , तब वीर कान्हसिंह ने भालों के आगे खड़े होकर महावत को कहा कि हाथी को मेरे बदन पर झोंक दे। कान्हसिंह पर हाथी ने मुहरा किया जिससे उसका शरीर भालो से छिन छिन हो गया और वह उसी क्षण मर गया, परन्तु किवाड़ भी टूट गए। इससे मेवाड़ी सेना में जोश बढा और वे नंगी तलवारे लेकर किले में घुस गये और मुगल सेना को काट डाला। निजामुल्मुल्क जिसको मुबारिजुल्मुल्क का ख़िताब मिला था वह भी बहुत घायल हुआ और सुल्तान की सारी सेना तितर-बितर होकर अहमदाबाद को भाग गयी।
* माण्डू के सुलतान महमूद के साथ वि.स्. 1576 में युद्ध हुआ जिसमें 50 हजार सेना के साथ महाराणा गागरोन के राजा की सहायता के लिए पहुँचे थे। इस युद्ध में सुलतान महमूद बुरी तरह घायल हुआ। उसे उठाकर महाराणा ने अपने तम्बू पहुँचवा कर उसके घावो का इलाज करवाया। फिर उसे तीन महीने तक चितौड़ में कैद रखा और बाद में फ़ौज खर्च लेकर एक हजार राजपूत के साथ माण्डू पहुँचा दिया। सुल्तान ने भी अधीनता के चिन्हस्वरूप महाराणा को रत्नजड़ित मुकुट तथा सोने की कमरपेटी भेंट स्वरूप दिए, जो सुल्तान हुशंग के समय से राज्यचिन्ह के रूप में वहाँ के सुल्तानों के काम आया करते थे। बाबर बादशाह से सामना करने से पहले भी राणा सांगा ने 18 बार बड़ी बड़ी लड़ाईयाँ दिल्ली व् मालवा के सुल्तानों के साथ लड़ी। एक बार वि.स्. 1576 में मालवे के सुल्तान महमूद द्वितीय को महाराणा सांगा ने युद्ध में पकड़ लिया, परन्तु बाद में बिना कुछ लिये उसे छोड़ दिया।
मीरा बाई से सम्बंध –
महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम भोजराज था, जिनका विवाह मेड़ता के राव वीरमदेव के छोटे भाई रतनसिंह की पुत्री मीराबाई के साथ हुआ था। मीराबाई मेड़ता के राव दूदा के चतुर्थ पुत्र रतनसिंह की इकलौती पुत्री थी।
बाल्यावस्था में ही उसकी माँ का देहांत हो जाने से मीराबाई को राव दूदा ने अपने पास बुला लिया और वही उसका लालन-पालन हुआ।
मीराबाई का विवाह वि.स्. 1573 (ई.स्. 1516) में महाराणा सांगा के कुँवर भोजराज के साथ होने के कुछ वर्षों बाद कुँवर युवराज भोजराज का देहांत हो गया। मीराबाई बचपन से ही भगवान की भक्ति में रूचि रखती थी। उनका पिता रत्नसिंह राणा सांगा और बाबर की लड़ाई में मारा गया। महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद छोटा पुत्र रतनसिंह उत्तराधिकारी बना और उसकी भी वि.स्. 1588(ई.स्. 1531) में मरने के बाद विक्रमादित्य मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। मीराबाई की अपूर्व भक्ति और भजनों की ख्याति दूर दूर तक फैल गयी थी जिससे दूर दूर से साधु संत उससे मिलने आया करते थे। इसी कारण महाराणा विक्रमादित्य उससे अप्रसन्न रहा करते और तरह तरह की तकलीफे दिया करता थे। यहाँ तक की उसने मीराबाई को मरवाने के लिए विष तक देने आदि प्रयोग भी किये, परन्तु वे निष्फल ही हुए। ऐसी स्थिति देख राव विरामदेव ने मीराबाई को मेड़ता बुला लिया। जब जोधपुर के राव मालदेव ने वीरमदेव से मेड़ता छीन लिया तब मीराबाई तीर्थयात्रा पर चली गई और द्वारकापुरी में जाकर रहने लगी। जहा वि.स्. 1603(ई.स्. 1546) में उनका देहांत हुआ।
खानवा का युद्ध –
बाबर सम्पूर्ण भारत को रौंदना चाहता था जबकि राणा सांगा तुर्क-अफगान राज्य के खण्डहरों के अवशेष पर एक हिन्दू राज्य की स्थापना करना चाहता थे, परिणामस्वरूप दोनों सेनाओं के मध्य 17 मार्च, 1527 ई. को खानवा में युद्ध आरम्भ हुआ।
इस युद्ध में राणा सांगा का साथ महमूद लोदी दे रहे थे। युद्ध में राणा के संयुक्त मोर्चे की खबर से बाबर के सौनिकों का मनोबल गिरने लगा। बाबर अपने सैनिकों के उत्साह को बढ़ाने के लिए शराब पीने और बेचने पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर शराब के सभी पात्रों को तुड़वा कर शराब न पीने की कसम ली, उसने मुसलमानों से ‘तमगा कर’ न लेने की घोषणा की। तमगा एक प्रकार का व्यापारिक कर था जिसे राज्य द्वारा लगाया जाता था। इस तरह खानवा के युद्ध में भी पानीपत युद्ध की रणनीति का उपयोग करते हुए बाबर ने सांगा के विरुद्ध सफलता प्राप्त की। युद्ध क्षेत्र में राणा सांगा घायल हुए, पर किसी तरह अपने सहयोगियों द्वारा बचा लिए गये। कालान्तर में अपने किसी सामन्त द्वारा विष दिये जाने के कारण राणा सांगा की मृत्यु हो गई। खानवा के युद्ध को जीतने के बाद बाबर ने ‘ग़ाजी’ की उपाधि धरण की।
मृत्यु –
खानवा के युद्ध मे राणा सांगा के चेहरे पर एक तीर आकर लगा जिससे राणा मूर्छित हो गए ,परिस्थिति को समझते हुए उनके किसी विश्वास पात्र ने उन्हें मूर्छित अवस्था मे रण से दूर भिजवा दिया एवं खुद उनका मुकुट पहनकर युद्ध किया, युद्ध मे उसे भी वीरगति मिली एवं राणा की सेना भी युद्ध हार गई । युद्ध जीतने की बाद बाबर ने मेवाड़ी सेना के कटे सरो की मीनार बनवाई थी । जब राणा को होश आने के बाद यह बात पता चली तो वो बहुत क्रोधित हुए उन्होंने कहा मैं हारकर चित्तोड़ वापस नही जाऊंगा उन्होंने अपनी बची-कुची सेना को एकत्रित किया और फिर से आक्रमण करने की योजना बनाने लगे इसी बीच उनके किसी विश्वास पात्र ने उनके भोजन में विष मिला दिया ,जिससे उनकी मृत्यु हो गई ।
The beauty of the City of Lakes is not hidden from anyone. The city is lined with greenery and peaceful lakes. Udaipur has become the hub of tourism in the past decade and people from all over the world come to the city in search of beauty and tranquility. As the number of people coming to the city increased, so did the number of hotels. Right now, Udaipur boasts some of the finest and the most luxurious hotels in the entire country. One such beautiful palace turned into a hotel is the Chunda Palace.
