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Jagannath Rath Yatra in Udaipur

About the people of Mewar, it has been rightly said that they have saat vaar and nau tauhar that means that there are seven days in a week but nine festivals to celebrate. They are always so busy celebrating festivals that hardly does the din of one dies, preparations are afoot for celebrating the next one.

One such procession is the annual Jagannath Yatra that starts from the famous Jagdish Mandir. Related to the Yatra is a fascinating ritual. The idol of Bhagwan Jagannath, who is worshipped as a living being is bathed every day. However, on Jestha Shukla Poornima, he is bathed with water of 108 golden pitchers. He is also offered mango juice in big quantity. No wonder he gets sick. To keep him warm, he is shifted from his ‘Singhasan’ to a resting place in the same room. For the next fortnight, he is given ‘Kada’ by the priests and is looked after by sister Subhadra’s older brother Balbhadra and Sudharshan chakra. He is given only fruits to eat.

The devotees do not get his ‘darshan’. But they visit the temple regularly to find out how is he getting on. There is no ‘Puja archana’ with ringing of bells. When he gets well on Ashad Shukla Ekam, a big variety of food is offered to him. His mother Devki used to give him Dal & Bhaat (rice) and roti. He relished it. So his devotees bring these food items for him. Regular ‘pooja’ also starts on this day. The devotees waiting for a fortnight for darshan, the lord himself goes round the town to bless them.

According to Pandit Hukum Raj, the Mukhya Pujan of Jagdish Mandir, there is a long history of Jagannath Yatra. The tradition started about 365 years ago when the ‘Pran pratishtha’ of the Mandir was performed and the idol of the lord was taken only around the premises of the temple. When the state of Mewar was merged with greater Rajasthan, there were difficulties in the Yatra as earlier it took place in the presence of the erstwhile rulers. After the passing away of Maharana Bhupal Singh, efforts were made to revive it. Due to the efforts of Raghunand, the erstwhile ‘pujari’ of the temple, various sects of the Sanataris come forward together for the organization of the Yatri. The small beginning has now become a big event with the active participation of several communities. It was decided to take the procession around the city about twenty years ago. The old ‘rath’ (chariot) was taken down the stairs of the temple by Raghunandan which highly elated him and the idol mounted on a camel cart went round the various parts of the city.

Cleaning and beautification of the ‘rath’ started days in advance by a small team of specialists. The silver white chariot has wooden horses and this year, it was painted with color, oil paint. A couple of days before the yatra, after the ‘evening aarti’ and after sprinkling gangajal and goumutra and setting up Ganesh in Jagdish Chowk the chariot was brought there in parts.

This year for the lord’s ‘parikrama’ in the premises of the 300 year rath has been replaced by a new one and gifted by a devout couple of Udaipur. The ‘rath’ was taken out in a procession led by Goswami Vageesh Kumar of Dhwarkadheesh Mandir, Kankroli, Mahendra Singh Mewar and Vishwaraj Singh Mewar.

The ‘rath’ was mounted on a camel cart. Dhwarkadheesh Prabhu band was in attendance. Women dressed in saffron clothes, carrying pitchers on their head were part of the big procession. The colorful procession that started from Sheetlamata Mandir, Samore Bagh passed through Bhatiyani chohatta came to Jagdish mandir.

From Jagannath Dham located in Hiran Magri Sector 7 would start the Shahi Yatra of Jagannath Swami, Subhadara, Balbhadra and Sudharshan Chakra on the lines of the processing in Jagannath Puri, Odisha. It would start from the Mandir premises at 11 a.m and passing through Jodar Nursery, Savina chouraha, Phal-Subzi Mandir, Reti stand, Shiv Mandir, Macchla magra, Patel Circle, Kishan Pole, Rang Niwas and bhatiyani Chohatta join the main procession at Jagdish Chowk. There would be ‘aarti’ at different places including the Maha-aarti with 31,000 ‘dias’from 8:30 to 9:30 pm in Bapu Bazar, according to convenor Dr Pradeep Kumawat.

The preparation for the big event had started weeks in advance. Nimantran Patrika was prepared as the members of rathyatra samiti met the mahants of various sects. Political and social leaders and public in general to participate in the procession. The route of the yatra Ghantaghar, Bada Bazaar, mochiwada, Bhadbhuja Ghati, Bhopalwadi, Santoshi Mata mandir, teej ka chowk, Dhanmandi, Marshal chouraha, etc. has been decorated with flags. Several religious and social organizations would welcome the yatra at different places.

