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उदयपुर के 4 महत्वपूर्ण गणेश मंदिर

हिन्दू धर्म में किसी भी काम को शुरू करने से पहले गणेश जी को ज़रूर याद किया जाता है। उदयपुर में यूँ तो गणेश जी के बहुत मंदिर है पर आज हम आपके सामने लाए है उदयपुर की इन चार चौकड़ी को, जिनके दर पर हर कोई अपना मत्था टेकना चाहता है। ये चारो है तो एक ही पर नाम अलग-अलग है।

आप में से कई लोग यहाँ जा चुके होंगे लेकिन जो नहीं गए है उन्हें एक बार ज़रूर जाना चाहिए :

  • पाला गणेश जी गुलाब बाग

    PalaGaneshUdaipur

इसे उदयपुर के सबसे पुराने गणेश टेम्पल्स में से एक बताते है। ये तक़रीबन 500 साल पुराना है। इस टेम्पल के बनने के पीछे एक कहानी है जो लाखा बंजारे से जुड़ी हुई है। आज से 500 साल पहले लाखा बंजारा इस जगह से गुज़र रहा था तो उसने कुछ देर विश्राम लेने की सोची। वहाँ उसने आसपास पड़े जानवरों के घोबर से गणेश जी की मूर्ति बना डाली। रात में जब ये लोग सो रहे थे तब सीसारमा नदी में तेज़ पानी आया और आसपास बंधे जानवर और गणेश जी की मूर्ति को बहा ले गया। इस बात से लाखा बंजारा बहुत दुखी हुआ और उसने महाराणा से गणेश मंदिर बनवाने की अरज़ कर डाली। इस वजह से इस टेम्पल को पाला गणेश जी बोला जाता है। यहाँ हर साल गणेश चतुर्थी पर बहुत बड़ा आयोजन होता है।

 

  • जाड़ा गणेश जी jada-ganesh ji

इस मंदिर को आज से 250 साल पहले एक पंडित परिवार ने बनाया। लोगो की श्रद्धा इस मंदिर से इतनी अपार है कि वो मानते है भगवान् इस मूर्ति में निवास करते है। वो ये भी कहते है कि इस मंदिर के आसपास का क्षेत्र इतना पवित्र है कि कोई भी बुरी शक्ति यहाँ आ ही नहीं सकती। ऐसा बताया जाता है इस मंदिर में लगी गणेश प्रतिमा सज्जनगढ़ किले के पत्थर से बनी है। यहाँ आज के दिन लोग गणेश प्रतिमा के साथ आमंत्रित होते है। इस मंदिर की पॉपुलैरिटी इतनी है, सुबह के 4 बजे से ही लाइन लगनी शुरू हो जाती है और रात के 12 बजह तक मंदिर के गेट खुले रखे जाते है ताकि सभी को दर्शन का मौका मिले। आपको यहाँ जाने के लिए चांदपोल की ओर से जाना होगा।

 

  • बोहरा गणेश जी Bohra-Ganesh-Ji-Medium

बोहरा गणेश जी का मंदिर लगभग 350 साल से भी ज्यादा पुराना है। इस मंदिर की अहमियत वैसी ही है जैसी मोती डूंगरी की जयपुर में है। यहाँ हर सप्ताह हज़ारों की संख्या में लोग दर्शन करने आते है और गणेश चतुर्थी पर ये नंबर्स दुगुने हो जाते है। इस दिन 2-2.5 लाख लोग दर्शन के लिए आते है। यहाँ गणेश जी को छप्पन भोग लगाया जाता है। इस मंदिर को पहले ‘बोरगनेश जी’ बुलाते थे। मंदिर की पॉपुलैरिटी की वजह से ये पूरा इलाका अब बोहरा गणेश जी के नाम से जाना जाता है। इनका बोहरा इसलिए पड़ा क्यूंकि आज से 70-80 साल पहले जिस किसी को भी शादी-ब्याह, बिसनेस के लिए रुपयों की ज़रूरत पडती थी वो यहाँ आकर एक कागज़ पर लिख के चला जाता था, और उसे मंदिर रुपये दे देता था। पर एक शर्त पर उसे ये रुपये ब्याज के साथ लौटने होते थे। ये काम तब के जमाने में बोहरा लोग बहुत करते थे। इसलिए इनका नाम बोहरा गणेश जी गया।

 

  • दुधिया गणेश जी – dudhiya-g-558x640

दुधिया गणेश जी के मंदिर का निर्माण महाराणा सज्जन सिंह जी ने करवाया। इस मंदिर में रखी मूर्ति सज्जनगढ़ के नीव पड़ने से पहले स्थापित कर दी थी। हर गणेश चतुर्थी पर महाराणा और उनका परिवार वहाँ जाता था और पुरे शहर के लोगो के साथ गणेश चतुर्थी मानत था। इस मौके पर मंदिर को हज़ार दीयों के साथ सजाया जाता था और पुरे शहर में नुक्ती (मिठाई) बांटी जाती थी।

तो ये थे उदयपुर शहर में ही मौजूद चार महत्वपूर्ण गणेश मंदिर। अगर आप भी कोई गणेश मंदिर जानते है और उसके बारे में हमें बताना चाहते है तो हमें कमेंट बॉक्स में लिख भेजिए।

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उदयपुर के पाँच मशहूर चायवाले, जिनके यहाँ की चाय ज़रूर पीनी चाहिए।

चाय किसे नहीं पसंद होती है? और जिसे नहीं होती उसे अक्सर दुसरे ग्रह से आया हुआ माना जाता है(मज़ाक के तौर पर ही सही पर माना तो जाता है)। सुबह की शुरुआत से लेकर शाम के सूर्यास्त तक हर सुख-दुःख में करीबियों से पहले चाय को याद किया जाता है। ‘चाय पर चर्चा’ का एक ट्रेंड सा बना हुआ है और अब तो सर्दिया भी आ गई है। गर्मियों में तक चाय से पीछा नहीं छुड़ा सकते तो सर्दियों में तो सोचना भी गुनाह है। इन सर्दियों में आप ख़ूब चाय पिए और अच्छी जगह की चाय पिए इसलिए हम यहाँ आपको बताने जा रहे है उदयपुर की पाँच वो जगह जहाँ की चाय आप लोगो को पीनी ही चाहिए…