Thakur Ghanshyam Singh Krishnawat pioneered the marble business in Rajasthan under the name Haveli Marbles starting in 1976. Later, in 1996 he started building a dwelling for himself which he turned into a palatial hotel- today widely known as the Chunda Palace. In the year 2010, Chunda Palace began its operations and if we talk about the current date, the palace has maintained its beauty and has been the epitome of Udaipur’s celebrated past.
Thakur Ghanshyam Singh Krishnawat has two sons, Veeramdev Singh Krishnawat and Yaduraj Singh Krishnawat, who take care of Chunda Palace now.
Why the name ‘Chunda’ Palace?
Rawat Chunda was the eldest son and the obvious successor of Maharana Lakha of Mewar. Rawat Chunda, however, handed over the throne of Mewar to his younger brother Maharana Mokal but he continued to serve the house of Mewar. Rawat Chunda’s clan is also the ancestral clan of Thakur Ghanshyam Singh Krishnawat.
The hotel gets its name from Rawat Chunda and hence is known as Chunda Palace.
Inside the Hotel
Chunda Palace preserves a distinct identity and is one of the most revered hotels in Udaipur. The locale in which the palace is situated can be taken as an idyllic one- neighboring Oberoi’s Udai Vilas and Trident.
Architecture and Interiors
20 years hence, the Palace still has its work ongoing- the paintings are still being done on the walls and ceilings. The palace has artwork indigenous to the Mewar region. The artistry on the ceilings is one of a kind and include gold plating with natural colors. Mewar’s Bhitti Chitra Miniature Paintings and glass inlay work can be seen vividly on all the walls and ceilings. The furniture is made of wood, silver, brass and camel bone.
Beautiful chandeliers line the ceiling and a blissful aroma is always filled in the entire Palace.
Staying at Chunda Palace
There are in total 46 rooms which are bifurcated as – 30 palace rooms and 16 suites. The largest suite has an area of 1000 square feet which demonstrate the lavishness of the regal life of nobles of Mewar.
The recreation room named Harawal has ample space to accommodate a gathering. It has a silver swing which grabs all the attention.
The Rana Chowk or the top terrace promises an enticing view of the entire city and is a perfect spot for a romantic dinner. This place is also ideal for having a wedding function.
And not forgetting the Royal Alcoves, which are seven beautifully carved and embellished alcoves near the rooftop pool called Pichola pool. One can have a sumptuous dining experience at the alcoves.
Cuisines at Chunda Palace
Chunda Palace offers a multi-cuisine menu at their Royal Cuisine Restaurant that satiates culinary cravings. They also have a live kitchen. Authentic Rajasthani cuisine is served with amicable hospitality which is wondrous.
How to reach
Chunda Palace is 27 km from the airport and 7 km from the Udaipur Railway Station.
अर्थात सिंह एक ही बार संतान को जन्म देता है. सज्जन लोग बात को एक ही बार कहते हैं । केला एक ही बार फलता है. स्त्री को एक ही बार तेल एवं उबटन लगाया जाता है अर्थात उसका विवाह एक ही बार होता है. ऐसे ही राव हमीर का हठ है. वह जो ठानते हैं, उस पर दोबारा विचार नहीं करते।
ये वो मेवाड़ी शासक है जिन्होंने अल्लाउद्दीन खिलजी को तीन बार हराया था ,और अपनी कैद में भी रखा था । इनके नाम के आगे आज भी हठी जोड़ा जाता है , आइये जानते है इस मेवाड़ी शासक के बारे में और उसके हठ, तथा ऐतिहासिक युद्धो के बारे में ।।
परिचय –
राव हम्मीर देव चौहान रणथम्भौर “रणतभँवर के शासक थे। ये पृथ्वीराज चौहाण के वंशज थे। इनके पिता का नाम जैत्रसिंह था। ये इतिहास में ‘‘हठी हम्मीर के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। जब हम्मीर वि॰सं॰ १३३९ (ई.स. १२८२) में रणथम्भौर (रणतभँवर) के शासक बने तब रणथम्भौर के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है।हम्मीर देव रणथम्भौर के चौहाण वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण शासक थे। इन्होने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था।
राव हमीर का जन्म सात जुलाई, 1272 को चौहानवंशी राव जैत्रसिंह के तीसरे पुत्र के रूप में अरावली पर्वतमालाओं के मध्य बने रणथम्भौर दुर्ग में हुआ था। बालक हमीर इतना वीर था कि तलवार के एक ही वार से मदमस्त हाथी का सिर काट देता था. उसके मुक्के के प्रहार से बिलबिला कर ऊंट धरती पर लेट जाता था। इस वीरता से प्रभावित होकर राजा जैत्रसिंह ने अपने जीवनकाल में ही 16 दिसम्बर, 1282 को उनका राज्याभिषेक कर दिया। राव हमीर ने अपने शौर्य एवं पराक्रम से चौहान वंश की रणथम्भौर तक सिमटी सीमाओं को कोटा, बूंदी, मालवा तथा ढूंढाढ तक विस्तृत किया। हमीर ने अपने जीवन में 17 युद्ध लड़े, जिसमें से 16 में उन्हें सफलता मिली। 17वां युद्ध उनके विजय अभियान का अंग नहीं था।
इतिहासमेंस्थान –