For the first time, a helicopter would shower 400 kg rose leaves at Jagdish chowk in 5 rounds. The yatra would be welcomed back at Jagdish mandir with aarti attended by thousands of devotees. Arrangement of mahaprasad for 8000 to 10,000 has also been made.


The eagerly awaited yatra not only brings about harmony among different sects but also provides an opportunity for worship that enhances the religious faith.

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जानिए PM मोदी ने क्यों सराहा उदयपुर की इस बावड़ी को ?

पीएम नरेंद्र मोदी के ‘मन की बात’ (MannKiBaat) से चर्चा में आई उदयपुर शहर की ऐतिहासिक धरोहर, “सुरतान बावड़ी”  जो 305 साल पुरानी है। रविवार को पीएम ने इस धरोहर को बचाने वाले युवाओं की इस पहल को सराहा है। पीएम ने उदयपुर के युवाओं के प्रयासों को सराहते हुये ट्वीट करके यह कहा की आज दुनियाभर में इस बदलाव की चर्चा हो रही है। 

 दरअसल उदयपुर शहर के बेदला गांव में बरसों पुरानी एक बावड़ी है, जिसका निर्माण बरसों पहले बेदला गांव के “राव सुल्तान सिंह” ने 1717 में  करवाया था। जिसके बाद इसे “सुल्तान बावड़ी व सुरतान बावड़ी” के नाम से जाना जाने लगा। पुराने समय में इस बावड़ी का पानी लोगो के घर सप्लाई होता था, तब तक इस बावड़ी की दशा सही थी। परन्तु धीरे-धीरे इस बावड़ी में लोगो ने कचरा फेंकना शुरू कर दिया जिससे ये बावड़ी वीरान हो गई और इस ऐतिहासिक बावड़ी की दुर्दशा ख़राब हो गई जिसे कोई देखता भी नहीं है। बावड़ी में जगह -जगह पेड़ पौधे उगे हुए हुए थे, पत्थर टूट रहे थे, जूते, प्लास्टिक, बैग,जैसे कूड़ा कचरा भरा था और बावड़ी का पानी भी पूरी तरह पीला पड़ चूका था। 

बरसों पुरानी पड़ी इस बावड़ी को शहर के कुछ जागरूक युवाओं ने इसकी कायाकल्प को पूरी तरह बदल दिया है। आर्किटेक्ट सुनील लढा करीब 9 माह पहले यहां घूमने आए और उनकी नजर इस बावड़ी पर पड़ी। सुनील लढा और अमित गौरव की टीम ने इस टूटी पड़ी बेजान वीरान बावड़ी को विलुप्त होने से बचाया है। आर्किटेक्ट होने के नाते सुनील लढा ने इस बावडी को एक आर्किटेक्ट के नजरिये से ही देखा और इसके पीछे की खूबसूरती को जान लिया और इसका कायाकल्प करने की ठान ली। इसके बाद सुनील ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट के जरिए इसे आम जनता में फैलाया और साफ़ सफाई में सहभागिता निभाने की अपील की। उनकी ये अपील रंग लाई और लोगो ने इस काम में उनकी मदद भी की। लोगो की सहभागिता की वजह से ये बावड़ी साफ़ हो गई और उसी दशा में आ गई जो आज से बरसों पहले थी।  

सुल्तान से सुरताल तक 

सुल्तान बावड़ी की सफाई के इस मिशन का नाम ‘सुल्तान से सुरताल तक’ दिया है। युवाओं के कड़े परिश्रम और मेहनत के साथ न सिर्फ बावड़ियों की कायाकल्प हुई बल्कि इसे, संगीत के सुर और ताल से भी जोड़ दिया गया है। ASAP अकादमिक फाउंडेशन के जनसमूह से जुड़े सुनील लढा ने ये भी बताया की बावड़ी की इस सफाई से पहले कागज़ पर इसका चित्र बनाया। फिर टीम के साथ इसकी जीर्णोद्धार की रूपरेखा तय की। श्रमदान करके इसे साफ़ तो कर लिया गया लेकिन उसके बाद युवाओं को जोड़ने के लिए यहाँ कभी म्यूजिक तो कभी पेंटिंग्स के इवेंट करने लगे। जल स्त्रोतों के प्रति, धर्म से जुड़ाव और बावड़ी को पवित्र रखने के लिए हरिद्वार से गंगा जल मंगवा कर ग्रामीणों के हाथ से ही इसमें प्रवाहित कराया गया। युवाओं को सुर और तान समेत अन्य एक्टिविटी से भी जोड़ा गया।