पंडित जी की लेमन टी:

Pandit Ji lemon Tea

ये ऑरेंज टी-शर्ट में प्रेम-पूरी गोस्वामी है, उदयपुर में लेमन-टी की क्रांति लाने वाले यही है। वैसे तो इन्हें 20 सालों का अनुभव है लेकिन पिछले 5-6 सालों में इन्होने लेमन-टी बनाना शुरू किया। पहले जहाँ दिन का 20-25 लीटर दूध रोज़ का आता था वहीँ आज सिर्फ 5-7 लीटर में ही काम चल जाता है। आलम ये है कि लोग यहाँ की लेमन टी पीने के लिए 100 किलोमीटर दूर से आ जाते है और अच्छी बात ये है कि इस चाय का नुकसान कुछ भी नहीं है बल्कि ढेर सारे फ़ायदे है सो अलग।saheli1 यहीं पर बैठे एक रेगुलर ग्राहक बताते है कि लेमन टी का जो टेस्ट पंडित जी की बनाई चाय में आता है वो उनके यहाँ सालों से काम कर रहे सहायक की बनाई चाय में भी देखने को नहीं मिलता फिर उन्ही के देखा-देखि लेमन टी बनाने वालों की तो बात ही दूर है। इसलिए अक्सर पंडित जी ही आपको लेमन टी बनाते हुए मिल जाएँगे। एक और ख़ास बात जो पंडित जी को बाकि लोगो से अलग बनाती है वो ये है कि उदयपुर घुमने आए टूरिस्ट्स के अगर 5 साल से छोटा बच्चा अगर दूध पीना चाहता है तो उन्हें फ्री में दूध पिलाया जाता है। पंडित जी हल्दीघाटी से है और मानते है कि उनकी सफलता के पीछे हल्दीघाटी का बहुत बड़ा योगदान है। इनका फेसबुक पेज भी बना हुआ है प्रेम हल्दीघाटी नाम से। पंडित जी बताते है यहाँ पड़ने वाली भीड़ का मुख्य कारण व्यवहार है।

कैसे पहुँचे : सहेलियों के बाड़ी के बिल्कुल सामने जा रही रोड पर पंडित जी की लेमन टी मिल जाएंगे।

कमलेश टी स्टाल :

kamlesh tea stall

दावे के साथ कहा जा सकता है कि उदयपुर में अगर सबसे फेमस लोगो की लिस्ट बनाई जाए तो इनका नाम उस लिस्ट में ज़रूर आएगा। इन्हें न सिर्फ़ उदयपुर जानता है बल्कि फतेहसागर घुमने आया हर शख्स इन्हें जानता ही होगा। एक न एक बार तो ज़रूर इनके यहाँ के ब्रेड पकोड़े और चाय ट्राई की ही होगी।इनका परिवार एकलिंग के पास एक गाँव से 1990 में आया था, अब ये देवाली में रहते है। 1992 में पहली बार कमलेश जी के पिताजी ने यहाँ चाय बनाना शुरू किया, पिछले 14-15 सालों से कमलेश जी इस जगह को संभाल रहे है। कमलेश जी भी मानते है कि व्यवहार और साफ़-सफाई किसी को भी आकर्षित करने का सबसे बड़ा ज़रिया है।

kamlesh tea stall

अभी यहाँ पर कमलेश जी के आलावा उनके भाई भी इनकी मदद करते है, पूरी फॅमिली इसी में लगी हुई है। ये बताते है कि आगे का कुछ नहीं सोचा है जो चल रहा है उसी को अच्छे से करने पर जोर देते है। यहाँ की चाय तो फेमस है ही पर जब साथ में कमलेश जी गरम-गरम ब्रेड पकोड़े देते है तो मज़ा दुगुना हो जाता है।

कैसे पहुँचे : फतेहसागर पर हर कोई इन्हें जनता है।

काका रेस्टोरेंट :

kaka restaurant

इन पाँचों जगहों की बात की जाए तो सबसे पहले ‘काका’ ने ही चाय पिलाना शुरू किया था। करीब 70 के दशक में पहली बार इन्होने इंडियन आयल डिपो के सामने एक छोटा सा ठेला आनंद नाम से खोला, तब यहाँ घना जंगल हुआ करता था और मजदुर वर्ग के लिए एक मात्र चाय की दूकान यही हुआ करती थी। आज इनकी तीसरी पीढ़ी ये बिजनेस संभाल रही है। आज ‘काका’ के पोते जोनी चावला और उनके बड़े भाई ‘काका रेस्टोरेंट’ संभाल रहे है। जोनी चावला ने अपने दादा जी का शुरू किया ये बिजनेस सँभालने के लिए दसवीं में ही पढाई छोड़ दी और फैमिली बिज़नेस में लग गए। भविष्य में वो रेस्टोरेंट के ऊपर होटल खोलना चाहते है जो कम कीमत में ज्यादा सुविधाएं देती हो। जोनी बताते है कि यहाँ दिन के करीब 5000 लोग चाय पीने आते है। आप इसी से अंदाजा लगा सकते है कि ‘काका’ रेस्टोरेंट उदयपुर में कितना फेमस है।

कैसे पहुँचे : सेक्टर 11 मेन रोड

विनायक चायवाला (पुदीना चाय) :

vinayak chai wala

अच्छी खासी मार्केटिंग जॉब छोड़कर एक चाय का ठेला लगाना हर किसी के बस की बात नहीं है। लेकिन इन्होने कर दिखाया और आज शहर के लोग भी इन्हें जानने लग गए है। पुदीने की चाय पीनी हो तो विनायक के यहीं जाओ। लेकिन ये सब इतना आसान नहीं था, शुरू करने से पहले उन्हें 2 महीने खाली बैठना पड़ा। लेकिन अगर मन की जाए तो सब कुछ अच्छा ही होता है। आज शहर में ही इनके 2 आउटलेट है। पुदीना चाय

