शुक्रिया उन सभी का जिन्होंने हमारी इस ज़िद को अपनी ज़िद माना और इसे साकार कर दिखाया। उदयपुर ब्लॉग की ओर से हम उन सभी लोगो का आभार व्यक्त करते है जिन्होंने ULF को सफल बनाने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोनों रूप में सहयोग किया। हम यहाँ के प्रशासन का भी शुक्रिया अदा करते है जिन्होंने ULF में आए लोगो की सुरक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी हम साथ ही साथ हमारे सहयोगियों का भी आभार व्यक्त करते है जिन्होंने इतने बड़े फेस्टिवल को सफल बनाने के लिए हमारी हर पल मदद की। ये सब तभी संभव हो पाता है जब इतना जन-समर्थन आप लोगो के साथ खड़ा हो, जैसा की हमारे साथ था। ये सब व्यक्त करना मुश्किल लग रहा है क्यूंकि मन में जो विचार उठ रहे है उन्हें शब्द नहीं मिल पा रहे है। शब्द कम पड़ गए। जो उम्मीदें हमने शुरू में रखी वो सभी पूरी तरह से कामयाब रही।
हमें पूरी उम्मीद है आपने आर्टिस्ट परफॉरमेंस शुरू होने से ग्राउंड में पहले से चल रही एक्टिविटीज़ का भरपूर आनंद लिया होगा। फेस्टिवल को मैनेज करने के चक्कर में हम आप लोगो के साथ मज़े तो नहीं कर पाए पर आप लोगो को एन्जॉय करते देखना एक सुखद अनुभव था। ‘पापोन’ तो खैर इस फेस्टिवल की जान थे। ‘स्वराग’ को आपने भरपूर सराहा ही।
7000 से भी ज्यादा की अटेंडेंस एक सपना जैसा था। 3-टियर सिटीज में ये सब मुमकिन करना थोड़ा मुश्किल ज़रूर रहता है पर उदयपुर तुमने कर दिखाया। अब जब हम फोटोज़ में मुस्कराते चेहरे और झूमते युवाओं को देख रहे है तो अपनी ख़ुशी आप लोगो के साथ साझा करने से खुद को रोक नहीं पा रहे है। आपके चेहरों की मुस्कान, आप लोगो को इस कदर बेफिक्र होकर झूमते देखना, दो अनजान लोगो को एक स्टाल पर साथ बात करते हुए खाते हुए देखना ही तो हमारी सफलता है, यही तो हमारा हौसला है, यही तो हमें ताकत देगा कि अगले साल इसे और बड़े स्तर पर ले जाए चाहे कुछ भी हो जाए।
इस 7000 के आकडे को 10,000 करना या उससे भी ज्यादा। ये सब ख्वाब है जो देखने चाहिए जैसे कि ये देखा था और पुरे करने में जुट गए। वैसे ही और ख्वाब बुनेंगे उन्हें पूरा करने में लग जाएँगे। ये सब भी आप ही की वजह से होगा। अंत में विदा लेने से पहले हम आप सभी लोगो का एक बार फिर से तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते है।
अब आने वाले नौ दिनो तक शहर की ‘गोपियाँ’ ऐसे ही अपने-अपने ‘श्याम’ के लिए सज-धज कर ये गीत गाती और इंतज़ार करती दिखेंगी। वैसे श्याम भी कम नहीं है अपने शहर के… उनका भी क्रेज देखने लायक होता है। वो भी अलग ही टशन में दिखते है। वैसे उनका ध्यान नाचने में ज़रा कम ही होता है। न जाने कितने दिलों को मिलाया है इस नवरात्री ने। कब गरबा खेलते-खेलते..डांडिया रास करते-करते कोई रास आ जाए कुछ कह नहीं सकते। मन बावला जो होता है।
अच्छा ये लिखते-लिखते ख्याल आया कि गरबा और डांडिया रास कितने अलग है ये एक दुसरे से? लिखना कुछ था पर मन इसी बात पर अटक गया..बताया तो था, मन बावला जो होता है। कब किस पर अटक जाए कौन कब रास आ जाए किसे पता?
खैर हमनें भी सोचा कि अब इसी पर खोजबीन शुरू की जाए…खोजते हुए कई पॉइंट्स, फैक्ट्स निकल आए। वही सब आप को बता दे रहे है-
गरबा क्या है? –
गरबा एक गुजराती फ़ोक डांस है जो यहीं से फेमस होता हुआ पुरे उत्तर भारत और महाराष्ट्र में पहुँच गया। ‘गरबा’ संस्कृत शब्द ‘गर्भ’ और ‘दीप’ से निकला है।
दरअसल एक मिट्टी के बर्तन में ‘जौ’ और ‘तिल’ की घास उगाई जाती है, इसे एक पटिये पर रख एक जगह स्थापित करते है, उसी बर्तन को गरबा कहा गया है। इसे किसी खुले स्थान में रखा जाता है साथ ही इसके साथ एक दीपक भी जलाया जाता है। इसके इर्द-गिर्द एक गोला बनाकर डांस किया जाता है। उसे गरबा डांस कहते है। हालाँकि ‘गरबा बर्तन’ बनाना गुजरात में ही देखने को मिलेगा। अन्य दूसरी जगह जहाँ गरबे किए जाते है वहाँ बीच में अम्बा माँ की तस्वीर या मूर्ति रख और दीपक जलाकर गरबा किया जाता है। स्थापित करने के दसवें दिन गरबा का विसर्जन किया जाता है।
गरबा डांस –
कभी सोचा है कि गरबा केवल सर्किल में ही क्यूँ किया जाता है?