जागरूक लोगों का मकसद इसे जीवित करना था

ऐसे में आज उसकी स्थिति पहले की तुलना में काफी बेहतर नजर आती है। प्रधानमंत्री ने कहा कि इस सफल प्रयास की सबसे खास बात यह है कि इसकी चर्चा हर तरफ है, इसे विदेश से भी लोग देखने के लिए आने लगे हैं। मोदी जी ने ये भी कहा की आधुनिकता के इस दौर में हम धरोहरों और विरासतों को नहीं सहज पा रहे है। विलुप्त होती बावड़ियां इसका उदहारण है। देश में शायद ही ऐसा कोई गाँव या शहर होगा, जहां बावड़ियां न हो। आज इनकी स्थिति बदतर है। सरकारों को भी इन्हें सहेजने के प्रयासों में सफलता नहीं मिली। पीएम ने ये भी कहा की उदयपुर में बात सिर्फ सुरतान बावड़ी को साफ़ करने तक सिमित नहीं थी, जागरूक लोगों का मकसद इसे जीवित करना था।   

सुरतान बावड़ी पर तो एक शख्स की निगाह पड़ी जिस वजह से उसे उसकी वास्तविक हालत में लाया गया। पर न जाने शहर में ऐसी कितनी सारी ऐतिहासिक धरोहरे है, जिनकी दुर्दशा हो रही है जो जीर्ण-शीर्ण हालत में पड़ी है। जिस पर न तो आज दिन तक किसी की नज़र पड़ी और न ही इसके बारे में किसी को कुछ पता है और अगर नजर भी गई है तो किसी ने भी उस पर एक्शन नहीं लिया। उन युवाओं की तरह हम सब को भी हमारी ऐतिहासिक धरोहर के साथ-साथ शहर को स्वच्छ रखने लिए जागरूक होना ही होगा। उनके एक कदम ने आज उदयपुर का नाम पूरे भारत में रोशन किया है, तो शहर का एक-एक व्यक्ति अगर जागरूक होगा और ऐसे कदम उठाएगा तो हमारा शहर उदयपुर में स्वच्छता के मामले में नंबर वन बन सकता है। अगर जरुरत है तो हर इंसान को जागरूक होने की, आज तो सुरतान बावड़ी सामने आई है पता नहीं अब न जाने और भी कितनी सारी ऐसी ऐतिहासिक धरोहर है, जो सामने आ जाए।

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आखिर ये कुरीति थमने का नाम क्यों नहीं लेती ?

हिन्दू संस्कृति में एक व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक सोलह तरह के पर्व उत्सव होते है जिन्हें संस्कारों का नाम दिया जाता हैं। जिनमें विवाह एक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया हैं, प्रत्येक दौर में विवाह को दो पवित्र भावनाओं के बंधन के रूप में स्वीकृति दी गई जो अगले सात जन्मों तक एक दूसरे का साथ निभाए। बदलते वक्त के साथ विवाह संस्कार में कई तरह की बुराइयां सम्मिलित हो गई और इन कुरीतियों के चलते विवाह व्यवस्था विकृति का शिकार हो गई। जिसका एक स्वरूप हम बाल विवाह अथवा अनमेल विवाह के रूप में देखते है। यह कुरीति भारतीय समाज के लिए अभिशाप साबित हो रहा हैं।

बाल विवाह की कुप्रथा-
ऐसा नहीं की यह कुप्रथा का प्रचलन भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पहले से है, जब अंग्रेजी शासको ने भारत को बंधी बनाया था तब विदेशी शासक बेटियों को भोग की वस्तुए समझकर उन्हें ले जाते थे ऐसे में गरीब निम्न वर्गीय परिवार ने बेटियों का बचपन में विवाह करवाना शुरू कर दिया था और ऐसे दौर में यह कुप्रथा का प्रचलन शुरू हो गया। मध्यकाल में एक दौर ऐसा भी आया जब बेटी के जन्म को अशुभ माना जाने लगा। शिक्षा के अभाव तथा स्वतंत्रता न होने के कारण लड़कियाँ इसका विरोध भी नहीं कर पाती थी। छोटी उम्र में विवाह हो जाने के कारण दहेज भी कम देना पड़ता था। इस कारण से मध्यम तथा निम्न वर्गीय परिवारों में बाल विवाह की प्रथा ने अपनी जड़े गहरी जमा ली थोड़ी सी सहूलियत के लिए शुरू हुई ये प्रथाएं आज बेटी के जीवन का अभिशाप बन गई हैं। इस गलत परम्परा को निरंतर आगे बढ़ाया जा रहा हैं। बेटी को कम उम्र में ही ब्याह दिया जाता है जिससे कई तरह कि समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं। कम उम्र में विवाह से बालिका के शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य में बाधक तो हैं ही साथ ही जल्दी संतानोत्पत्ति होने से जनसंख्या में भी असीमित वृद्धि हो रही हैं। इन सब कारणों से बाल विवाह एक सभ्य समाज के लिए अभिशाप ही हैं।