इन्हें पुदीने चाय का आईडिया नाथद्वारा अपने ससुराल से आया और सोचा इसे उदयपुर में भी लाना चाहिए। पिछले 5-6 साल से इसी में लगे हुए है। पुदीने चाय के आलावा ये ग्रीन चिल्ली चाय, चॉकलेट चाय के साथ 5 वैरायटी की चाय भी रखते है। सन्डे को बंद रखते है इसके पीछे वो बताते है कि ख़ुद का बिजनेस इसीलिए खोला ताकि घर वालो को भी टाइम दे सकूँ। बाकि दिनों में आप सुबह 8 बजे से शाम 7 बजे के बीच यहाँ जाकर पुदीने चाय का आनंद ले सकते है।

कैसे पहुँचे : rmv स्कूल गेट नंबर 2 पर इनका आउटलेट मिल जाएगा।

चायफेटेरिया : thesocialtapari

शुभ और विनिश ने 3 साल पहले इसकी शुरुआत की। शुभ पहले होटल इंडस्ट्री से जुड़े हुए थे वहीँ विनिश ट्रेवलिंग और रेसलिंग से जुड़े हुए थे। विनिश तो कॉलेज ड्रॉपआउट भी है। वहीँ शुभ को पोएट्री और राइटिंग का शौक भी है। वो अभी एक किताब भी लिख रहे है जो जल्द ही पब्लिश होने वाली है। शुभ बताते है कि वो कुछ ऐसा शुरू करना चाहते थे जिसकी आगे एक चैन बना सके इसलिए उन्होंने चायफेटेरिया शुरू किया। अब उन्होंने भोपाल में भी इसे शुरू कर दिया है और धीरे-धीरे पूरे मध्य-प्रदेश में फ़ैलाने का है।

thesocialtapari
Courtesy: shubham chouhan

इन्होने हाल ही में TheSocialTapari नाम से एक और आउटलेट खोला है। अगर यहाँ जाए तो गुलाब टी और मस्का बन ज़रूर टेस्ट करिएगा।

कैसे पहुँचे : मधुबन में इसी नाम से एक आउटलेट है इसके आलावा सुखाडिया सर्किल की ओर TheSocialTapari नाम से आउटलेट है।

ये पाँच जगह ऐसी थी जहाँ की चाय हमने वहाँ जाकर टेस्ट की और आपको इनके बारे में बताया। अगर आपके ध्यान में और भी ऐसी जगह हो तो आप कमेंट बॉक्स में शेयर कर सकते है।

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धूल खाती आँखें सपने कैसे देखे?

बड़े-बुज़ुर्ग कहते है.. “सपने देखने चाहिए वो भी खुली आँखों से”, अब दिक्कत ये है, सपने देखने के लिए आँखें खोलो तो धूल चली जाती है। फिर करना ये पड़ता है कि चश्मा पहनकर मंजिले खोजनी पड़ती है। यही हाल है मेरा। सुबह फेसवाश लगा कर निकलो तो ऑफिस पहुँचते-पहुँचते फिर से चेहरे पर 2 इंच मोटी धूल और मिट्टी की परत जमा हो जाती है।

पर भाई किस की गलती निकाले ? धूल-मिट्टी है बैठी तो रहेगी नी…उड़ेगी ही, ट्रेवल ही करेगी, शायद ये भी वांडरर होती होगी तब ही। आजकल वैसे भी ट्रेंड में है ये सब और भाई टूरिस्ट सिटी में नहीं करेगी तो क्या गाँव-खेड़े में करेगी? तुम भी यार बात करते हो….

धूल भरी रोड

अच्छा हाँ… ये कार वाले ना मेरी परेशानी नहीं समझेंगे । ये तो मेरे जैसे उन दुःखी लोगो की कहानी है जो सुबह-सुबह मुँह धोकर बाइक-स्कूटी पर निकलते है और ऑफिस, दूकान, मुकाम पर पहुँचते है तो सुनने को मिलता है, “ कारे हांपड़ी ने नि आयो कई? कमु-कम मुंडो तो धोई ने आतो !!”

अब आप ही बताओ इंसान दुखी होगा के नी… ये कार वाले तो शीशे बंद कर देते है । हम क्या बंद करे..?

सोचा प्रशासन से मदद मांगता हूँ, पर वो हर बार एक ही चीज़ देते है.. भरोसा। अब ये समझ नहीं आता इस भरोसे का इस्तेमाल करूँ तो करूँ कैसे ? अब कोई दूसरा मुझसे पूछता है तो मैं भी उसे प्रशासन का दिया हुआ भरोसा फॉरवर्ड कर देता हूँ … शादी में आए कपड़ो की तरह।

हेलमेट पहनते है तब मुँह तो बच जाता है पर गर्दन के नीचे ऐसा लगता जैसे अभी-अभी अखाड़े से लौटे हो। बहुत दुःख है भाई जीवन में…

धूल भरी सड़के
Source : Dainik Bhaskar

अगर आपको भी मेरी प्रॉब्लम अपनी प्रॉब्लम लगती है और आपके पास कोई इससे जुड़ा कोई सुझाव हो तो बताओ भाई, कमेंट्स करो, कैसे निपटे इन सड़कों पर उड़ती धूल-मिट्टी से? क्योंकि अब मेरे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है।

व्हाट्सएप पर कृपा वाले मेसेज फॉरवर्ड करने से कुछ कृपा नहीं आने वाली साथियों, ऐसे मेसेज फॉरवर्ड करोगे तो शायद उदयपुर प्रशासन तक बात पहुँच जाए, और हम जैसो पर दया आ जाए।

 

– एक दुःखी राहगीर

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126 साल पुराना ये चर्च कैसे अस्तित्व में आया? इसके पीछे की कहानी…

क्रिसमस नज़दीक है। इस मौक़े पर आप लोगों के सामने हम लेकर आए है उदयपुर के सबसे पुराने चर्च के अस्तित्व में आने की पूरी कहानी।