इसके पीछे एक ज्ञान छिपा है वो ये है कि “ मनुष्य जीवन भी एक वृत्त(साइक्लिक स्ट्रक्चर) के समान है, इंसान जन्म लेता है …अपना जीवन जीता है… मर जाता है…फिर जन्म लेता है…। मतलब वो जहाँ से शुरू करता है वहीँ वापस आ जाता है। बीच में रखा ‘गर्भ दीप’ ये बताता है कि हर इंसान के मन में एक देव तत्व छुपा हुआ रहता है। हम सभी के मन में देवी का निवास होता है, बस ज़रुरत है तो उसे खोजने की। इसी वजह से इसके चारो और डांस किया जाता है। बीच में रखा गरबा एक जगह रहता है जो बताता है, देवी शास्वत सत्य है और हम सब यहाँ अनिश्चित(टेम्पररी) रूप से रह रहे है।
तो फिर ‘डांडिया रास’ क्या है? –
ये भी गुजराती फ़ोक डांस ही है, पर गरबे से थोडा अलग है। ‘डांडिया रास’ भगवान् श्री कृष्ण से जुड़ा है। रास शब्द संस्कृत के ‘रसा’ से आया है। ये डांस गुजरात और राजस्थान में किया जाता है, ख़ासकर दक्षिण राजस्थान और पश्चिम मध्य-प्रदेश और पुरे गुजरात में। इसमें गरबा डांस के उलट पुरुष और स्त्री साथ मिलकर एक या दो सजे हुए डांडियों से डांस करते है।
डांडिया रास को एक और कहानी से जोड़ा जाता है जो कि माँ दुर्गा की है। इस कहानी के अनुसार माँ दुर्गा और महिषासुर के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया था। ये नौ दिनों तक चला। इस वजह से इसमें यूज़ होने वाले डांडिये को ‘तलवार’ से भी जोड़कर देखा जाता है।
ऐसा बताते है… जब अफ्रीकन गुलाम(स्लेव्ज़) सौराष्ट्र बंदरगाह पर आये थे तब उन्होंने ये डांस देखा। इन अफ्रीकन गुलामो ने इसे अफ्रीकन ड्रम(जेम्बे) पर करना शुरू किया। चूँकि ये लोग मुस्लिम थे तो इन्होने इस ट्रेडिशन सौराष्ट्र में मुस्लिम तरीके से अपनाया।
कितने अलग है डांडिया और गरबा एक दुसरे से? –
गरबा डांस ‘डांडिया आरती’ से पहले किया जाता है, डांडिया आरती के बाद डांडिया रास खेला जाता है।
गरबा केवल महिलाओं द्वारा किया जाता था(हालाँकि अब ऐसा नहीं है) जबकि डांडिया संयुक्त रूप से किया जाता है।
डांडिया रास डांडिया आरती के बाद शुरू होता है, उससे पहले तक गरबा ही खेला है।
गरबा तीन तरह से खेला जाता है, एक ताली गरबा, २ ताली गरबा और तीन तली गरबा। आज से 10-15 साल पहले तक तीन ताली गरबा ही किया जाता था, ये थोडा कॉम्प्लेक्स था। वेस्टर्न गरबा दो ताली/एक ताली गरबा और डांडिया रास से मिलकर बना है जो आजकल काफी पोपुलर है।
डांडिया रास में बजने वाले गीत मुख्यतया श्री कृष्ण और राधा के ऊपर होते है जबकि गरबा में बजने वाले गीत अम्बा माँ के ऊपर बने होते है।
गरबा गुजरात और महाराष्ट्र में ज्यादा खेला जाता है जबकि डांडिया राजस्थान और मध्यप्रदेश में ज्यादा खेला जाता है।
दोनों ही डांस फॉर्म्स में औरतें रंगबिरंगी पौशाके पहनती है, जिनमे चनिया चोली, ब्राइट कलर से बने घाघरे, कमरबंध, बाजुबंध, मांग टिक्का आदि होते है।
गरबा और डांडिया खेलने वाले आदमी गोल छोटा कुर्ता, कफनी पायजामा, पगड़ी और मोजरी पहनते है।
डांडिया के मुकाबले गरबा भारत के बहार ज्यादा फेमस है। ये फोक डांस अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन सहित दुनिया की 20 से भी ज्यादा युनिवरर्सिटीज़ में खेला जाता है।
ब्रम्हा ने महिषासुर को वरदान दिया था कि उसे कोई आदमी नहीं मार पाएगा, जब उसका धरती पर अत्याचार बढ़ गया तब उसका संहार माँ दुर्गा ने किया।
साउथ इंडिया में नवरात्री के त्यौहार को ‘गोलू’ बोला जाता है।
गरबा और डांडिया रास भले ही हिन्दू मान्यता से जुड़ा हुआ है पर इस त्यौहार को मानाने के लिए आपका हिन्दू होना ज़रूरी नहीं है। इस डांस को किसी भी धर्म के लोग कर सकते है। इसकी ख़ासियत यही है कि ये अलग-अलग जगहों और धर्मो के लोगो को एक साथ लेकर आता है और नृत्य की भावना से सोहाद्र और प्रेम-भाव जगाता है।
ऊपर दिए गए फैक्ट्स और पॉइंट्स सिर्फ इनके बारे में बताने के लिए थे, आसान भाषा में ये थ्योरी थी पढ़ लो और जान लो। नाचना तो कल से है ही, प्रैक्टिकल में तो माहिर ही अपन। अंत में माँ दुर्गा और श्री कृष्ण को याद करते हुए उदयपुर ब्लॉग की तरफ़ से आप सबको नवरात्री की ढेर सारी बधाइयाँ। ये पर्व आपके और आपके परिवार में खुशियाँ लाये। भारतवर्ष को आगे बढ़ाये।