बाल विवाह को रोकने के लिए सरकार कितने कदम उठा रही है, कितने जागरूकता अभियान और योजनाएं आदि चला रही है लेकिन यह कुरीति आखिर थमने का नाम कहा लेती है। पारिवार के दबाव में भी कुछ लड़कियों के बाल विवाह हो जाते है, आधे लोग अपनी गरीबी की वजह से बाल विवाह करवा देते है और कुछ लोग दहेज़ कम देना पड़े इस वजह से।

इसी तरह अपने प्रदेश उदयपुर में भी यह प्रथा अभी तक बरकरार है, प्रदेश में हर चौथी महिला का बाल विवाह हो जाता है। यह खुलासा राष्ट्रीय स्वास्थय सर्वेक्षण (एनएचएफएस -5) की रिपोर्ट साल 2019-2021 में हुआ। रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान का देश में बाल विवाह का 7वां नंबर है। कुल 25.4 प्रतिशत महिलाओं के बाल विवाह हुए हैं। प्रदेश में 2018 से 2021 के दौरान कुल 1216 बाल विवाह हुए है सबसे ज्यादा मामला अलवर, जोधपुर और उदयपुर में आए है।

उदयपुर में 64 बाल विवाह हो चुके है। ये मामला शहरी क्षेत्रों में 15.1 प्रतिशत और ग्रामीण इलाके में 28.3 प्रतिशत तक रहा। इस से पहले की रिपोर्ट साल 2015-2016 में महिला बाल विवाह में यह मामला 35.4% रहा। हाल ही जारी रिपोर्ट में संभाग के चित्तौडगढ़ में 42.6 % सबसे ज्यादा बाल विवाह के मामले सामने आए है, भीलवाड़ा में 41.8%, झालावर में 37.8% ,उदयपुर में 18.2%, गंगानगर में 13.6%, कोटा में 13.2%, और पाली में 11.8% रहा।

बाल विवाह में आई गिरावट –
सरकार ने बाल विवाह के खिलाफ कई अभियान बनाए है, बाल संरक्षण की अध्यक्ष संगीत बेनीवाल बताती है कि बाल विवाह के मामले रोकने के लिए नए -नए कार्यक्रम पर काम हो रहा है। ” चुप्पी तोड़ो, हमसे बोलो”, बाल विवाह अपराध है और बाल विवाह को न जैसे कार्यक्रम के जरिए एनजीओ स्वयंसेवी संगठन के माध्यम से इसे रोकने में लगे हुए है ग्रामीण क्षेत्रो में लगातार जागरूकता अभियान चलाए जा रहे है इस से बाल विवाह के मामले में गिरावट आई है, बच्चे अब खुद ही सतर्कता रखने लगे है और ऐसी स्थिति में वे स्वयं ही थाने चले जाते है और पुलिस प्रशासन को सुचना देते है या कॉल कर देते है।

अब बच्चे भी हो रहे है जागरूक –
पिछले साल नवंबर में एक बच्ची का बाल विवाह होना था उसने हिम्मत करके इसकी सुचना दी थी तब अध्यक्ष संगीता बेनीवाल ने लड़की के परिजनों को समझाया भी था पर उसके परिजन के नहीं मानने पर बच्ची को बालिका गृह में रखा गया था।

बाल विवाह के मामलों में कमी –
देश में लड़कियों की शादी की सही उम्र 18 वर्ष है और लड़के की 21वर्ष। पिछले साल के मुताबिक अभी की रिपोर्ट दोनों का अगर आंकलन किया जाए तो पिछली रिपोर्ट से इस बार 10% कमी आई है। पिछली सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक़ महिला बाल विवाह 35.4 % रहा और अब यह आंकड़ा 25.4% फीसदी रहा।