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आपको सीधा ले चलते है 126 साल पहले। ब्रिटिश इंडिया के समय उदयपुर रीज़न की मिशनरी डॉ शेफ़र्ड संभाल रहे थे। इनके शुरूआती 12 साल के दौरान क्रिस्चियन कम्युनिटी शहर में नई-नई रहना शुरू ही हुई थी। तब इनकी संख्या मुश्किल से 50 के करीब होगी। लेकिन इन लोगो के लिए कोई प्रार्थना स्थल नहीं होने से डॉ शेफ़र्ड ने एक चर्च बनवाने की इच्छा जताई। तब महाराणा फ़तेह सिंह जी ने क्रिस्चियन कम्युनिटी को ये ज़मीन 4 अगस्त, 1889 में तोहफ़े के तौर पर दी।

ये सब तब हो रहा जब भारत में ब्रिटिश रूल था। डॉ शेफ़र्ड के शुरूआती 12 सालों के दौरान क्रिस्चियन कम्युनिटी उदयपुर में बसना शुरू हो गई थी और करीब 50 के आसपास लोग रहने आ गए थे। मेवाड़ में मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारा तो पहले ही थे, डॉ शेफर्ड चाहते थे कि  एक चर्च भी बने जो न केवल प्रार्थना के लिए बल्कि सर्वधर्म सद्भाव को ध्यान में रखते हुए मेवाड़ का नाम करे। तब के स्टेट इंजिनियर थॉमस कैम्पबेल ने भी डॉ शेफ़र्ड की इस बात में अपनी दिलचस्पी दिखाई। आपको बता दे कि थॉमस कैम्पबेल वही है जिन्होंने फतेहसागर बाँध, विक्टोरिया मेमोरियल और चित्तौडगढ़ लाइन का निर्माण करवाया।

इस तरह ये चर्च 5 जुलाई, 1891 में पूरा बनकर तैयार हुआ। डॉ शेफ़र्ड के नाम पर इसका नाम शेफ़र्ड मेमोरियल चर्च पड़ा। ये बहुत विशाल तरीके से नहीं बनाया हुआ है फिर भी अपने आर्कीटेक्चर की वजह से एक अलग स्थान रखता है। इसका आर्कीटेक्चर आपको ब्रिटिश-काल की याद दिलाएगा।

इस चर्च में पहली प्रार्थना जॉन ट्रेल के द्वारा की गई थी जिसमें मेवाड़ के आम लोगों के साथ-साथ यहाँ के प्रबुद्ध लोगों ने भी हिस्सा लिया था, जिनमें महाराणा फ़तेह सिंह जी भी शामिल थे।

तब से लेकर आजतक ये चर्च उदयपुर में क्रिस्चियन कम्युनिटी के प्रार्थना का केंद्र बना हुआ है। आज की तारीख़ में हर रविवार करीब 1000 लोग प्रभु यीशु के सामने प्रार्थना करने आते है।

अभी यहाँ के पादरी रैमसों विक्टर है और इसके एडमिनिस्ट्रेशन का जिम्मा चर्च ऑफ़ नार्थ इंडिया(CNI) के पास है।

पिछले साल ही इसने अपने 125 वर्ष पुरे किए थे। 126 साल से ज्यादा पुराना होने के बावजूद आज भी पुरे राजस्थान में अपनी बनावट के लिए जाना जाता है। इसका आर्किटेक्चर और पत्थरों का चुनाव ब्रिटिश-काल के दिनों की याद ताज़ा करता है। इस चर्च को बनाने का मक़सद न सिर्फ किसी एक कम्युनिटी के लिए प्रार्थना स्थल बनाना था बल्कि मेवाड़ में धर्मो के बीच सामंजस्य स्थापित करना भी था। आज भी राजस्थान में कुल जनसँख्या के सिर्फ 1% लोग ही क्रिश्चियन समुदाय से है। लेकिन आज से 126 साल पहले  सिर्फ 50 लोगो की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए चर्च का निर्माण करवाना एक मिसाल कायम करने जैसा था।

 

Content Courtesy: Mr. Bhupendra Singh Auwa

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लब्धि की ‘उपलब्धि’, उदयपुर की बेटी ‘बाल-दिवस’ पर राष्ट्रपति से सम्मानित हुई।

हम सभी कल जब ‘चिल्ड्रेन्स डे’ पर फेसबुक, इन्स्टाग्राम और ट्विटर पर स्टेटस, फ़ोटोज़ अपलोड कर रहे थे ठीक उसी समय उदयपुर की बेटी दिल्ली में राष्ट्रपति से सम्मानित हो रही थी। महज़ 7 साल की लब्धि स्केटिंग में अब तक 62 से ज्यादा मैडल जीत चुकी है, उनमे से 3 इंटरनेशनल मैडल भी शामिल है। बाल दिवस पर राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने लब्धि को असाधारण उपलब्धियों के लिए ‘राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’ से सम्मानित किया। लब्धि को रजत पदक के साथ सर्टिफिकेट, बुक वाउचर और नकद-राशि दी गई। लब्धि का पूरा परिवार इस अवसर पर वहाँ मौजूद था।

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Source : UdaipurBlog

टेनिस खेलना था, स्केटिंग में नाम कर लिया : जब पौने तीन साल की थी तब टेनिस सिखाने के लिए अकादमी ले गए। पैरों की मजबूती के लिए कोच ने स्केटिंग और दौड़ना शुरू करवाया पर स्केटिंग में ज़बरदस्त परफॉरमेंस देख कर इसी में आगे बढ़ने का फैसला किया।

लब्धि बताती है कि उनका लक्ष्य 2024-ओलिंपिक और वर्ल्ड-चैंपियनशिप में परफॉर्म करना है और वह अभी से ही तैयारियों में जुट गई है। लब्धि ने 3 साल की उम्र से ही स्केटिंग सीखना शुरू कर दिया था। आज भी वो दिन में घंटो प्रेक्टिस करती है। लब्धि के घरवाले बताते है उनकी सफलता के पीछे कोच मंजीत सिंह का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

Source : UdaipurBlog

इससे पहले उदयपुर की दो बेटियाँ अपुर्वी चंदेला और भक्ति शर्मा भी राष्ट्रपति से सम्मानित हो चुकी है।

लब्धि, अपुर्वी और भक्ति शर्मा हमारे समाज के लिए प्रेरणा है कि कैसे अपने बच्चो को पढाई के साथ-साथ एक्स्ट्रा-करीकुलर एक्टिविटीज़ में भी आगे बढ़ाना चाहिए।

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Source : Jansatta
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PS Group: Finding solution to marble slurry menace of Udaipur

In a recent judgment passed by the Rajasthan High Court, Chief Justice Arun Mishra said: “There are 250 marble processing units in the Sukher industrial area and they are dumping about 70 tones of slurry daily as a result of which about 700×500 meters of the valley has been ruined.”