मेवाड़ राज्य उसकी उत्तपत्ति से ही शौर्य और वीरता का प्रतीक रहा है। मेवाड़ की शौर्य धरा पर अनेक वीर हुए। इसी क्रम में मेवाड़ के राजा विक्रमसिंह के बाद उसका पुत्र रणसिंह(कर्ण सिंह) राजा हुआ। जिसके बाद दो शाखाएँ हुई एक रावल शाखा तथा दूसरी राणा शाखा । जिसमे से रावल शाखा वाले मेवाड़ के स्वामी बने और राणा शाखा वाले सिसोदे के जागीरदार रहे। राणा शाखा वाले सिसोदे ग्राम में रहने के कारण सिसोदिया कहलाये।
रावल शाखा में कर्णसिंह के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र क्षेमसिंह मेवाड़ के राजा हुआ। जिसके बाद इस वंश का रावल रतनसिंह तक मेवाड़ पर राज्य रहा। रावल वंश की समाप्ति अल्लाउद्दीन खिलजी के विस्. 1360 (ई.स. 1303) में रावल रतनसिंह सिंह से चित्तौड़ छीनने पर हुई। राणा शाखा के राहप के वंशज ओर सिसोदा के राणा हम्मीर ने चित्तौड़ के प्रथम शाके में रावल रतनसिंह के मारे जाने के कुछ वर्षों पश्चात चित्तौड़ अपना अधिकार जमाया और मेवाड़ के स्वामी हुआ। राणा हम्मीर ने मेवाड़ पर सिसोदिया की राणा शाखा का राज्य विस्. 1383 (ईस. 1326) के आसपास स्थापित कर महाराणा का पद धारण किया। इस प्रकार सिसोदे कि राणा शाखा में माहप ओर राहप से राणा अजयसिंह तक के सब वंशज सिसोदे के सामन्त रहे। चित्तौड़ का गया हुआ राज्य अजयसिंह के भतीजे (अरिसिंह का पुत्र) राणा हम्मीर ने छुड़ा लिया था और मेवाड़ पर सिसोदियों की राणा शाखा का राज्य स्थिर किया। तब से लेकर भारत के स्वतंत्रता के पश्चात मेवाड़ राज्य के भारतीय संघ में विलय होने तक मेवाड़ पर सोसोदियो की राणा शाखा का राज्य चला आता है।
हठीहम्मीरसिंहऔरखिलजीकायुद्ध–
हम्मीर के नेतृत्व में रणथम्भौर के चौहानों ने अपनी शक्ति को काफी सुदृढ़ बना लिया और राजस्थान के विस्तृत भूभाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया था। अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के निकट चौहानों की बढ़ती हुई शक्ति को नहीं देखना चाहता था, इसलिए संघर्ष होना अवश्यंभावी था।
अलाउद्दीन की सेना ने सर्वप्रथम छाणगढ़ पर आक्रमण किया। उनका यहाँ आसानी से अधिकार हो गया। छाणगढ़ पर मुगलों ने अधिकार कर लिया है, यह समाचार सुनकर हम्मीर ने रणथम्भौर से सेना भेजी। चौहान सेना ने मुगल सैनिकों को परास्त कर दिया। मुगल सेना पराजित होकर भाग गई, चौहानों ने उनका लूटा हुआ धन व अस्त्र-शस्त्र लूट लिए। वि॰सं॰ १३५८ (ई.स. १३०१) में अलाउद्दीन खिलजी ने दुबारा चौहानों पर आक्रमण किया। छाणगढ़ में दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में हम्मीर स्वयं नहीं गया था। वीर चौहानों ने वीरतापूर्वक युद्ध किया लेकिन विशाल मुगल सेना के सामने कब तक टिकते। अन्त में सुल्तान का छाणगढ़ पर अधिकार हो गया।
तत्पश्चात् मुगल सेना रणथम्भौर की तरफ बढ़ने लगी। तुर्की सेनानायकों ने हमीर देव के पास सूचना भिजवायी, कि हमें हमारे विद्रोहियों को सौंप दो, जिनको आपने शरण दे रखी है। हमारी सेना वापिस दिल्ली लौट जाएगी। लेकिन हम्मीर अपने वचन पर दृढ़ थे। मुगल सेना का घेरा बहुत दिनों तक चलता रहा। लेकिन उनका रणथम्भौर पर अधिकार नहीं हो सका।
अलाउद्दीन ने राव हम्मीर के पास दुबारा दूत भेजा की हमें विद्रोही सैनिकों को सौंप दो, हमारी सेना वापस दिल्ली लौट जाएगी। हम्मीर हठ पूर्वक अपने वचन पर दृढ था। बहुत दिनों तक मुगल सेना का घेरा चलता रहा और चौहान सेना मुकाबला करती रही। अलाउद्दीन को रणथम्भीर पर अधिकार करना मुश्किल लग रहा था। उसने छल-कपट का सहारा लिया। हम्मीर के पास संधि का प्रस्ताव भेजा जिसको पाकर हम्मीर ने अपने आदमी सुल्तान के पास भेजे। उन आदमियों में एक सुर्जन कोठ्यारी (रसद आदि की व्यवस्था करने वाला) व कुछ सेना नायक थे। अलाउद्दीन ने उनको लोभ लालच देकर अपनी तरफ मिलाने का प्रयास किया। इनमें से गुप्त रूप से कुछ लोग सुल्तान की तरफ हो गए।
दुर्ग का धेरा बहुत दिनों से चल रहा था, जिससे दूर्ग में रसद आदि की कमी हो गई। दुर्ग वालों ने अब अन्तिम निर्णायक युद्ध का विचार किया। राजपूतों ने केशरिया वस्त्र धारण करके शाका किया। राजपूत सेना ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए। भीषण युद्ध करना प्रारम्भ किया। दोनों पक्षों में आमने-सामने का युद्ध था। एक ओर संख्या बल में बहुत कम राजपूत थे तो दूसरी ओर सुल्तान की कई गुणा बडी सेना, जिनके पास पर्येति युद्धादि सामग्री एवं रसद थी। अंत में राजपूतों की सेना वजयी रही।
बादशाह को रखा तीन माह जेल में –
बादशाह खिलजी को राणा ने हराने के बाद तीन माह तक जेल में बंद रखा । तीन माह पश्चात उससे अजमेर रणथम्भौर, नागौर शुआ और शिवपुर को मुक्त कराके उन्हें अपने लिए प्राप्त कर और एक सौ हाथी व पचास लाख रूपये लेकर जेल से छोड़ दिया।
राणा ने अपने जीवन काल में मारवाड़ जयपुर, बूंदी, ग्वालियर, चंदेरी रायसीन, सीकरी, कालपी तथा आबू के राजाओं को भी अपने अधीन कर पुन: एक शक्तिशाली मेवाड़ की स्थापना की।
बप्पा रावल मेवाड़ी राजवंश के सबसे प्रतापी योद्धा थे । वीरता में इनकी बराबरी भारत का कोई और योद्धा कर ही नहीं सकता। यही वो शासक एवं योद्धा है जिनके बारे में राजस्थानी लोकगीतों में कहा जाता है कि –
सर्वप्रथम बप्पा रावल ने केसरिया फहराया ।
और तुम्हारे पावन रज को अपने शीश लगाया ।।
फिर तो वे ईरान और अफगान सभी थे जिते ।
ऐसे थे झपटे यवनो पर हों मेवाड़ी चीते ।।