राजस्थान न सिर्फ अपने कल्चर और रजवाड़ो के लिए बल्कि फोक म्यूजिक और फोक डांस के लिए भी जाना जाता है। इन्ही में से एक है मेवाड़ का ‘गवरी’ नृत्य। हालाँकि इस पर हुई रिसर्च के बाद ये साफ़ हुआ है कि ये सिर्फ नृत्य में नहीं है दरअसल गवरी एक म्यूजिकल ड्रामा है जो मेवाड़ में भील कम्युनिटी कई सौ सालों से इस परंपरा को निभाती आ रही है।
गवरी शब्द माँ गौरी से निकला है। गौरी माँ यानी माँ पार्वती जिसे भील जनजाति देवी गौरजा नाम से पुकारते है, उनके अनुसार श्रवण मास की पूर्णिमा के एक दिन बाद देवी गौरजा धरती पर आती है और धरती पुत्रों को आशीर्वाद देकर जाती है। इसी ख़ुशी में ये लोग गवरी खेलते है।
भीलों में एक कहानी बड़ी चर्चित है। कहानी के अनुसार भगवान् शिव से सृष्टि निर्माण हुआ है। पृथ्वी पर पहला पेड़ बरगद का था जो कि पातळ से लाया गया था। इस बरगद के पेड़ को देवी अम्बाव और उसकी सहेलियां लेकर आई थी और इन्होने उदयपुर के हल्दीघाटी के पास स्थित गाँव ‘ऊनवास’ में स्थापित किया जो आज भी मौजूद है।
राजस्थानी भाषा में ऐसे नुक्कड़ पर गानों के साथ किए जाने वाले नाटक को ख्याल कहा जाता है। ख्याल एक तरह की नाटक शैली है जैसे जयपुर में तमाशा है। गवरी भी ख्याल ही है।
कैसे शुरू होती है गवरी –
भील लोग गौरजा माता के देवरे जाकर पाती(पत्ते) मंगाते है। ‘पाती मांगना’ मतलब गवरी खेलने की इजाज़त मांगना होता है। पाती मांगना एक परंपरा है जिसमे देवी की पूजा की जाती है उसके बाद उनसे गवरी खेलन के लिए पूछा जाता है। देवरे में मौजूद भोपा में जब माताजी प्रकट होती है तो उनसे गवरी खेलने की इजाज़त मांगी जाती तब जाकर गवरी खेलना शुरू होता है।
ये खेल नहीं आसां बस इतना समझ लीजे –
ये भील लोग 40 दिनों तक अपने-अपने घरो से दूर रहते। इस दौरान ये लोग नहाते नहीं है, एक टाइम का खाना खाते है और हरी सब्जी, मांस-मदिरा से परहेज रखते। यहाँ तक की ये चप्पलों-जूतों को त्याग देते और नंगे पैर घूमते है। इनका ग्रुप हर उस गाँव में जाकर नाचता है जहाँ इन लोगो की बहन-बेटी ब्याही गयी होती है। इन 40 दिनों तक ये दुसरे लोगो के घर ही भोजन करते है। गवरी के बाद उसे न्योतने वाली बहन-बेटी उन्हें कपडे भेंट करती है जिसे ‘पहरावनी’ कहते है। एक ग्रुप में बच्चो से लेकर बड़ो तक कम से कम 40-50 कलाकार तक होते है। ये सभी कलाकार पुरुष होते है और इन्हें ‘खेल्ये’ कहा जाता है। एक गाँव हर तीसरे साल गवरी लेता है।
गवरी के अलग-अलग पात्र –
‘बूढ़िया’ और ‘राईमाता’ – ये दो मुख्य पात्र होते है । बूढ़िया भगवान् शिव को कहते है और राईमाता माँ पार्वती। इसलिए दर्शक भी इन दोनों की पूजा करते है। गवरी का नायक बूढ़िया होता है जो भगवान् शिव और भस्मासुर का प्रतीक होता है जो हाथ में लकड़ी का बना खांडा, कमर में मोटे-मोटे घुंघरू की बनी पट्टी, जांघिया और चेहरे पर मुकौटा लिए होता है। ये बाकी पात्रो के विपरीत दिशा में घूम कर नृत्य करता है। राईमाता नाटक की नायिका होती है। चूँकि सभी कलाकार पुरुष होते है इसलिए राईमाता का किरदार भी एक पुरुष कलाकार ही निभाता है।
अन्य प्रमुख किरदारों में झामटिया और कुटकड़िया होते है ।
गवरी में खेले जाने वाले मुख्य खेल इस प्रकार है –
मीणा–बंजारा
हठिया
कालका
कान्हा-गूजरी
शंकरिया
दाणी जी
बाणीया
चप्ल्याचोर
देवी अम्बाव
कंजर
खेतुड़ी और
बादशाह की सवारी
एक ऐतेहासिक खेल भी होता है जिसे बीबी,बादशाह और महाराणा प्रताप नाम दिया गया ।
गड़ावण-वळावण –