Marble slurry dumping yard

Marble slurry is either dumped by the road side or dumped at slurry dumping yard. In both cases the slurry is open to spread through wind, surface flow of water and also penetrate the ground.  This degrades the quality of air, surface water, ground water and damages the soil of nearby areas.

                     Marble slurry dumped by the roadsise.

Despite several attempts by various agencies to develop products and find commercial applications for marble slurry, the menace of slurry continues to haunt the beauty and environment of Udaipur.

                            Marble slurry dumped illegally in residential areas.

JK Tyre conducted a study to replace carbon black in tyres by marble slurry but it was not found suitable for dynamics applications in tyre. Several attempts to replace cement and sand in mortar and concrete by marble slurry have not been very successful commercially because reaction of compounds present in marble slurry with cement and water causes efflorescence in the products like bricks, paver blocks, kerb stones, roof tiles, tree guards.

Recently a team of final year students of Civil Engineering at Techno India NJR Institute of Technology started working of innovations to develop products using marble slurry. Lokesh Puri Goswami, Kundan Gorana, Mohit Wadhwani, Harshit Jaroli, Kamlesh Kumar, Sachin Goyal under the guidance of Dr. Pankaj Porwal have developed a technology and processing method that eliminates the use of water to make these products. The team has called the brick produced using slurry Slick (Slurry Brick). The salient feature the Slick and other products is that they use molten waste plastic from bottles as binder with sand and marble slurry as filler. They also use some advanced chemical admixtures to enhance the strength of fire resistance of the final product. Use of molten plastic not only solves the problem of efflorescence but also provides a practical solution to problem of disposal of waste plastic bottles.

Brick made using marble slurry, sand and waste plastic

Preliminary tests conducted on Slick give strength close to the compressive strength of second class bricks. This idea has found acceptance at national level also. Recently, the team leader, Lokesh Puri Goswami was awarded Silver Medal by National Design and Research Forum of Institution of Engineering.

The students have also developed a full-fledged business plan for this idea. They have presented this business plan at Stupreneurs and won first prize of 45000/-. Stupreneurs is state level impact and innovation challenge program to make Rajasthan a source of innovation and start ups to positively impact our economy. An ecosystem based approach where mentors, business leaders and other professionals support and mentor such start ups.

Currently the company formed by the students, PS Group, is being incubated at Lake City Incubation Center of Techno India NJR for commercialization of marble slurry and waste plastic bottle products.

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“दुनिया को मेरी नज़रों से देखो, आपको ये ख़ूबसूरत लगेगी…”

उड़ान
Source: IMDb

“पिताजी ने कहा था कि जब बड़ा होगा तो मैं तुझसे कुछ भी नहीं कहूँगा। तब जो मर्ज़ी आए वह करना। मैंने सोचा था बस एक बार बड़ा हो जाऊँं फिर देखना दिन भर  खेलता रहूँगा, पतंग  उड़ाता फिरूंगा। कोई पढ़ाई की बात भी करेगा तो उसे एक लात मारूँगा, कुल्हे के आसपास कहीं।” – मानव कॉल (ठीक तुम्हारे पीछे)

udaan
Source: constantscribbles

मुझे उम्मीद है हम सभी ने बचपन में ऐसे सपने ज़रूर देखे होंगे, कुछ इससे मिलते-झूलते, कुछ इससे भी बड़े। फिर हम बड़े होते जाते है, ‘बचपन’ और बचपन की आँखों में पाले गए ये ‘सपने’ कहीं खो से जाते है। ‘बचपन’ की जगह एक ‘जवानी’ ले लेती है, जो पूरी तरह से हमारे अन्दर के बच्चे को निगल चूकी होती है। और रही बात ‘सपनों’ की तो उनकी जगह ‘जिम्मेदारियाँ’ ले लेती है, जिसकी वजह से खुले आसमान में उड़ने के ख्व़ाब पाले ये कंधे इनके बोझ-तले झुक जाते है।

‘चिल्ड्रेन्स डे’ पर बच्चो को एक दिन में ढेर सारी खुशियाँ देने से अच्छा होगा हम उन्हें साल भर ऐसा वातावरण प्रदान करे, ऐसी सोच देंवे, उन्हें उस आज़ादी की ओर बढ़ाए, जिनकी उन्हें सच में ज़रूरत है। उन्हें बस किताबी ज्ञान तक ही सीमित न रहने दे, उन्हें अच्छा आल-राउंडर बनाए। अपनी ख्वाईशें उन पर नहीं थोपे, क्योंकि वो ‘आप’ जैसा कभी नहीं हो सकता, उसकी अलग ज़िन्दगी है, सोच है, अलग ढंग से दुनिया को देखने और समझने का तरीका है। उसे अपनी सोच बनाने के लिए प्रोत्साहित करें। आप ख़ुद को उनकी जगह रखकर अपने बचपन को याद करना, शायद आप समझ जाएँगे मैं क्या कहना चाह रहा हूँ।

साथ ही साथ कोशिश ये भी करनी चाहिए कि हमारे अन्दर गुम हो चुके उस बच्चे को भी खोज निकाले। फिर देखिए आपकी ज़िन्दगी कैसे बदलती है।

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Source: IMDb

‘कैलाश सत्यार्थी’ का एक फेमस कोट है, “Childhood means simplicity. Look at the world with the child’s eye – it is very beautiful.(बचपन सादगी है। दुनिया को एक बच्चे के नज़रिए से देखिए, ये बहुत ख़ूबसूरत नज़र आएगी।)”

ये एक कोशिश थी हम लोगो की, बच्चो की तरफ़ से कुछ कहने की। उम्मीद करते है आप तक सही ढंग से पहुची हो। ज़िन्दगी कोई रियलिटी शो नहीं है, या कोई इम्तेहान नहीं है। ज़िन्दगी जीने को परीक्षा मत बनाइये, उसे जीने की कोशिश कीजिये बजाए जीतने की।