सिंध में अरबों का शासन स्थापित हो जाने के बाद जिस वीर ने उनको न केवल पूर्व की ओर बढ़ने से सफलतापूर्वक रोका था, बल्कि उनको कई बार करारी हार भी दी थी, उसका नाम था बप्पा रावल। बप्पा रावल गहलोत राजपूत वंश के आठवें शासक थे और उनका बचपन का नाम राजकुमार कलभोज था। वे सन् 713 में पैदा हुए थे और लगभग 97 साल की उम्र में उनका देहान्त हुआ था। उन्होंने शासक बनने के बाद अपने वंश का नाम ग्रहण नहीं किया बल्कि मेवाड़ वंश के नाम से नया राजवंश चलाया था और चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया ।
इस्लाम की स्थापना के तत्काल बाद अरबी मुस्लिमों ने फारस (ईरान) को जीतने के बाद भारत पर आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिए थे। वे बहुत वर्षों तक पराजित होकर जीते रहे, लेकिन अन्ततः राजा दाहिर के कार्यकाल में सिंध को जीतने में सफल हो गए। उनकी आंधी सिंध से आगे भी भारत को लीलना चाहती थी, किन्तु बप्पा रावल एक सुद्रढ़ दीवार की तरह उनके रास्ते में खड़े हो गए। उन्होंने अजमेर और जैसलमेर जैसे छोटे राज्यों को भी अपने साथ मिला लिया और एक बलशाली शक्ति खड़ी की। उन्होंने अरबों को कई बार हराया और उनको सिंध के पश्चिमी तट तक सीमित रहने के लिए बाध्य कर दिया, जो आजकल बलूचिस्तान के नाम से जाना जाता है।
इतना ही नहीं उन्होंने आगे बढ़कर गजनी पर भी आक्रमण किया और वहां के शासक सलीम को बुरी तरह हराया। उन्होंने गजनी में अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया और तब चित्तौड़ लौटे। चित्तौड़ को अपना केन्द्र बनाकर उन्होंने आसपास के राज्यों को भी जीता और एक दृढ़ साम्राज्य का निर्माण किया। उन्होंने अपने राज्य में गांधार, खुरासान, तूरान और ईरान के हिस्सों को भी शामिल कर लिया था।
बप्पा बहुत ही शक्तिशाली शासक थे। बप्पा का लालन-पालन ब्राह्मण परिवार के सान्निध्य में हुआ। उन्होंने अफगानिस्तान व पाकिस्तान तक अरबों को खदेड़ा था। बप्पा के सैन्य ठिकाने के कारण ही पाकिस्तान के शहर का नाम रावलपिंडी पड़ा।आठवीं सदी में मेवाड़ की स्थापना करने वाले बप्पा भारतीय सीमाओं से बाहर ही विदेशी आक्रमणों का प्रतिकार करना चाहते थे।
हारीतऋषिकाआशीर्वाद –
हारीत ऋषि का आशीर्वाद मिला बप्पा के जन्म के बारे में अद्भुत बातें प्रचलित हैं। बप्पा जिन गायों को चराते थे, उनमें से एक बहुत अधिक दूध देती थी। शाम को गाय जंगल से वापस लौटती थी तो उसके थनों में दूध नहीं रहता था। बप्पा दूध से जुड़े हुए रहस्य को जानने के लिए जंगल में उसके पीछे चल दिए। गाय निर्जन कंदरा में पहुंची और उसने हारीत ऋषि के यहां शिवलिंग अभिषेक के लिए दुग्धधार करने लगी। इसके बाद बप्पा हारीत ऋषि की सेवा में जुट गए। ऋषि के आशीर्वाद से बप्पा मेवाड़ के राजा बने |
रावलकेसंघर्षकीकहानी–
बप्पा रावल सिसोदिया राजवंश के संस्थापक थे जिनमें आगे चल कर महान राजा राणा कुम्भा, राणा सांगा, महाराणा प्रताप हुए। बप्पा रावल बप्पा या बापा वास्तव में व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है, अपितु जिस तरह “बापू” शब्द महात्मा गांधी के लिए रूढ़ हो चुका है, उसी तरह आदरसूचक “बापा” शब्द भी मेवाड़ के एक नृपविशेष के लिए प्रयुक्त होता रहा है। सिसौदिया वंशी राजा कालभोज का ही दूसरा नाम बापा मानने में कुछ ऐतिहासिक असंगति नहीं होती। इसके प्रजासरंक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही संभवत: जनता ने इसे बापा पदवी से विभूषित किया था। महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बापा का समय संवत् 810 (सन् 753) ई. दिया है। एक दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बापा के राज्यत्याग का समय था। यदि बापा का राज्यकाल 30 साल का रखा जाए तो वह सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठा होगा। उससे पहले भी उसके वंश के कुछ प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके थे, किंतु बापा का व्यक्तित्व उन सबसे बढ़कर था। चित्तौड़ का मजबूत दुर्ग उस समय तक मोरी वंश के राजाओं के हाथ में था। परंपरा से यह प्रसिद्ध है कि हारीत ऋषि की कृपा से बापा ने मानमोरी को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया। टॉड को यहीं राजा मानका वि. सं. 770 (सन् 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बापा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है।
चित्तौड़ पर अधिकार करना आसान न था। अनुमान है कि बापा की विशेष प्रसिद्धि अरबों से सफल युद्ध करने के कारण हुई। सन् 712 ई. में मुहम्मद कासिम से सिंधु को जीता। उसके बाद अरबों ने चारों ओर धावे करने शुरु किए। उन्होंने चावड़ों, मौर्यों, सैंधवों, कच्छेल्लों को हराया। मारवाड़, मालवा, मेवाड़, गुजरात आदि सब भूभागों में उनकी सेनाएँ छा गईं। इस भयंकर कालाग्नि से बचाने के लिए ईश्वर ने राजस्थान को कुछ महान व्यक्ति दिए जिनमें विशेष रूप से गुर्जर प्रतिहार सम्राट् नागभट प्रथम और बापा रावल के नाम उल्लेखनीय हैं। नागभट प्रथम ने अरबों को पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया। बापा ने यही कार्य मेवाड़ और उसके आसपास के प्रदेश के लिए किया। मौर्य (मोरी) शायद इसी अरब आक्रमण से जर्जर हो गए हों। बापा ने वह कार्य किया जो मोरी करने में असमर्थ थे और साथ ही चित्तौड़ पर भी अधिकार कर लिया। बापा रावल के मुस्लिम देशों पर विजय की अनेक दंतकथाएँ अरबों की पराजय की इस सच्ची घटना से उत्पन्न हुई होंगी।
