हम सभी के जीवन में गुरु का बहुत विशेष महत्व होता है। हमारी भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान से भी ऊँचा दर्जा दिया गया है। एक गुरु का जीवन में होना बहुत मायने रखता है क्योंकि एक गुरु ही है जो शिष्यों को अंधकार से निकालकर प्रकाश की और ले जाता है, सही गलत का अर्थ समझाता है, जीवन में सही दिशा की और अग्रसर करता है। गुरु के ज्ञान और संस्कार की वजह से ही एक शिष्य का जीवन सफल होता है और वह ज्ञानी बनता है। गुरु किसी भी मंदबुद्धि शिष्य को ज्ञानी बना देते है।
गुरु की महत्वता को देखते हुए ही पुराने ग्रंथों व किताबों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उपाधि दी गई है।
हर व्यक्ति को जीवन में ज्ञान की बहुत आवश्यकता होती है तभी वह अपने जीवन में उन्नति के मार्ग पर चल पाता है। एक विद्यार्थी तभी चमक सकता है, जब उसे सही शिक्षक का प्रकाश मिलता है। एक व्यक्ति सभ्य और संस्कारवान सिर्फ उसके गुरु की वजह से ही बनता है। एक सभ्य और शिक्षित समाज के निर्माण में यदि सर्वाधिक योगदान किसी का होता है तो वे हमारे गुरु का होता है।
महाभारत के रचयिता एवं आदि गुरु वेद व्यास जी की जयंती को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता हैं। आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का यह त्यौहार मनाया जाता है। प्राचीनकाल से ही गुरु और शिष्य की जोड़ी चली आ रही है। इतिहास में भी हमें कई सारे गुरुओं का उल्लेख मिलता है – महाभारत काव्य में शिष्य अर्जुन, एकलव्य, कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य का उल्लेख है। कर्ण के गुरु परशुराम जी थे। चन्द्रगुप्त के गुरु चाणक्य थे। ऐसे ही हमें कई सारे गुरु शिष्य की जोड़ी की कई सारी कहानियों के बखान मिल जाएंगे।
क्या आप जानते है ऐसी ही गुरु शिष्य की एक अनोखी जोड़ी जो हमारे मेवाड़ के इतिहास जगत में भी है। विश्व प्रसिद्ध “महर्षि हरित राशि” और “बप्पा रावल” की जोड़ी । हरित राशि, बप्पा रावल के गुरु थे। हरित राशि एकलिंगनाथ जी के बहुत बड़े भक्त थे और बप्पा रावल जिन्हे “कालभोज” के नाम से भी जाना जाता है।
बप्पा रावल वल्लभीपुर से आए थे, जो अब भारत के गुजरात राज्य में है। वह उदयपुर से 20 किलोमीटर दूर कैलाशपुरी गांव के पास महर्षि हरित राशि के आश्रम के छात्रों में से एक थे। अपनी मृत्यु से पहले, हरित राशी ने अपने सभी शिष्यों में से बप्पा रावल को “दीवान” के रूप में चुना और श्री एकलिंगजी नाथ की पूजा और प्रशासन के अधिकार की जिम्मेदारी सौंप दी। उदयपुर के उत्तर में कैलाशपुरी में स्थित इस मन्दिर का निर्माण 734 ई. में बप्पा रावल ने ही करवाया। इसके निकट हरीत ऋषि का आश्रम भी है।
बप्पा रावल पूर्ण रूप से से अपने गुरु के प्रति समर्पित थे। हरित राशि ने अपने पसंदीदा छात्र को मेवाड़ राज्य प्रदान किया और अपने राज्य के शासन के दिशा-निर्देश और मुख्य नियम तैयार करके दिए। इसके बाद बप्पा रावल 8वीं शताब्दी की शुरुआत में मेवाड़ के संस्थापक बने।
आज “महर्षि हरित राशि पुरस्कार” एक राज्य पुरस्कार है। वैदिक संस्कृति, प्राचीन ‘शास्त्र’ और ‘कर्मकांड’ के माध्यम से समाज को जगाने में स्थायी मूल्य के कार्य करने वाले विद्वानों को सम्मानित करने के लिए इस पुरस्कार की स्थापना की गई है।
हमारी यहां गुरु सम्मान की परम्परा हजारो सालों से चलती हुई आई है औरआज तक जीवित हैं। हमें हमारे जीवन में गुरु की महिमा को समझना चाहिए उनका आदर सत्कार करना चाहिए। एक गुरु ही है जो हमारे जीवन को बदल सकता है सत्य की राह दिखा सकता है। गुरु पूर्णिमा का पर्व एक इसी तरह का अवसर हैं जब हम गुरु दक्षिण देकर अपने प्रिय गुरु के प्रति श्रद्धा भाव प्रकट कर सके।