बच्चो के सपनो को उड़ान दो, उनकी आज़ादी में उनका साथी बनो, रुकावट नहीं। 

जो लहरों से आगे नज़र देख पाती तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ,
वो आवाज़ तुमको भी जो भेद जाती तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ।
ज़िद का तुम्हारे जो पर्दा सरकता तो खिड़कियों से आगे भी तुम देख पाते,
आँखों से आदतों की जो पलकें हटाते तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ।

Udaan
Source: Stylewhack

मेरी तरह खुद पर होता ज़रा भरोसा तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते,
रंग मेरी आँखों का बांटते ज़रा सा तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते।
नशा आसमान का जो चूमता तुम्हें भी, हसरतें तुम्हारी नया जन्म पातीं,
खुद दुसरे जनम में मेरी उड़ान छूने कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते।।

 Happy Children’s Day to All 🙂

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इनसे स्वेटर-जैकेट ख़ूब ख़रीदे होंगे, अब इन लोगो का संघर्ष भी जान लो।

ठण्ड आते ही गरम कपड़े याद आने लगते है और गरम कपड़े लेने के लिए सबसे पहले जो नाम दिमाग में आता है, वो है ‘समोर बाग़‘। एक विशाल गार्डन जो बड़े-बड़े पेड़ों से ढका हुआ है, यही वो जगह है जहाँ आपको मिलेंगे गरम कपड़े बेचते ‘तिब्बती लोग’। इनके द्वारा बनाए स्वेटर और जैकेट हम इतने सालों से पहनते आए है। लेकिन कभी आपने ये जानने की कोशिश की है कि ये लोग यहाँ कैसे आए? ऐसी क्या वजह रही होगी यहाँ आने की? क्यों ये लोग एक पराए देश जिसकी संस्कृति, भाषा, रहन-सहन अलग है, बावजूद इसके यहाँ आकर बस गए? ज़ाहिर सी बात है ये सभी सवाल हम सभी के मन में कभी न कभी ज़रूर उठे होंगे, बिल्कुल ऐसे ही सवाल हमारी एक राइटर के मन में भी उठे थे, और फिर चल पड़ी वो इन सवालों के जवाबों को जानने…TibetMarket-550x411

यहाँ खुशबू ने बात की टी ज़म्पा से, उन्होंने बताया – “समोर बाग़ आज से 23 साल पहले तक तिब्बतियों से भरा नहीं दिखता था जैसा कि आज देखने को मिलता है। लेकिन 23 पहले कुछ ऐसे हालात बने जिसकी वजह से हम लोग यहाँ आ गए। पर शुरुआत इसकी होती है 1959 में, जब चाइना ने तिब्बत पर हमला बोल दिया था। उस वक़्त क़रीब 80,000 से 90,000 तिब्बतीयों को दलाई लामा के साथ भारत में शरण लेनी पड़ी थी। हमें उत्तर भारत में आकर रहना पड़ा। कुछ 41 साल पहले 25-30 तिब्बती(हमारे पूर्वज) रिफ्यूजी उदयपुर भी आए और घर-खर्च  निकालने के लिए घर -घर जाकर हाथ से बने ऊनी कपडे़ और स्वेटर बेचने शुरू कर दिए। शुरू में यहाँ लोग हमसे सामान ख़रीदने से कतराते थे लेकिन समय के साथ लोगो ने हमें स्वीकारना शुरू कर दिया। बाद में हमें नगर पालिका से अशोका टाकीज़ के सामने फूटपाथ पर व्यापर करने की परमिशन मिल गई और उसके बाद 80 के दशक में चेतक सर्किल और टाउन हॉल में भी हमने मार्केट स्थापित कर दिया लेकिन संघर्ष हमारा यहीं ख़त्म नहीं हुआ था। कुछ सालों बाद ये सुविधाएँ हम से छीन ली गई, और इस तरह हम फिर से उसी हालत में आ गए जहाँ से हमने शुरुआत की थी। ये बहुत तकलीफ़देह था।

वो आगे बताते है, “तब महाराणा महेंद्र सिंह जी मेवाड़ ने तिब्बतियों को एक ख़त भेजा जिसमें लिखा था कि वे ये सब देखकर बहुत दुखी है। वे नहीं चाहते दलाई लामा के समर्थक शहर में इस क़दर भटकते रहे। इसी वजह से उन्होंने समोर बाग़ तिब्बतियों को देने का प्रस्ताव रखा और लिखा अगर आप इस प्रस्ताव को स्वीकारते हैं तो ये हमारे लिए ख़ुशी की बात होगी और इस तरह समोर बाग़ में तिब्बती बाज़ार की शुरुआत हुई। टी ज़म्पा ने बताया गवर्मेंट बॉडीज और दुसरे लोगों की तुलना में महाराणा महेंद्र सिंह जी ने हमें ये जगह बहुत ही कम किराए पर दी। ये किराया हम सभी दूकानवालों में बराबरी से बंटता है। 2006 में कीमतों को एक जैसा रखने और अन्य समस्याओं का सही से निपटारा करने के लिए एक संगठन बनाया गया जिसका नाम रखा ‘तिब्बतन रिफ्यूजी ट्रेडर्स एसोसिएशन’। ये संगठन बनाने की एक वजह पुरे भारत में फैले तिब्बतियों को आपस में जोड़ना भी था।

पाल्देन बताते है कि यहाँ की दुकानों में आपको हाथ और मशीन दोनों से बने कपड़े मिल जाएँगे, वो आगे बताते है, “हमने मशीन से बनाना 36 साल पहले लुधियाना में शुरू किया था क्योंकि तब इस चीज़ की डिमांड बहुत ज्यादा थी। आज भी हम शहर की डिमांड और पापुलेशन को ध्यान में रखकर ही सामान लाते है।”

तिब्बती ज्यादातर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, यूपी और बिहार से 3-4 महीने के लिए व्यापार करने आते है उसके बाद वापस चले जाते है। इन 3-4 महीनो में उनकी कमाई इन्हीं ऊनी कपड़ो की बिक्री से होती है बाकि के महीनों में ये सभी खेती और दूसरे कामों से अपनी जीविका चलाते है।