बप्पा रावल ने अपने विशेष सिक्के जारी किए थे। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प लेख है। बाईं ओर त्रिशूल है और उसकी दाहिनी तरफ वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिनी ओर नंदी शिवलिंग की ओर मुख किए बैठा है। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत् करते हुए एक पुरुष की आकृति है। पीछे की तरफ सूर्य और छत्र के चिह्न हैं। इन सबके नीचे दाहिनी ओर मुख किए एक गौ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता हुआ बछड़ा है। ये सब चिह्न बपा रावल की शिवभक्ति और उसके जीवन की कुछ घटनाओं से संबद्ध हैं।
On this day, 18 April, The Foundation Day of Udaipur- let us know about our beautiful city of lakes. Udaipur- Then, Now and Further!
Then-
We all know that Maharana Udai Singh II founded Udaipur in 1553 but do you know how? In the 16th century, Maharana Udai Singh II wanted to move his capital from Chittaurgarh due to ongoing attacks of Mughal. One day while hunting in the foothills of the Aravali Range, Udai Singh Ji came upon a monk who blessed him to build a palace at a spot which is now Pichola. He rejected the idea of building it at Ayad as it was the flood-prone area at that time. Further, to protect Udaipur from the enemies he built a six-kilometer-long wall with main gates known as Surajpole, Chandpole, Udiapole, Hathipole, Ambapole, Brahmpole and so on. The area within the wall is still known as the old city. Udaipur remained safe afterward as it was a mountainous region and it was difficult for the Mughals to carry their heavy weapons and horses up there.
Our ancestors put in great mind in the making of Udaipur. The majestic beauty and safety of the city were all in their brains back then. There’s a reason why there are so many man-made lakes in Udaipur. In ancient times, people of Udaipur had no source of water apart from rainwater. To solve this problem man-made lakes were formed which made a lake system with seven lakes. All these lakes were interconnected to each other so that in case of heavy rainfall, the water can travel further and doesn’t drown the city. The lake system comprises of Lakes Pichola, Rang Sagar, Swaroop Sagar, Fateh Sagar, Badi, Madar and Udai Sagar. All the lakes of Udaipur form a chain in the saucer-shaped Udaipur valley.
Timeline of Udaipur
1553 – Founded by Udai Singh II and Ruled by Sisodia clan of Rajput for next 265 years.
1678 – Fateh Sagar Lake built by Maharana Jai Singh which was improvised later by Maharana Fateh Singh.
1818 – Became the British princely states under British rule.
1884 – Ruled by 73rd Rana when Udaipur saw major development with railway, college, schools, hospitals, and dispensaries all established.
1947 – After independence, the Maharaja of Udaipur granted the place to the government of India. Mewar was merged into the state of Rajasthan.
Now –
After Independence, Udaipur is constantly developing and now has become the dream destination of every tourist in the world. Udaipur, also known as ‘The City of Lakes’ or ‘Kashmir of Rajasthan’ is the romance fantasy for all the couples out there. The city has also been excelling in its massive historic forts and palaces, museums, galleries, natural locations and gardens, architectural temples, as well as traditional fairs, festivals, and structures.
And further
After the smart city mission launched by Prime Minister Narendra Modi on 25 June 2015, there has been latest changes and developments that all the Udaipurites can see:
New public parking constructed at various places like townhall, Nagar Nigam parking near Gulab Bagh, etc.
Many tourist spots have been renovated lately. If you have noticed Fatehsagar has been renovated completely in last few years.
Place similar to Fatehsagar is been constructed around Daiji footbridge near gangaur ghat where you can enjoy your evenings by simply walking and pleasuring your eyes with the amazing view.
Udaipur is also developing itself with the comforting hospitality that it provides. The city is filled with all kind of hotels and places where a tourist can find peace and enjoy his journey.
Now that you know all about Udaipur, go and please your body and soul in the charm of the city.
Chetak is the most famous horse in the history of Mewar. The bravery and resilience of this stallion is sung in ballads and written in manuscripts. In Udaipur, Chetak’s statue is erected at Moti Magri and Chetak Circle. Texts define Chetak as a horse that was truly devoted to its master and was brave enough to save his master from the enemies. The folklores define Chetak as a brave and obedient animal who fought for his rider till its last breath. Maharana Pratap’s Chetak is undoubtedly an epitome of love and valor for his master. Let us read why Chetak is celebrated so much.