कम उम्र में बच्चों की शादी कर देने से उनके स्वास्थ्य, मानसिक विकास और खुशहाल जीवन पर असर पड़ता है। यह उम्र उनके खेलने कूदने की होती है, इस तरह उनकी जल्दी शादी करवा कर शादी के इस बंधनो में बाँध देना कहा तक सही है ? पढ़ने लिखने की उम्र में उन पर घर परिवार के काम का बोझ डाल देना कहां तक सही है ? सपनो के पंख को खुलने से पहले ही उन्हें इस प्रकार तोड़ देना कहा तक उचित है ? क्या उनसे इस प्रकार उनका बचपन छीन लेना कहा तक सही है ?

कितने ग्रामीण इलाको में ऐसी लडकियां है जो होशियार है, जीवन में बहुत कुछ बड़ा हासिल कर सकती है पर परिवार की नासमझी की वजह से और ग्रामीण इलाका जहां लोग इतने शिक्षित नहीं होते है ऐसे में उनके सपनो को उनके अंदर तक ही सीमित रख दिया जाता है और उनकी प्रतिभा को बहार दिखाने पर उन्हे गलत साबित कर दिया जाता है। किताबे थमाने की उम्र में वरमाला थमा दी जाती है। बस्तो के बोझ को उठाने की जगह घर परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ उठाने को दे दिया जाता है। अशिक्षित समाज में लड़कियों को पढ़ाना आज भी एक प्रश्न हैं।

बाल विवाह की समस्या को रोकने के उपाय-
समय समय पर समाज सुधारकों ने इस तरह की कुप्रथाओं को मिटाने के प्रयास किये हैं। हमारी संसद ने भी बाल विवाह निषेध के लिए कठोर कानून बनाए हैं और लड़के तथा लड़की के विवाह की न्यूनतम आयु निर्धारित की हैं । विवाह की न्यूनतम आयु से पूर्व होने वाले विवाह को बाल विवाह माना जाता है तथा यह गैर कानूनी अपराध की श्रेणी में गिना जाता हैं। बाल विवाह की शिकायत प्राप्त होने पर दोनों पक्षकारों को कड़ी सजा तथा जुर्माने का प्रावधान होने के बावजूद हमारे देश में बाल विवाह आज भी हो रहे हैं।

ग्रामीण इलाको में तो नासमझी, अशिक्षित, शिक्षा का अभाव, कुप्रथाए जो चली आ रही है इस वजह से मान सकते है की बाल विवाह हो रहे है पर यह शहरी इलाको में भी ऐसे हाल क्योँ है। बाल विवाह हमारे आधुनिक समाज में गहरे तक व्याप्त ऐसी कुप्रथा है जिसका दुष्परिणाम लड़के तथा लड़की दोनों को भुगतना पड़ता हैं। इस प्रथा के चलते समाज में कई बुराइयाँ उत्पन्न हो चुकी हैं। आज के समय में बाल विवाह समस्या का निवारण बेहद जरुरी हो गया हैं इसके बिना बेटियों को इस अभिशाप से मुक्त नहीं किया जा सकता हैं।

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जानिए उदयपुर की ऐसी जनजाति जिसने हल्दी घाटी युद्ध में दिया था अपना महत्वपूर्ण योगदान

भील यह राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजाती हैं। भील शब्द की उत्पति “बिलू” शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘कमान’। यह जनजाति तीर कमान चलाने में काफी निपुण होती हैं। मुख्यतः यह जनजाति उदयपुर के साथ-साथ बांसवाड़ा, डूंगरपुर, चित्तौड़गढ़ और प्रतापगढ़ में रहती है।। ये मेवाड़ी, भील तथा वागड़ी भाषा का प्रयोग करते हैं।

भीलों की जीवनशैली बहुत ही अलग ढंग की होती हैं, यह उबड़-खाबड़ पहाड़ी क्षेत्र तथा वन में रहते हैं। इनके मकानों को टापरा, कू, फलां और पाल भी कहते हैं।