ये आर्टिकल क्यों लिखना ज़रूरी था – ये आर्टिकल लिखना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि आजकल रिफ्यूजीयों पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। सोशल मीडिया के इस दौर में जब इन्टरनेट इतना सस्ता हो चला है तब हर कोई इसका फ़ायदा उठाना चाहता है और उठाना भी चाहिए, ये आपका हमारा हक़ है। लेकिन इसी की आड़ में कई बार अफवाहें भी उड़ने लगती है, इस सस्ते इन्टरनेट का गलत इस्तेमाल भी होता है ये सब इंसानी समाज के गलत दिशा की ओर जाने का संकेत है। इनकी ज़िन्दगी तब भी अच्छी नहीं थी और आज भी एक रिफ्यूजी को अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता। रिफ्यूजीयों की ज़िन्दगी जीना कोई आसान काम नहीं होता है। हम हमेशा टीवी में देखते है पढ़ते है, कुछ देर उनके बारे में सोचते भी है और फिर भूल जाते है और अपने काम में लग जाते है, क्योंकि ये सब हमारे साथ नहीं हो रहा होता है। अब इसे हमारी आदत कहो या कमजोरी पर ये सही नहीं है। हमें कुछ भी लिखने, कहने से पहले हमेशा खुद को एक बार उस जगह रख कर ज़रूर देखना चाहिए। हमें ये समझना होगा यहाँ इस धरती पर रहने का सबको अधिकार है, शायद तब हम कुछ समझ पाए।

 

नोट : ये आर्टिकल सन 2011 में खुशबू बरनवाल ने उदयपुर ब्लॉग के लिए अंग्रेजी में लिखा था।

 

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अब झीलों में सीवरेज के पानी के आलावा प्लेन भी उतरेंगे?

अब तक उदयपुर की झीलों में आपने नावों को चलते देखा होगा, लोगो को तैरते देखा होगा उन्हें कपड़े धोते देखा होगा… और तो और आपने झीलों में सीवरेज के पानी को गिरते भी देखा होगा, लेकिन अब इन सबके आलावा एक और कमाल होने की सम्भावना है वो भी उदयपुर की झीलों में। अगर ये बात मंत्री-महोदयों को जम गई तो जल्दी ही अपने शहर की झीलों में सी-प्लेन(seaplanes) भी उतरेंगे। मजेदार बात तो ये है कि इस योजना में जापान दिलचस्पी दिखा रहा है, वैसे ही जैसे उसने बुलेट ट्रेन में दिखाई थी। हम आपको बता दे कि जापान की दिलचस्पी पहले ही भारत को 1,10,000 करोड़ की पड़ी है, अब देखते है ये कितने की पड़ती है? वैसे अभी तो बात ही निकली है, और बात निकलने का मतलब ये तो नहीं हो जाता की शादी पक्की मान ही ले, तो अभी ज्यादा बवाल मचाने वाली बात नहीं है।

तो बात ये है कि स्पाइस जेट जापान की एक कंपनी “setouch holdings” से 100 कोडिआक प्लेंस खरीदने की सोच रहा है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी साहब कहते है कि रूस और जापान ने डील में इंटरेस्ट दिखाया है जिनमे 50 सीटर वाले प्लेंस भी शामिल है।

नितिन गडकरी ये भी कहते है : ” भारत में एअरपोर्ट की कमी है। ज्यादातर कारोबार उन जगहों से होता है जहाँ ढंग से कनेक्टिविटी नहीं मिल पाती। हम उसी के समाधान के रूप में  इसे देख रहे है। हम चाहते है भारत का आखिरी कोना तक बाकि जगहों से कनेक्ट हो, ये प्रोजेक्ट से हमें लाभ मिलने की उम्मीद है। उदयपुर के टूरिज्म को भी इससे फायदा मिलेगा।”

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अम्फिबिअस एयरक्राफ्ट ज़मीन और पानी दोनों पर उड़ान भर सकते है ये भारी और धीमे ज़रूर होते है पर ज्यादा वर्सटाइल भी होते है।  जिसकी वजह से इसकी उपयोगिता बढ़ जाती है। हमारे प्रधानमंत्री का कहना है कि ऐसे एयरक्राफ्ट दूरियाँ कम करने में साथ देंगे। नदियों और दुसरे बड़े जल स्त्रोतों का उपयोग करके इस काम को आसन किया जा सकता है।

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लेकिन ये सब में बहुत टाइम लगेगा अभी ये सब पर सिर्फ बात की जा रही है, लागू करने में वक़्त लगेगा। क्या पता उदयपुर का नाम आएगा भी या नहीं आएगा..

पर ये सब बात उठने पर हमारी भी जिम्मेदारी बढ़ जाती है की इस पर चर्चा की जाए। आप अपने व्यूज़ रखे कि क्या वाकई देश की नदियाँ, झीले अभी इन एयरक्राफ्ट के लिए तैयार है? इतने करोड़ो खर्च करने के बाद गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियाँ अब भी प्रदूषित है। ऐसे में क्या ये प्रोजेक्ट लागू करना सही है?

अगर लागू होता है तो क्या उदयपुर इस प्रोजेक्ट के लिए तैयार है? जब इतनी मेहनत से शहर के कुछ लोग झीलों को साफ़ करने में लगे हुए है। बावजूद इसके अब तक होटल्स और आसपास के घरो का गिरता सीवरेज पानी इन झीलों में जाने से नहीं रोक पाए है, आयड़ को अब जाकर साफ़ कराया जा रहा है तब क्या ये प्लेंस उदयपुर के लिए सच में ज़रूरी होंगे?

लेकिन ये सब अपने-अपने विचार है, आप भी अपने थॉट्स कमेंट बॉक्स में लिख सकते…. आप कैसे देखते है इस तरक्की को?