गवरी का समापन ‘गड़ावण-वळावण’ से होता है। ‘गड़ावण’ के दिन पार्वती माँ की मूर्ति बनाई जाती है और जिस दिन इसे विसर्जित करते है उस दिन को ‘वळावण’ कहते है। गड़ावण के दिन शाम में गवरी के कलाकार गाँव के कुम्हार के पास जाते है और उनसे मिट्टी के घोड़े पर बिराजी गौरजा माता की प्रतिमा बनवाते है। इस मूर्ति को फिर घाजे-बाजे के साथ देवरे ले जाया जाता है जहाँ रात भर गवरी खेली जाती है। अगले दिन गाँव के सभी जाति के लोग मिलकर गौरजा माता की यात्रा निकालते है। प्रतिमा को पानी का स्त्रोत देख कर वहाँ विसर्जित कर दिया जाता है। इसके बाद इन कलाकारों के लिए उनके रिश्तेदार कपड़े लाते है जिसे ‘पहरावनी’ कहा जाता है। विसर्जन के बाद लोगो को पेड़ो की रखवाली का सन्देश देने के लिए नाटक ‘बडलिया हिंदवा’ खेला जाता है इसके आलावा ‘भियावाड’ नाटक भी होता है।
और इस तरह लगातार 40 दिनों तक की जाने वाली गवरी का समापन होता है। इन 40 दिनों तक कलाकार पूरी तरह से अपने पात्र को समर्पित रहता है और उसके साथ न्याय करता है।
गवरी के बारे में कुछ जानकारियों के लिए राजस्थान स्टडी ब्लॉग का शुक्रिया।
“जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वो उन्नत राष्ट्र नहीं हो सकता“ – डॉ राजेंद्र प्रसाद
14 सितम्बर यानी आज का दिन हिंदी दिवस के रूप में मनाया जा रहा है । 14 सितम्बर, 1949 के दिन ही यूनियन ने हिंदी को अपनी अधिकारिक भाषा घोषित किया था । इस महत्वपूर्ण अवसर पर हम आप लोगो के सामने उदयपुर के ख्यातनाम कवि श्री नंद चतुर्वेदी और रति सक्सेना द्वारा लिखित दो कविता लेकर आये है ।
ये तो हम सभी जानते ही है कि मेवाड़ की धरती ने अनेक कवियों और लेखकों को जन्म दिया है पर नंद चतुर्वेदी एवं रति सक्सेना की कवितायें न केवल आपको अपना संसार बनाने की छूट देंगी लेकिन साथ ही साथ उनकी ये कविता अंत में एक संदेश भी ज़रूर दे जाती है ।
आप खुद पढ़ कर मज़ा लीजिये ।
नन्द चतुर्वेदी –
प्रेम के बारे में
हवा से मैंने प्रेम के बारे में पूछा
वह उदास वृक्षों के पास चली गयी
सूरज से पूछा
वो निश्चिन्त चट्टानों पर सोया रहा
चन्द्रमा से मैंने पूछा प्रेम के बारे में
वो इंतज़ार करता रहा लहरों और लौटती हुई पूर्णिमा का
पृथ्वी ही बची थी
प्रेम के बारे में बताने के लिए
जहाँ मृत्यु थी और ज़िन्दगी
सन्नाटा था और संगीत
लड़कियाँ थी और लड़के
हजारों बार वे मिले थे और कभी नहीं
समुद्र था और तैरते हुए जहाज
एकांत था और सभाएं
प्रेम के दिन थे अनंत
और एक दिन था
यहाँ एक शहर था सुनसान
और प्रतीक्षा थी यहाँ जो रह रहे थे
वो कहीं चले गये थे
थके और बोझा ढोते
जो थक गये थे लौट आये थे
यहाँ राख थी और लाल कनेर
प्रेम था और हाहाकार ।
रति सक्सेना –
भले घर की लडकियाँ
भले घर की लडकियाँ
पतंगें नहीं उडाया करतीं
पतंगों में रंग होते हैं
रंगों में इच्छाएँ होती है
इच्छाएँ डँस जाती है
पतंगे कागजी होती है
कागज फट जाते है
देह अपवित्र बन जाती है
पतंगों में डोर होती है
डोर छुट जाती है
राह भटका देती है
पतंगों मे उडान होती है
बादलों से टकराहट होती है
नसें तडका देती हैं
तभी तो
भले घर की लड़कियाँ
पतंगे नहीं उड़ाया करतीं ।
अब हम आपको हिंदी भाषा से जुड़ी कुछ मजेदार बातों के साथ छोड़ जाते हैं :-
हिंदी को अपना नाम पर्शियन शब्द ‘हिन्द’ से मिला ।
हिंदी में छपी पहली किताब ‘प्रेम सागर’ मानी जाती है । इसे लल्लू लाल ने 1805 में लिखा था । ये किताब भगवान् श्री कृष्णा के दिए संदेशों पर आधारित थी ।
1881 में बिहार ने उर्दू की जगह हिंदी को अपनी अधिकारिक राज्यीय भाषा का दर्जा दिया । हिंदी भाषा को अपनाने वाला वो भारत का पहला राज्य बना ।
‘समाचार सुधावर्षण’ पहली हिंदी दैनिक पत्रिका थी, जो 1854 में कलकत्ता से शुरू हुई ।
हिंदी भारत के आलावा मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद एंड टोबेगो और नेपाल में भी बोली जाती है ।
आज की तारीख में करीब 500 मिलियन लोग हिंदी बोलते है या जानते है ।
पहला हिंदी टाइपराइटर 1930 में आया ।
हिंदी उन सात भाषाओँ में शामिल है जो वेब एड्रेस बनाने के काम आती है ।
हिंदी और उर्दू को समानताओं के कारण एक दुसरे की बहन माना जाता है ।
तो है न हिंदी मजेदार भाषा!!! भाई अंग्रेजी अपनी जगह है । पर जो मज़ा हिंदी बोलने और सुनने में आता है वो किसी और भाषा में कहाँ ?