पौराणिक कथाओं के अनुसार भील जनजाति की उत्पत्ति भगवान शिव के पुत्र निषाद द्वारा मानी जाती है। कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव जब ध्यान मुद्रा में बैठे हुए थे, तब निषाद ने अपने पिता के प्रिय बैल नंदी को मार दिया था तब दंडस्वरूप भगवान शिव ने उन्हें पर्वतीय क्षेत्र पर निर्वासित कर दिया था, वहां से उनके वंशज भील कहलाये। इसके साथ यह भी कहा जाता है की रामायण के रचयिता वाल्मीकि भी भील पुत्र थे। महाभारत में वर्णित गुरु द्रोणाचार्य के भक्त एकलव्य भी भील जनजाति के थे। रामायण में शबरी जिसने राम को अपने झूठे बेर खिलाए थे वह शबरी भी भील जाति से ही थी। इस जाति की कर्त्तव्यनिष्ठा, प्रेम और निश्छल व्यवहार के उदाहरण प्रसिद्ध है। 

हल्दी घाटी युद्ध के समय महाराणा प्रताप की सेना में राणा पुंजा और उनकी भील सेना का महत्वपूर्ण योगदान था। इसी कारण से मेवाड़ राजचिन्हों में एक तरफ महाराणा प्रताप तो दूसरी तरफ राणा पुंजा भील का नाम भी आता है। महाराणा प्रताप को भील लोगो द्वारा पुत्र भी कहा जाता है इसके पीछे भी एक कहानी है, दरअसल मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा बार-बार आक्रमण किए जाने पर महाराणा प्रताप के पिता महाराणा उदय सिंह समझ चुके थे कि, चित्तौड़गढ़ दुर्ग अब सुरक्षित नहीं रहा इसलिए उन्होंने सुरक्षा के लिए पहाड़ियों के बीच एक नया शहर बसाया। इसमें पहले से ही वहां रह रहे भील बस्तियों के निवासियों ने महाराणा उदय सिंह का यथोचित सहयोग किया। इसी दौरान भीलों के बच्चे व महाराणा प्रताप एक साथ रहते थे। महाराणा प्रताप ने भीलो को इतना प्रेम, स्नेह व अपनत्व दिया था कि भील उन्हें “कीका” कहने लगे जिसका सामन्य अर्थ पुत्र होता है। भीलों के साथ महाराणा प्रताप के संबंध अंत तक बने रहे। इसी वजह से सीमित संसाधनों के होते हुए भी भीलों के सहयोग से महाराणा प्रताप ने मुस्लिमों के विरुद्ध अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की। भीलों के साथ महाराणा प्रताप के संबंध मेवाड़ राज्य के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध हुए। महाराणा प्रताप भीलों के साथ राजा- प्रजा का नहीं बल्कि बंधुत्व का संबंध रखते थे। भीलों द्वारा किये गये सहयोग एवं वीरतापूर्ण कार्यो के सम्मान स्वरूप उन्होंने भीलों को मेवाड़ के राज चिह्न में जगह दी।

आइये जानते है और भी बहुत कुछ भील जनजाति के बारे में –

वस्त्र – भील पुरुष सामान्य तंग धोती पहनते है जिसे भील भाषा में ठेपाडु कहते है और सर पर साफा पहनते है जिसे पोत्या और फाडिंयु कहते है। भील स्त्रियों की वेशभूषा आम तौर पर वे लुगडी, घाघरा और चौली पहनती है। 

नृत्य– गैर नृत्य, घूमर,गवरी नृत्य इस जनजाति के प्रसिद्ध नृत्य हैं। 

मेले– गौतमेश्वर मेला, बेणेश्वर का मेला, ऋषभदेव का मेला 

 प्रमुख प्रथाए-

  • दापा प्रथा – इस प्रथा के अनुसार विवाह के समय लड़के के पिता द्वारा लड़की के पिता को कन्या का  मूल्य चुकाना होता है।  
  • गोदना प्रथाइस प्रथा के अनुसार भील पुरुष और महिलाएं अपने चेहरे व शरीर पर गोदना गुदवाते हैं जिसमे महिलाएं अपने आँखों के ऊपर सर पर दो आड़ी लकीरे गुदवाती हैं जो उनके भील होने का प्रतिक माना जाता हैं। 
  • गोल गोधेड़ा प्रथाभील जनजाति में एक प्रथा है जिसे गोल गोधेड़ा प्रथा कहते है, इस प्रथा के अनुसार यदि कोई भील युवक अपनी वीरता और शौर्य को प्रमाणित कर देता है तो वह युवक अपनी पसंद की लड़की से शादी कर सकता है। 