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खाने के शौक़ीन लोगो के लिए जन्नत – शरद रंग महोत्सव(Food and Music Festival)

शिल्पग्राम, जो यहाँ गए है वो इस नाम से वाकिफ़ है और जो यहाँ नहीं गए वो लोग इसके नाम से अर्थ निकालने की कोशिश करेंगे। लेकिन यहाँ हम शिल्पग्राम के बारे में आपको नहीं बताने वाले, हम आपको बताने जा रहे है यहाँ पर 25 अक्टूबर से शुरू हुए फ़ूड और म्यूजिक फेस्टिवल के बारे में। जो लोग खाना खाने के दीवाने है या गानों के मामले में मस्ताने है उनके लिए ये पांच दिन किसी जन्नत से कम नहीं है(खैर अब तो चार दिन ही बचे है, आज को मिलाकर) 29 अक्टूबर से पहले शरद रंग महोत्सव ज़रूर जाए।

अब हम आपको वर्चुअल्ली ले चलते है इस फेस्टिवल में जो कि हमारा काम भी है। बाकी ये पढ़कर आपके क़दम खुद-ब-खुद  शिल्पग्राम की ओर चल पड़ेंगे।

यहाँ से शुरू होता है शरद रंग महोत्सव का सफ़र

अच्छे से सजे गेट में एंटर होते आपको बड़े करीने से सजाया हुआ एक गाँव दिखाई पड़ेगा और सीधे हाथ की ओर आपको नागौर से आए सरवन कुमार एंड बैंड आपके स्वागत को तैयार रहेंगे। सरवन कुमार इस बैंड के मुखिया है और बड़े विनम्रता से आपसे बात करेंगे। उनसे हमने तकरीबन 20 मिनिट तक बात करी इस दौरान उन्होंने अपनी 2 बार प्रस्तुति भी दी। वो मशक बजाते है जो एक स्कॉटिश इंस्ट्रूमेंट है जिसे इंग्लिश में बेकपेपर कहा जाता है। राजस्थान सर्कार से सम्मानित हो चुके है। यहाँ उनके फोटो और एक परफॉरमेंस शेयर कर रहे है। इनकी ये परफॉरमेंस आपको सीधा नागौर ले जाएगी वो भी शिल्पग्राम बैठे-बैठे।

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सरवन कुमार एंड बैंड

जैसे आप थोड़ा आगे जाएँगे तो अलवर से आए नूरदीन मेवाती और उनका ग्रुप आपको उन्ही के बनाए गानों को सुनने को मजबूर कर देगा। उनके गाने समाज को लेकर बनाए होते है और सटायर से भरपूर होते है। ये अन्तराष्ट्रीय लेवल पर भी परफॉर्म कर चुके है और इंडियाज़ गोट टैलेंट में भी परफॉर्म कर चुके है। ये रही उनकी झलक

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नूरदीन मेवाती एंड ग्रुप – अलवर

वल्लभनगर तहसील – उदयपुर का फोक बैंड लेकर आए है देवीलाल जी और उनके बेटे कमल जी दमामी, बैंड का नाम पाइप बैंड उदयपुर रखा है। ये भी मसक बजाते है पर साथ में इनके उदयपुर में बजाये जाने वाले और इंस्ट्रूमेंट भी होते है। अच्छी बात ये है कि कमल जी बेकपेपर(मसक) सिखाते भी है, वो अलग-अलग स्कूलों में जाकर इसे सिखाते है। वो चाहते है इससे ये लोगो के ज़हन में रहेगा और लोग भूलेंगे नहीं।

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पाइप बैंड : उदयपुर

ये हमारा म्यूजिक में आख़िरी पड़ाव था। इन्ही लोगो की वजह से राजस्थान का फोक संगीत फिर से जिंदा हुआ है हम बात कर रहे है मंगनियार ग्रुप की जो बाड़मेर से यहाँ आई। उनसे हमारी आर्टिस्ट की सोच और दुनिया को किस नज़र से वो देखते है इस पर काफी बात हुई। उनकी ये दमदार परफॉरमेंस ये रही

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गाज़ी खां मंगनियार ग्रुप – बाड़मेर

 

इसके बाद शुरू होता फ़ूड बाज़ार… वैसे गाज़ी खां साहब के यहाँ आते ही पता लग जाता है, खुश्बू की वजह से। इस बाज़ार में आपको लखनवी बिरयानी से लेकर बिहार के लिट्टी-चौखा, अवध की कुल्फी, कश्मीरी वाज़वान, राजस्थानी कबाब, दाल-बाटी और साउथ इंडियन डिशेज़ तक की वैरायटी मिल जाएगी। उम्मीद है अब तक आप लोगो के मुह में पानी तो आ ही गया होगा, नहीं आया तो ये फ़ोटोज़ देख कर आ जाएगा।

 

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चार अलग-अलग जगह के खाने

 

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वाहिद बिरयानी – लखनऊ
मुग़लई डिशेज़ के अगर आप शौक़ीन है तो ये आपका जंक्शन ही है। इनकी बिरयानी और लखनवी मेहमान नवाज़ी दोनों ही आपको पसंद आएगी।

 

राधेश्याम तेली : ये यूँ तो दक्षिण भारतीय खाना बनाते है पर ये है उदयपुर से ही। इनके यहाँ का स्पाइडर रोल ज़रूर खाना चाहिए। स्पाइडर रोल उतना ही दिलचस्प है जितने की ये ख़ुद, फ़ूड फेस्टिवल के सबसे मजेदार और खुशमिजाज व्यक्ति है। ये नोटबंदी के दौरान चर्चा में भी थे तब इन्होने ज़रुरतमंदों को फ्री में खाना खिलाया था।

 

 

कश्मीरी वाज़वान : आप फ़ूड फेस्टिवल का अंत यहाँ से कर सकते है वो भी कश्मीरी कावा से इसके अलावा रिश्ता और गोश्ताबा यहाँ का ज़रूर चखिए। वैसे भी कश्मीरी खाना ज़ायका हर कहीं मिलता भी तो नहीं है। 🙂

अगर आप फोक परफॉरमेंस देखना चाहते है तो वो आपको 12, 2, 4 और 6 बजे देखने को मिल जाएगी शाम में 7 बजे से ओपन ऑडिटोरियम में हर दिन अलग-अलग परफॉरमेंस होगी। और अगर आप खानाआहते है ज़ायकों का मज़ा उठाना चाहते है तो आप दिन के 12 से रात के 10 बजे तक  कभी भी पहुँच जाइये।