खैर कवितायें और भी थी आपके साथ साझा करने को पर फिर हमने सोचा कि आज आप लोग आपकी अपनी पसंद की हिंदी कविता या कहानी कमेंट कर उदयपुर के लोगो तक पहुचायें । इसी बहाने शहर के लोगो को हिंदी को और करीब से जानने का मौका मिल जायेगा और साथ ही साथ नई-नई कवितायें पढने को भी मिल जाएगी ।
आज हिंदी दिवस को इसी तरह कुछ ख़ास बनाते है । हमने तो दो कवितायें लिख भेजी है, अब आप लोगों की बारी है …
‘दादू’ !! आज भी इसी नाम से पूरा उदयपुर श्री हेमंत पंड्या ‘दादू’ को याद करता है। प्रख्यात रंगकर्मी, अभिनेता, निर्देशक, बांसुरी वादक और न जाने क्या-क्या। जीवन के कई रंग थे ‘दादू’ में। शायद तभी इसे ‘रंगांजलि’ नाम दिया गया। सन् 2005 में ‘दादू’ के ही शिष्यों के द्वारा शुरू किया ये थिएटर फेस्टिवल इस साल अपने 10 बरस पुरे करने जा रहा है। ‘रंगांजलि’ पूरी तरह से ‘दादू’ और उनके किये गए कार्यो को समर्पित है। अच्छी बात ये है कि फेस्टिवल किसी भी तरह से आर्थिक लाभ के लिए नहीं किया जाता है। ये उनके शिष्यों द्वारा उन्हें ट्रिब्यूट देने की एक छोटी सी कोशिश है।
हर वर्ष की तरह इस बार भी ‘नादब्रम्ह’ संस्था उदयपुर वासियों के लिए ‘रंगांजलि’ आयोजित करवा रहा है। इस साल ‘रंगांजलि’ में प्रभा दीक्षित लिखित कहानी ‘अन्दर आना मना है’ का नाटकीय रूप में मंचन किया जायेगा। इस नाटक को शहर के ही जाने-माने रंगकर्मी श्री शिवराज सोनवाल डायरेक्ट कर रहे है। ये नाटक इसी महीने की 10 तारीख़ को शिल्पग्राम के ‘दर्पण सभागार’ में खेला जायेगा। इस नाटक का ये तीसरा शो होगा इससे पहले यही टीम संगीत नाटक अकादमी के ‘रंग प्रतिभा थिएटर फेस्ट’ और जवाहर कला केंद्र, जयपुर में अपनी प्रस्तुति दे चुकी है। ‘नादब्रम्ह’ संस्था तीन बार ‘ॐ शिवपुरी’ थिएटर फेस्ट जा चुकी है। इस टीम से निकले थिएटर आर्टिस्ट आज की तारीख़ में दिल्ली, मुंबई में उदयपुर का नाम रोशन कर रहे है। इस बार ‘रंगांजलि’ के 10वे अवसर पर शहर के रंगकर्मी थोड़े भावुक ज़रूर है पर उत्साह में किसी भी प्रकार की कमी नहीं दिख रही है, और यही उत्साह उनके द्वारा दी जानी परफॉरमेंस में आप सभी शहर वासियों को भावनात्मक रूप से जोड़ने का प्रयास करेगा, जैसा ‘दादू’ के साथ देखने को मिलता था।
आइये एक नज़र डालते है ‘रंगांजलि’ के अब तक के सफ़र पर :-
“ हमनें आपसे वादा किया था कि पिछले आर्टिकल “कुछ ख़ास है ये इमारत – Ghanta Ghar” से हम उदयपुर से जुड़ी जानी-अनजानी जगहों, किस्से-कहानियों की एक सीरिज़ शुरू कर रहे है जो आप लोगो को अपने शहर से जोड़ने का प्रयास करेगी । ताकि आप अपने ही शहर को और अच्छे से जाने, उन जगहों की बात करें, वहाँ जायें, जो अब तक आपकी पहुँच से दूर थी । उन कहानियों और किस्सों को जीयें जो आपके दादा-परदादा, पापा-मम्मी सुनते और सुनाते आये है । “
उसी सीरीज़ में इस बार हम आपके सामने“उदयपुर के घाट – Ghats of Udaipur” के बारें में कुछ जानकारियाँ और तथ्यों को लेकर आये है । उम्मीद करते है कि आप इससे अपना जुड़ाव महसूस करेंगे।
घाट की परिभाषा – घाट उन सीढियों के समूह को कहते है, जो किसी छोटे तालाब, झील या फिर किसी नदी के किनारे बना हुआ हो, घाट कहलाता है ।
उदयपुर में घाट की कमी नहीं है, यहाँ इतने घाट है कि अगर इसे ‘राजस्थान का बनारस’ बोला जाए तो कोई गलत बात नहीं होगी । पर देखा जाए तो कुछ दो या तीन घाट को छोड़कर बाकियों पर कभी बात हुई नहीं । शहरकोट के घरों में होती है, पर कहीं ये उन घरों तक ही सिमट के न रह जाए, इस बात का डर लगता है । उन दो या तीन घाट को अगर छोड़ दिया जाए तो बाकी बचे हुए घाट को बहुत कम लोग जानते है । आसपास बसे लोगो के अलावा शायद ही कोई जाता होगा । इसी वजह से कईयों की हालत ख़राब भी पड़ी हुई है । सिटी वाल के बाहर एक नया उदयपुर बस रहा है । ये उदयपुर शहर के, बाहर तो है, पर शहरकोट के लोगो से ज्यादा शहरी है । ये लोग उदयपुर घूमते है पर इन्हें उदयपुर के किस्से-कहानियों की ख़बर ज़रा कम है । इस सिरीज़ में फोकस इन्ही बातों पर रहेगा । ये सब रिसर्च करने के दौरान अच्छी बात ये जानने को मिली कि यंगस्टर्स इन सबके बारे में क्यूरियस है और बहुत कुछ जानना चाहते है पर उन्हें ये सब जानने और पढ़ने का प्लेटफार्म नहीं मिल रहा है । हमारी यहीं कोशिश रहेगी, आप लोगो की ये खोज हम तक आकर रुक जाए ।