भील जनजाति में लोकगीतों, लोकनृत्य, लोकनाट्य का काफी प्रचलन है – इसमें से एक गवरी नृत्य जो उदयपुर संभाग में सावन-भादो के समय किया जाने वाला एक धार्मिक नृत्य है, जो केवल पुरुषों द्वारा किया जाता है। इस नृत्य को राइ नृत्य भी कहते है क्योंकि इसमें नृत्य के साथ मादल व थाली भी साथ में बजाई जाती है। 

भील लोग देवी-देवताओं का बहुत मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं। ये लोग साहसी, वचन के पक्के, निडर और स्वामिभक्त होते हैं। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो भील जनजाति अत्यंत निर्धन होते हैआर्थिक व सामजिक रूप में यह जनजाति समाज का बहुत ही पिछड़ा वर्ग है पर फिर भी इनका इतिहास अति रोचक साहसी एवं प्राकृतिक वातावरण से पूर्ण रहा है। इतिहास के पन्नो पर अगर देखो तो भील समाज की सम्पन्नता शूरवीरता एवं आर्थिक सम्पनता के बखान मिलते है।

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उदयपुर में 5800 जरुरतमंदो को मिलेगा रोजगार

उदयपुर में इंदिरा गाँधी शहरी रोजगार गारंटी योजना के तहत 5800 जरूरतमंद लोगों को रोजगार मिलेगा। इस गारंटी के अंतर्गत 100 दिन का कार्य दिया जाएगा जिसमे 579150 मानव दिवस स्वीकृत किए गए है। प्रति व्यक्ति को 259 रूपए का प्रतिदिन भुगतान किया जाएगा। योजना में आवेदन करने के लिए जॉब कार्ड, ई- मित्र पर या स्वयं भी पोर्टल पर अपलोड कर सकते है एवं नगर निगम जा कर भी आवेदन कर सकते है। इसके लिए वार्ड पार्षदों से अपील भी की गई है की जो भी बेरोजगार लोग है उन्हें इस योजना से जुड़ने के लिए लिए प्रेरित करे।

स्वास्थ्य समिति अध्यक्ष पारस सिंघवी ने बताया की इस योजना के अंतर्गत 259 मजदूरी तय की गई है। शहरी क्षेत्र में निवास कर रहे है प्रत्येक परिवार के 18 से 60 वर्ष के सदस्य इस योजना के अंतर्गत आ सकेंगे। रोजगार के अंतर्गत तालाब बावड़ी से मिट्टी निकालने का कार्य, पानी वातावरण संरक्षण से जुडी प्रक्रियाए, पौधरोपण नर्सरी का काम एवं अन्य शहरी साफ़ सफाई के कार्य करवाए जाएंगे। महापौर गोविन्द सिंह टांक के निर्देश पर नगर निगम आयुक्त हिम्मत सिंह बारहठ ने जिला परियोजना अधिकारी शैल सिंह को पूरी तैयारी को लेकर निर्देशित किया है।

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उदयपुर में शुरू A.C. बसे पहुचाएंगी एयरपोर्ट

उदयपुर शहर में सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विसेज लिमिटेड (यूसीटीएसएल) की ओर से जनता को सस्ती व सुलभ ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था उपलब्ध करवाने के लिए शहर में मिडी लो फ्लोर की 4 नई बसें एयरपोर्ट के लिए चलेंगी। इसमें दो AC और दो नॉन AC बसें होंगी। AC बसों में सिर्फ एयरपोर्ट जाने वाले यात्री ही बैठ सकेंगे। इनके रूट में कही से भी बैठने पर 100 रूपए का किराया ही लिया जाएगा। विदेशी यात्रियों के लिए इसका शुल्क 500 रुपए होगा। इसके अलावा नॉन AC बसों का किराया प्रति किलोमीटर के हिसाब से ही होगा।

इन बसों का परिवहन एवं सड़क सुरक्षा विभाग जयपुर से रूट स्वीकृत हो चुका है और अब परमिट के लिए जिला परिवहन कार्यालय में इसके कागज पहुँच चुके है। परमिट मिलते ही यह बसे चेतक से डबोक एयरपोर्ट मार्ग तक जाएगी। यूसीटीएसएल के चेयरमैन व महापौर गोविन्द सिंह टांक व सीईओ हिम्मतसिंह बारहठ एयरपोर्ट पर आने जाने वाली फ्लाइट के अनुसार ही इनका टाइम तय कर रहे है ताकि यात्रियों को फ्लाइट से उतरते ही बस मिल सके और अनावश्यक परेशानियों का सामना न करना पड़े। वही चेतक से एयरपोर्ट जाने वाले यात्री भी एक से डेढ़ घंटे पहले पहुँच सके। सहायक अभियंता यांत्रिकी व प्रभारी अधिकारी लखन लाल बैरवा ने बताया कि चारों नई बसें सिटी बस डीपो में ही खड़ी है। रूट स्वीकृत होने के बाद अभी इनकी परमिट की कार्यवाही चल रही है।