In 1553, after the defeat, Maharana Udai Singh shifted his capital from Chittorgarh to Udaipur as directed by a hermit. A couple of years later his son Maharana Pratap took the reign of Mewar and for the next 25 years, ruled with bravery, devotion, and fortitude. Chetak was his chosen horse, he loved the creature and it resonated the love quite well.
The history of the horses of Rajasthan
Almost a thousand years ago, the Rathore clan moved into Maru Pradesh (now Marwar). The three major breeds of horses popular in Western India at that time were Marwari, Sindhi, and Kathiyawadi.
Rathore clan found the Marwari horses. The beauty, mettle, and intelligence of the horses amazed the new early settlers; they started the business of breeding them.
Chetak was one Marwari horse and proved to be a Brave one.
Chetak and his master Maharana Pratap
In 1576 the army of Mughal Emperor Akbar started its way to capture Udaipur. Maharana Pratap and his men waited at the entry to a narrow one-kilometer long pass in the Aravali Ranges. This pass was Haldighati and was the only access to Mewar for the proceeding Mughal army. A bloody battle between the two armies was fought and lasted up to four hours.
People remember not the overthrow of Maharana Pratap but the courage and loyalty of his men and his horse Chetak.
In between the course of the battle, an elephant’s tusk tore through one of Chetak’s rear legs and crippled or immobilized it. Even after being hurt the horse did not give up and with his king on the saddle, Chetak made his way back to safety on his three legs.
The brave horse collapsed in the end. There is a pictorial depiction of the Maharana lamenting the death of his beloved horse.
Chetak was a great friend of Maharana Pratap at the time of war with Akbar in Haldighati. It had kept its life in danger and protected his master by jumping from 25 feet deep trough.
It is also said that as he was a very aggressive horse, only Maharana Pratap was able to tame it. It is believed that the horse itself chose his master.
Today, there is a temple of Chetak in Haldighati.
Why was Chetak different?
As earlier mentioned, the three major breeds of horses popular in Western India in Rana Pratap’s times were Marwari, Sindhi, and Kathiawadi.
Chetak belonged to the Marwari breed. True to the physiognomies of its class, it had a lean body as that of a desert bred horse. It had a high forehead with a long face and luminously sparkling eyes.
As he had curved and curled ears and it is said that when its ears pointed forward, the top of the ears met together presenting an elegant look.
It is said that only Maharana Pratap could control it. Chetak exhibited the highest degree of loyalty and submissiveness towards the Maharana. According to the folklore sung in the Mewar region, it is said that Chetak’s coat had a certain blue color. Perhaps, that is the reason why Maharana Pratap is often mentioned as the ‘Rider of The Blue Horse’.
Who were Natak and Atak?
Pushpendra Singh Ranawat (geo-heritage dept.) says that Chetak had fellow horses or brother too. The names of the fellow horses were Natak & Atak and were well-trained for wars. They were stallions. Atak was put on trial for hilly & river-let terrain during which it got a foot injury.
Maharana Pratap bought all three; Natak was given to his younger brother Shakti Singh and Chetak was kept for the Maharana. The last horse Atak was sent to the animal care center after the injury.
Interesting things about Chetak
One legend say that Chetak was known as “Neela Ghoda” or blue horse because it had sparkling blue eyes. One more legend says that Chetak’s coat had a certain blue shade and hence it was known as the Blue Horse
Maharana Pratap put an armor on him in the shape of an elephant’s trunk to provide him protection and make a disguise as an elephant for the marching army
One folklore suggests that Chetak was small in size measuring somewhere between 14.2 to 15.2 hands height
Chetak had appealingly curved and curled ears
Chetak had a peacock shaped neck and was described as Mayura Greeva (peacock neck) in folklore
Chetak was aggressive, arrogant and difficult to control
Chetak’s full description is given in the poem “Chetak Ki Veerta” written by Shyam Pandey
Lake City is a big tourist destination for several reasons. Not many other places have so many attractions for tourists, Indian or foreign. Its scenic beauty with several big and small water bodies in all around the city such as Pichola, Rang Sagar, Swarup Sagar, Fateh Sagar, Badi, Udaisagar, Rajsamand and Jaisamand and hills covered with greenery is a sight to behold. The sanctuaries like Sajjangarh, Kumbhalgarh, Sita Mata and Jaisamand and Sajjangarh Biopark and Baghdera Nature Park and the newly developed Biodiversity Park have a lot to offer to wildlife lovers. In addition to these in several lakes, especially those near Menar, in the region can be sited a huge number of birds of various species. Those interested in history have several places to visit Haldighati, Sajjangarh and Kumbhalgarh Forts. Pilgrims have a lot of places of interest like Eklingnathji, Shrinathji, Dwarkesh Mandir and Jagdish Mandir to watch intricate architecture. One has palaces and haveli’s to visit.
ANCIENT RELICS FOUND
However, there are several places that are wonderful sites of geological interest and reveal our heritage that is centuries old. Recent researches done by geologists in Badgaon near Udaipur have shown that life existed there even 206 Crore years ago. Nanofossils have been found in this village. The findings of studies done by geo-scientists of Punjab in Rajasthan have revealed rocks in Rajasthan that are 370 Crore years old. These findings have been accepted at international levels. Studies of rocks in Udaipur and Gogunda region that are believed to be 330 to 140 Crore years old have also been undertaken. Surveys have been conducted by archeology dept. Of Sahitya Sansthan, Rajasthan Vidyapeeth in Girwa tehsil on the edge of Ahad, Banas, Berach basin and passing through Gadwa, Changedi, Sihada, Bichdi, and Udaisagar. Relics of habitation of the historical and medieval period have been found near Daroli and Mandesar. Near Bichdi Basti rock inscription have also been found. Study of 330 Crore years old rocks of Aravali range in Kherwara region has been undertaken. Facts about the origin of oxygen on earth have also been revealed in a study of German University. At one time, there was sea where there are mountains today.