हम आर्टिकल को उन घाट से शुरू करेंगे जो अब तक लिखे ना गए । अब आप सीधा घाट का रुख़ करिए और इमेजिनरी दुनिया में तशरीफ़ ले आइये ।
धोबी घाट : सबसे पहले बता दे कि इस घाट का आमिर खान से कोई लेना देना नहीं है । ये उदयविलास के पीछे की और पिछोला का आख़िरी घाट है । इसके बाद आपको और कोई घाट नहीं मिलेगा । यहाँ चूँकि धोबी कपड़े धोने आते है इसलिए इसका नाम धोबी घाट पड़ गया । यहाँ पास ही श्मशान घाट भी है, जहाँ आसपास बसे लोग अंतिम संस्कार की प्रक्रिया के लिए आते है ।
नाथी घाट : इस घाट की हमें एक शानदार स्टोरी पता चली । नाथी बाई नाम से एक औरत हुआ करती थी, 19वी सदी की शुरुआत में । ये घाट उन्ही के द्वारा बनाया गया । उनके कोई बेटा या बेटी नहीं होने से उन्होंने अपने पास रखे 10-20 रुपयों से ये घाट बनाया । एक आंटी हमें बताती है मेवाड़ी में, ‘नाथी बाई कहती ही कि अणा रिपया रा म्हूं कई करूँगा, म्हारो धाम तो अटे ही वणाऊंगा ।‘ और इस तरह उन्होंने अपने पास रखे कुछ रुपयों से ये घाट बनाया ।
महाराजा घाट : ‘महाराजा घाट’ को खोजने में हमें भी पसीना आ गया । ये घाट बहुत छोटा है और बहुत ही छुपा हुआ भी है । यहीं पास में वाळी बाई रहती है, उन्होंने ही इसके बारे में बताया । इस घाट पर पहले महाराजा/बाबा/योगी लोग आकर बैठा करते थे और नहाते थे । इसलिए ये महाराजा घाट कहलाया ।
पंचदेवरिया घाट : गणगौर घाट के ठीक सामने आपको एक छोटा सा घाट दिखेगा जहाँ एक मंदिर भी बना हुआ है, दरअसल ये मंदिर नहीं बल्कि पांच छोटी छोटी देवरिया है, जिन्हें पंचदेवरियां कहा जाता है । उन्ही की वजह से इसे पंचदेवरिया घाट बोलते है । कुछ लोग इसे ‘फिरंगी घाट’ भी कहते है । यहाँ से आपको वाकई लगेगा की क्यूँ उदयपुर को हमने ‘राजस्थान का बनारस’ बोला ।
हनुमान घाट : ये घाट तो आप सभी जानते ही होंगे । फ़िल्मी दुनिया की ‘रामलीला’ यहीं हुई थी । हिंदी फिल्म ‘रामलीला’ की शूटिंग इसी घाट पर हुई थी । हनुमान टेम्पल की वजह से इसका नाम हनुमान घाट पड़ गया । इसके ठीक सामने आपको गणगौर घाट दिख जायेगा ।
हामला हारो/रोव्णिया घाट(1) : अब आपको ले चलते है ‘हामला हारो/रोव्णिये/रोवनिये घाट’ पर । इसका नाम इसके काम को बयाँ कर रहा है । ‘रोव्णिया’ मेवाड़ी शब्द है जिसका मतलब होता है ‘रोने वाला’, और चूँकि ये पैदल पुलिया के सटा हुआ है और सामने की तरफ होने की वजह से इसे ‘हामला हारो’ यानि ‘सामने वाला’ घाट भी बोला जाता है । इस घाट पर डेथ के बाद औरतें रोती हुई आती है और फिर नहाती है, इस वजह से इसका नाम ऐसा पड़ा । इस घाट को हत्थापोल घाट से जोड़ने वाली पुलिया ‘दाइजी-पुल’ नाम से जानी जाती है, जिसे फूट-ओवरब्रिज भी कहते है । यहीं पर महादेव का मंदिर, एक स्कूल और कई होटल्स भी मिल जाएगी ।
हत्थापोल(सत्यापोल) घाट : जगदीश मंदिर वाले छोर पर ‘दाइजी-पुल’ जहाँ बना है, उसे हत्थापोल घाट कहते है, पहले यहाँ घाट हुआ करता था जिस पर बाद में फुट-ओवरब्रिज बना दिया गया । ‘दाइजी-पुल’ और चांदपोल पुलिया के बीच के हिस्से को ‘अमर-कुंड’ बोला जाता है ।
रोव्णिया घाट(2) : पिछोला किनारे दो घाट ‘रोव्णिया घाट’ नाम से जाने जाते है । इस बात ने हमें भी पहले कंफ्यूज कर दिया । फिर बाद में पता चला दाइजी पुलिया के जगदीश मंदिर छोर वालों के लिए ये घाट रोव्णिया घाट है । और उस छोर वालों के लिए ‘हामला हारो’ घाट ‘रोव्णिया घाट’ है ।
मांजी का घाट : ‘मांजी का घाट’ ही अमराई घाट है, अमराई होटल होने की वजह से आज के लोग इसे अमराई घाट से ज्यादा जानते है जबकि इसका असली नाम ‘मांजी का घाट’ है । यहाँ एक मंदिर भी है जिसे ‘मांजी का मंदिर’ बोला जाता है । अंतिम संस्कार के बाद जिस तरह औरतें ‘रोव्णिया घाट’ पर जाती है वही आदमी ‘मांजी का घाट’ पर नहाने आते है । यहीं पर पूजा का कार्यक्रम और सर मुंडन का काम होता है । यहाँ से पिछोला का 270 डिग्री व्यू आता है । यहाँ से गणगौर घाट, गणगौर बोट, सिटी पैलेस, लेक पैलेस और होटल लीला पैलेस को देख सकते हो । इसे ‘एक्शन उदयपुर’ के अंतर्गत डेवेलप किया गया उसके बाद से यहाँ काफी लोग आने लग गए । यहाँ यंगस्टर्स गिटार बजाते और गाना गाते हुए मिल जायेंगे ।
नाव घाट : कुछ सालों पहले तक नाव घाट से ही नावें चलाई जाती थी जो टूरिस्ट्स को पिछोला में दर्शन करवाती थी । बाद में इस घाट को प्राइवेट कर दिया । आज की तारीख में ये दरबार का पर्सनल घाट है । अब नावों का संचालन लाल घाट से होता है ।
पिपली घाट : ये घाट आम लोगो के लिए खुला हुआ नहीं है । यहाँ सिर्फ सुरक्षा गार्ड्स को ही जाने की इजाज़त है । इसको ‘पिपली घाट’ यहाँ लगे हुए पीपल के पेड़ों की वजह से बुलाते है । इसके बाद से महल की दीवारें शुरू हो जाती है ।
बंसी घाट : बंसी घाट भी दरबार का पर्सनल घाट है जो दरबार के काम के लिए ही यूज़ होता है, यहाँ से लेक पैलेस के लिए नावें चलती है । इस घाट का नाम दरबार के ही बंसी जी के नाम पर पड़ा । ये घाट ‘गोल महल’ के नीचे बना हुआ है । यहाँ पर सुनील दत्त स्टारर ’मेरा साया’ की शूटिंग हुई थी ।
लाल घाट : आज की तारीख़ में नावों का संचालन यहीं से किया जाता है । ये गणगौर घाट के पास ही बना हुआ है । यहाँ आसपास होटल्स और गेस्ट-हाउसेस होने की वजह से टूरिस्ट्स बड़ी मात्रा में आते है । एक वजह यहाँ मिलने वाली शांति भी है ।
गणगौर घाट : इसके बारे में अब क्या ही बताया जाए आपको । ये उदयपुर की पहचान है । यहाँ न जाने कितनी ही मूवीज़, सिरिअल्स, वेडिंग शूट्स हो चुके है । यहाँ एंट्री के तीन गेट्स है जिन्हें त्रिपोलिया बोला जाता है । यहाँ पर फेमस मेवाड़ उत्सव, गणगौर पूजा होती है, जो की देखने लायक है । कोई उदयपुर घुमने आता है तो एक बार गणगौर घाट ज़रूर जाता है । यहाँ बच्चो से लेकर बड़ो, देसी से लेकर विदेसी सब तरह के लोग मिल जायेंगे । गणगौर घाट की एक बात पता चली, 1973 से पहले गणगौर घाट इतना बड़ा नहीं था जितना आज दिखाई देता है । 1973 से पहले तक गणगौर घाट त्रिपोलिया तक ही फैला हुआ था, उसके बाद उसे आगे बढाया गया ।
बोरस्ली घाट : गणगौर घाट से सटा हुआ घाट ‘बोरस्ली घाट’ के नाम से जाना जाता है । चूँकि यहाँ बोरस्ली के पेड़ बहुत है इसलिए इसका नाम ये पड़ा । ये गणगौर घाट से एक छोटी सी गुफ़ानुमा गली से जुड़ा हुआ है । इस घाट पर मंदिर बहुत ज्यादा है और हर शाम यहाँ आरती होती है । सुबह के वक़्त आसपास के बुज़ुर्ग लोग यहाँ आकर बैठते है और फिर बातों का दौर शुरू होता है । ( ये जानकारी हमें फेसबुक कमेंट्स से प्राप्त हुई, गोविन्द जी माथुर का हम शुक्रिया अदा करते है ।
ये सब लिखना तब ही आसान हो पाता है जब हमें वाळी बाई, राधावल्लभ जी व्यास, भरत जी जैसे लोग मिले । हम इन जैसे उन सभी लोगो का विशेष शुक्रिया अदा करते है जिन्होंने हमें अपना कीमती वक़्त दिया और हमारी भूख शांत की ।
ये कुछ घाट थे जिन पर हमने कुछ जानकारियाँ जुटाई और आपके सामने लेकर आये । कुछ और घाट भी है जैसे इमली घाट, बाड़ी घाट, पशु घाट उन पर हमें कुछ ज्यादा मिल नहीं पाया । अगर आप लोग उदयपुर के और भी घाट जानते है और उनसे जुड़ी कोई बात बताना चाहते है तो हमें कमेंट में ज़रूर लिख भेजिए । आपकी भेजी हुई इनफार्मेशन हमारे ही शहर के काम आयेगी ।
द ललित लक्ष्मी विलास, उदयपुर में 11-20 अगस्त तक फ़ूड फेस्टिवल चलेगा । इस दौरान लक्ष्मी विलास, उदयपुर आपके लिए लेकर आया है 10 तरह के पराठे । इस मानसून में अगर आप पराठा खाना चाहते है तो आपको कहीं इधर-उधर जाने की ज़रूरत नहीं है । इन 10 दिनों में आपको 10 अगल-अलग तरह के पराठो की वैरायटी मिलेगी वो भी रॉयल व्यू के साथ ।
फ़ूड फेस्टिवल ‘पराठा जंक्शन’ 11 अगस्त से 20 अगस्त तक चलेगा ।
कुछ चुनिन्दा पराठो के नाम इस प्रकार है : डबल डेकोर पराठा, ये आपको चीज़ स्टफिंग के साथ मिलेगा । इसके आलावा बीटरूट पराठा, चायनीज़ लिफ़ाफा पराठा, चिकन कीमा पराठा, मेवा पराठा और भी बहुत कुछ ।
जब हमने हेड शेफ़ सुदर्शन से इस आईडिया की बात करी तो उन्होंने अपने ही शब्दों में इसके पीछे की कहानी बयां कर दी,
“ जब मैं दिल्ली में था तब सुबह उठते ही पराठा और लस्सी चाहिए होती थी, उसके बाद ही पुरे दिन के काम के लिए घर से बाहर निकलता था । मैं उदयपुर आया तो देखा, यहाँ पर्टिकुलर पराठो के लिए कोई अच्छी जगह नहीं है । बस तभी ये सोच लिया था, उदयपुर को तरह-तरह के पराठे खिलाऊंगा ।”
अगर आप पंजाबी खाने का लुफ़्त राजस्थानी तौर-तरीकों से लेना चाहते है तो पराठा जंक्शन आप ही के लिए है ।