UNIQUE GEOLOGICAL SITES DISCOVERED
According to Dr. Pushpendra Singh Ranawat, Co-convenor Geo-Heritage Group INTACH Udaipur Chapter, Geological Survey of India (GSI) DECLARED 26 UNIQUE GEOLOGICALSITES ACROSS India in 2001. Subsequently, a few more added to this list. Two fossil parks namely Fossil World Park of AkalJaisalmer Dist. and Stromatolite Park of Bhojunda, Chittorgarh Dist. are there on this list. Two rock monuments of Rajasthan viz Nepheline Syenite, Kishangarh, Ajmer Dist. and Barr Conglomerate, Barr, Pali Dist. also find a place here. Sendra Granite, Pali Dist. is another geological marvel from Rajasthan. As also Gossan of Rajpura-Daribo in Rajsamand Dist.
Each monument has specialization of its own. Located about 18 km south-east from the desert city of Jaisalmer on National Highway 15 to Barmer, Akal Wood Fossil Park has the rare exposure of 180-million-year-old rock that has fossilized tree trunks lying scattered in an area of 21 Hc in the company of invertebrate life remains. A visit to Barr Conglomerate, Pali District located in the vicinity of village Barr on Beawar-Pali section of NH14, leaves one wondering hour a hard-brittle rock piece can be flattened and elongated like plastic clay without it being fractured or fragmented. In Sendra Granite NGM wind and water have become acidic by fluctuations in temperatures, acting over millions of years, have sculpted rocks into marvelous shapes that have fascinated human beings for ages. Here a visitor can watch fancy forms some of which have a strange resemblance to human beings.
At Bichardi, in Pali district, there exists a geothermal well that is rare and unique in Rajasthan. It is a hot water spewing well that has +58-degree centigrade temperature. It has a water table at depth of 30m. The water is pumped out, cooled and then used for irrigation. In the Stromatolite Park, Bhojunda, in Chittorgarh district can be seen stromatolites that are biochemical accumulations which grow through the work of blue-green algae and bacteria in the shallow marine environment. They may produce a variety of structures Another Stromatolite has been discovered in still order Aravali rocks and that too in an economically significant rock phosphate makes to Stromatolic Park, Thamarkota in Udaipur district an undisputed King of National Geological Monuments of India.
ZAWAR SHOWED THE WAY TO INDUSTRIAL REVOLUTION
Nearer home, the over 2500-year-old Zawar Zinc-Lead Mining Industry is located in a rugged area about 40 km south of Udaipur approached by NH8 to Ahmedabad up to Titdi village, and then a bifurcation to the left least leads one to Zawar village. Zawar is also a railway station on Udaipur-Himmatnagar railway line. The importance of this geo-park that is defined as a unified area with geological heritage of international significance, can be judged from its recognition as an International Historic Landmark as early as in 1988. The plaque of American Society of Metals at Zawar reads: “At this site are preserved the zinc retort furnaces and remnants of related operation. The village artifacts together with temple ruins at least to the success of this metallurgical technology. This operation first supplied the Zinc for making a brass instrument in Europe, a forerunner of Industrial Revolution”. According to Dr. Ranawat Archeological study by the British Museum, London, MS University, Baroda and Hindustan Zinc Ltd. In 1983 proved that at Zawar metallic zinc was produced by distillation process for the first time in the world.
For as a metal zinc has a relatively low melting point (about 420-degree centigrade) and low alcoholic drink. Carbon dating of time of timber used as support in underground mines and common use of brass in Ayad and other archeology sites of Mewar prove that the area witnessed mineral utilization fairly early in human history. Its recorded and historically impactful use continued at regular but slow pace essentially because mining was done by chiseling as explosives and mechanization were not known them. Five-setting and quenching could have been used in open cast pits or shallow well-ventilated underground mines, but it is highly unlikely that it was used at wet deeper levels that had poor ventilation and damp oxygen-poor ambient condition.
ZAWAR UNIQUE TECHNOLOGY
In the opinion of the eminent historian of Mewar, Dr. Shrikrishna ‘Jugnu’, Zawar is known not only for its huge supply of iron, zinc etc but also the processes employed that included hilltop wells the digging of which started at the top and metal mixed ore was thrown out. In this process, there was no danger of flooding. In case of the collapse of sand, wooden planks were used. The technique of Shilabhedan as first described in Brahatsanhita and later on by Chakrapan Mishra, a contemporary of Maharana Pratap was used. In this, processes of breaking the rocks that obstructed mining were explained. One of the ways to break the rocks was to burn the wood of ‘dhak’ and ‘teemru’ wood on them and then sprinkle lime water on them. The ashes of the ‘shar’ tree. The mixture was sprinkled seven times on the rock to break it. Keeping a mixture of ‘Chhaj’, ‘Kanji’, ‘Sura’ and ‘Kulathi’ in a vessel for seven days turned it into a chemical. To break the orck, it was sprinkled on the rock 2-4 times. Neem tree leaves and bark, ‘timru’ fruit, ‘giloya’ etc were mixed with ‘gaumutra’ sprinklings of this mixture six times made the rock break into pieces.
It is believed that in 430 B.C metals were extracted in Zawar. Rocks were broken with ‘Chhaini’, hammer etc. and then melted in the furnace of the special type were made with sand in such a way that they were not affected by the three kinds of flames and the optimum temperature was maintained. Possibly pieces of Khejri wood that has the quality of burning for a long time were used to heat the furnaces. Researches by dozens of geologists from different countries like Britain have shown that in smelling round shaped sand pots were used. When not used for this purpose they were used in building houses. Now they have been displayed in a museum built by RSMM and Hindustan Zinc Ltd.
Promotion of geo-tourism through publications, internet, seminars etc with the active participation of tourism and mining depts. NGO’s like INTACH, and chapters of Rotary and Lion Clubs etc.
Vibrant, vigorous and graceful! Folk dances of Rajasthan performed gracefully by the colorful crowd punctuate Rajasthan’s barrenness, turning even the deserts into fertile basin of limitless colors and variations of the amazing folks living here. One of these rich festivals is GAVARI, which is a distinct art form found in the cultural heritage of the Bhils who express the devotion and faith to Lord Shiva and his wife Parvati through Folk Dance, Music and Folklores. It also symbolizes human love for forests, animals and people. Quite unique and impressive, isn’t it?
Rajasthan encompasses numerous tribes having distinct identities in term of costumes, dialects, beliefs and arts. People have nurtured a splendid tradition of folk songs and folk dances of which Gavari is unique in itself which is celebrated by Bhils. The Bhils are the original inhabitants and tribal of Mewar- Vagad area of southern Rajasthan which was gradually conquered and inhabited by Rajput kings and other northern settlers around 3rd to 4th century BC.
After the monsoons, in the months of September and October the forty-days-festival “GAVARI” is celebrated by Bhil tribe in Udaipur, Rajsamand and Chittor districts of Rajasthan. Whole male folk, even children participate in this dance-drama symbolizing a healthy environment and it intends to ensure the well-being to the community and the village. While only Bhils perform them, other castes attends the performances and offer donations. During this period, people do not eat any green vegetables, stay away from alcohol and avoid being non-vegetarian. They sleep on grounds and avoid taking bath (except on Dev-Jhulani Ekadasi).
Gavri Mewar – via: gavari.wordpress.com
There is no definite origin of gavari. Some beliefs say the story of demon Bhasmasur who worshiped Lord Shiva, who pleased with bhashmasur’s devotion, granted him a strange wish that whenever he keeps his hand on anyone’s heads that person will die burning in fire. Thereafter, Bhasmasur started misusing the grant by killing innocent people on earth. Lord Vishnu to resolve the problem transformed himself into a beautiful woman named Mohini – the dancer and went to Bhasmasur. Bhasmasur fascinated by her beauty started imitating her dance and kept his hand on his head to copy mohini, thereby departed his life.
Bhasmasur’s soul asked forgiveness from lord Shiva and appealed Lord to keep him alive in minds of people in return of his great devotion. Lord Shiva thereafter declared that, for paying homage to a great devotee like Bhasmasur, Gavri will be celebrated every year. Since then this fest is organized in the region of Mewar by the Bhil Community.
According to another belief, Lord Shiva had been ruler of Mewarever since times unknown. Eklingji, a place about 17 km. away from Udaipur, was believed to be his holy abode. Once, Goddess Parvati, his spouse, had gone to visit her father’s home for a long period of a month and a quarter. Deeply in love with his wife, the long separation ran Shiva into deep melancholic mood. To amuse him, the devoteesGanas(who wereBhils) devised an entertainment program made up of dancing, singing and theatrical activities. The event eventually became ritualistic and took form of Gavari, which is now an integral part of socio-cultural and religious life of the Bhils.
In this folk play there are four kinds of characters – dev, humans, demons and animals. The RAI and BURIYA are the two main mythological characters to form the GAVARI, Bhil ritual performance. In GAVARI dance-drama group, there are two RAIs in form of PARVATI (GORJA) and MOHINI goddesses in female costumes who always stays or sits in the centre of the performing circle. The BHURIYA as Bhashmasur – keeps a wooden mask of black surrounding bull tail hair on his face and carrying a wooden stick or “Chhari“, always walks in opposite direction to other performers. The other priests as Bhairon and goddess Mata, stays with RAI as a guard to her.
Mostly in the day time they perform GAVARI in the village where they enact different mythological and social episodes with MADAL and THALI as their main musical instruments. People go from village to village, especially to the villages where their daughters and sisters reside after getting married.
Any open space can serve as a stage. For five to six hours each day; the troupe performs a series of episodes. On two occasions the festivity lasts all night. Like many Indian rituals, these scenes blend secular, folk, and Hindu epic characters with references to local daily life. Despite some comic scenes, the Gavari ritual is generally solemn, ending with the appearance of gods and goddess, and often including trance among both performers and audience.
In Gavari, the last day of performance, rituals the Bhil Gavari players also dance and perform in the night as night awakening rituals. With other legends, they also perform the “Hiraniya Bhoot” or ghost performance in which two artists plays the role of ghost in which they covered the body with the grass.
Gavari is played so skillfully by these tribal people that it produces the impact of an eye catching scene, the magical effect of which makes the viewers stop and stay on to watch it and get engaged until the episode reaches its end. Gavari, not only holds its audience spellbound for whole day long, but also refreshes and energizes performers as well. Gavari is thus a valuable cultural inheritance bestowed by the tribal from one generation to the other and from one century to the following one.
Yesterday was the day of immense pride and honor for the people of Mewar as we all celebrated 472nd birth anniversary of its greatest ruler, Maharana Pratap. Though respect for him never diminishes in any heart, it seems like the birth anniversary gave an occasion to show their respect for this son of Maharana Udai Singh.
Udaipur was no behind in showing their pride and gratitude towards Pratap and his beloved horse, Chetak. City Council and Kshatriya Mewar Mahasabha organized a rally that started from Moti Magri and ended at Town Hall passing through Chetak Circle, Hathipole, Moti Chohatta, Clock tower, Sindhi Bazar, Soorajpole, Bapu Bazar and Delhi Gate; the bands playing regional Mewari songs of Maharana Pratap and bravery giving Goosebumps to everyone the way.
The Guest of Honor was Mr. Narendra Modi, CM of Gujrat, who along with the royal prince, Lakshyaraj Singh Mewar started the rally by offering flowers in the feet of Maharana Pratap’s statue at Moti Magri. This was followed by the worship of Chetak at Chetak Circle. The shine of rally was increased by the esteemed presence of Mrs. Rajni Dangi, Mr. Mahendra Singh Shaktawat, Prem Singh Shaktawat and many others.
School kids on their skates were moving first followed in sequence by horse and camel riders holding Saffron flags, members of Mahadev Sena, Mewar Kshatriya Mahasabha and Shooldharini Sena. Jawans of Mewar Sindhu Brigade gracefully played the role of soldiers as they walked holding guns. In the last was the statue of Maharana Pratap and Eklingnath Ji placed in an open jeep. Even the statue of Pratap shined so brightly with bravery and self-esteem that every head bowed out of reflex in front of it.
The rally ended with a programme at Town Hall where Narendra Modi addressed the gathering, expressing his respect for Maharana Pratap and his values and commenting on the state of political parties and the corrupt leaders. He also expressed his pride on Rajasthan – Gujarat relationships and on the progress of Gujarat.
The detailed glimpse of the event can be seen here in the pictures, shot by Mujtaba RG