मानसून, फतेहसागर, राजस्थानी मेहमान-नवाज़ी और पंजाबी टेस्ट, इससे बेहतर क्या कॉम्बिनेशन मिलेगा ।
हर शहर का अपना एक इतिहास होता है । ये अपने अन्दर बहुत कुछ समेटे होता है । वहाँ की ज़मीन, उस ज़मीन पर रह रहे वहाँ के लोग, उनकी बनाई हुई चीज़े, उनकी सोच, उनका पहनावा और भी बहुत कुछ । ये सारी बातें उसशहर के इतिहास को ज़िंदा रखती है, उस शहर को बचाए रखती है ।
सुनाहैशहरकानक़्शाबदलगया‘महफ़ूज़‘
तोचलकेहमभीज़राअपनेघरकोदेखतेहैं
– अहमद महफ़ूज़
अहमद महफ़ूज़ साहब का ये शेर उदयपुर पर बिलकुल सही बैठता है । उदयपुर का इतिहास बहुत बड़ा है । और इस पर कितनी ही किताबें लिखी जा चुकी है, इंटरनेट, विकिपीडिया हर जगह आपको उदयपुर के बारे में पढने को मिल जायेगा । पर अब भी ऐसीं कुछ किस्से-कहानियाँ है जो अनछुई है, जिस पर कुछ लिखा नहीं गया है या बहुत कम लिखा है और लिखा भी गया है तो अभी तक लोगो की पहॅुच से दूर है ।
ऐसी ही एक इमारत बारे में हम आपको बताने जा रहे है जो उदयपुर शहर के बीचों-बीच खड़ी है वो भी 130 सालों’ से, वो है ‘घंटाघर’ या ‘क्लॉक-टावर’ । हाँ बिलकुल, इसी साल ये अपने 130 बरस पूरे कर रही है । जब इसके बारे में गूगल किया तो बड़ी ही इंटरेस्टिंग बात पता चली । इसमें लगी घड़ी ‘लंदन’ से लाई हुई थी । पर इसके अलावा हमें ज्यादा कुछ मिला नहीं । तो हम भी निकल पड़े खोजबीन करने ।
‘घंटाघर’ के बनने के पीछे एक कहानी छिपी है, जिसे ज्यादातर लोग नहीं जानते है । पर ये आपको वह आसपास की दुकानों में बैठे बुज़ुर्ग लोगो से पता चल जाएगी । हालाकिं वे अब कम संख्या में ही बचे है । हमने उन्ही में से एक जिनका नाम चतुर्भुज था, उनसे बात करी । बहुत शांत, गंभीर साथ ही साथ थोड़े मजाकियां भी । उन्होंने मुझे वो सब बातें बताई जो शायद आपको इंटरनेट पर कतई न मिले । कुछ पॉइंट्स शेयर कर रहा हूँ जो थोड़े उन्होंने बताये कुछ कहीं और से पता चली :-
ये करीब 130 बरस पुरानी है ।
ये सज्जन सिंह जी मेवाड़ के टाइम पर बनी ।
इसके बनने के पीछे का कारण बोहरा और महाजनो के बीच हुआ विवाद है, तत्कालीन महाराणा ने दोनों समुदाय को सज़ा के रूप में 5000-5000 रुपयों का हर्जाना भरवाया ।
इसीलिए ये भी कहा जाता है कि ये नजराने-जुर्माने की रक़म से बनी है ।
इसमें लगी घड़ी ‘लन्दन’ से लाई हुई थी ।
आज ‘घंटाघर’ के सामने जहाँ पार्किंग होती है वहाँ पहले एक बाज़ार हुआ करता था जिसे इमरजेंसी के दौरान तोड़ दिया गया ।
‘घंटाघर’ के ठीक नीचे एक शानदार बाज़ार लगता था जहां 9 दुकाने होती थी, इस वजह से उसे ‘नौ-हठिया’ कहा गया । ये दुकाने ज़मीन से कुछ नीचे होने के कारण अक्सर बारिश में पानी से भर जाती थी ।
‘घंटाघर’ पुलिस-चौकी शहर की सबसे पुरानी पुलिस-चौकी है, इससे पहले वहाँ लोग रहा करते थे । इसी चौकी के ठीक नीचे आज जो सोने-चांदी की दुकानें है तब यहाँ घोड़े बांधे जाते थे।
इस बिल्डिंग का स्ट्रक्चर अपने आप में यूनिक है, इसके अलावा शहर में और भी पब्लिक-वॉच है पर ऐसी बनावट और डिजाईन के नहीं मिलेंगे।
इसकी ऊँचाई कुछ 50 फीट की बताते है और इसके चारो तरफ चार घड़ियाँ है जो चारो दिशाओं में एक जैसा समय दिखाती है ।
ये शहर की पहली पब्लिक-वाच थी । इससे पहले उदयपुर के लोग ‘जल-घड़ियाँ’ इस्तेमाल करते थे, हालांकि वो ऊँचे तबके के लोगो के पास ही हुआ करती थी ।
इसके अन्दर ‘सगस जी बावजी’ का मंदिर भी बना हुआ है ।
फेसबुक पर हमें गोविन्द जी माथुर लिखते है, ‘ घंटा-घर के नीचे जो मार्केट लगता था उसे ‘छोटी बोहरवाड़ी’ कहा जाता था । यहाँ मौजूद कॉस्मेटिक्स और मणिहारी की दुकानें लड़कियों और महिलाओं के लिये आकर्षण का केंद्र हुआ करती थी ।
देवानंद साहब की ‘गाइड’ पिक्चर का फेमस गाना ‘कांटो से खींच के ये आँचल’ यहीं फिल्माया गया था ।
ये कुछजानकारियाँ थी जो हम चाहते थे कि आप तक पहुचें । आप इसे पढ़े, जाने और जो नहीं जानते है उन्हें भी बताएं । अगर आप भी ऐसा मानते है की ऐसे ही उदयपुर की अनजानी-अनछुई जगहों, किस्सों-कहानियों को उदयपुरवालों के सामने लाया जाए तो आप कमेंट्स कर के हमें बताये । आप लोगो के ध्यान में अगर ऐसी कोई जानकारी हो तो हमें कमेंट्स में लिख भेजिए, हम उसे उदयपुर के सामने लेकर आयेंगे ।