एयरपोर्ट जाने के लिए यहाँ-यहाँ रुकेगी बसें
पहाड़ी बस स्टैंड, कोर्ट चौराहा, चेतक सर्किल, ठोकर चौराहा, देहली गेट, देबरी चौराहा, प्रतापनगर चौराहा, जिंक चौराहा, सूरजपोल चौराहा, फतह स्कूल, कुम्हारो का भट्टा ,बी.एन.कॉलेज , सेवाश्रम चौराहा, राणा प्रताप नगर रेलवे स्टेशन, मांझी की सराय, ठोकर स्कूल,गिलास फैक्ट्री, M.B. हॉस्पिटल, सुंदरवास, आईटीआई कॉलेज, राजस्थान विद्यापीठ, गीतांजली कॉलेज,डबोक चौराहा, तुलसीदास जी की सराय, तुलसीनगर/बेड़वास, राजस्थान विद्यापीठ, धूणिमाता,पावर हाउस, गुडली चौराहा, पुराना आर.टी.ओ. रोड।

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अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस – 2022

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस प्रत्येक वर्ष 21 जून को मनाया जाता है। योग का अभ्यास एक बेहतर इंसान बनने के साथ एक तेज दिमाग, स्वस्थ दिल और एक सुकून भरे शरीर को पाने के तरीकों में से एक है। योग अपने अद्भुत स्वास्थ्य लाभों के लिए जाना जाता है। हमारे ऋषि-मुनि भी कह गए हैं, ‘पहला सुख निरोगी काया’। योग, मन, शरीर और आत्मा की एकता को सक्षम बनाता है। योग के विभिन्न रूपों से हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को अलग-अलग तरीकों से लाभ मिलता है। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस इस अनूठी कला का आनंद लेने के लिए मनाया जाता है।

हमारे दैनिक जीवन में योग को जन्म देने से हमारे जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आ सकता है। यह हमारे तनावपूर्ण जीवन के लिए एक बड़ी राहत प्रदान करता है। योग अभ्यास करने के मुख्य लाभों में से यह एक है कि यह तनाव कम करने में मदद करता है। आज कल की जो युवा पीढ़ी है जो हर छोटी-छोटी बातो का तनाव लेती रहती है जो किसी प्रकार की कठोर स्थिति से जीवन में आए तनाव से मुक्ति पाने के लिए वे आत्महत्या जैसे कदम उठाने को बाध्य हो जाते हैं।

दैनिक जीवन में योग को जन्म देने से हमारे जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आ सकता है। यह हमारे तनावपूर्ण जीवन के लिए एक बड़ी राहत प्रदान करता है योग एक व्यक्ति को ध्यान और साँस लेने के व्यायाम से तनाव कम करने में मदद करता है और एक व्यक्ति के मानसिक कल्याण में सुधार करता है। योग नियमित अभ्यास मानसिक स्पष्टता और शांति बनाता है जिससे मन को आराम मिलता है।

international yoga day
International day of yoga illustration

आंतरिक शांति
आंतरिक शांति जो मनुष्य को ऊपरी मन से खुश होने से ज्यादा उसे आतंरिक खुश रहने से ख़ुशी मिलती है पर वो शांति आज कल की व्यस्त जिंदगी और शहर के चकाचोंध में कही खो सी गई है। इंसान अंदर से खुश रहेगा तो वह स्वस्थ रहेगा। सिर्फ 10-20 मिनट का योग हर दिन आपके स्वास्थ्य को अच्छा रहने में मदद कर सकता है। बेहतर स्वास्थ्य का मतलब बेहतर जीवन है।

बीमारियों से बचाव
जिस प्रकार आजकल के लोगो का खान पान उस तरीके से तो इंसान कितनी सारी बीमारियों को साथ ले रहा है। योग गंभीर से गंभीर बीमारियों से हमारा बचाव करने में मददगार होता है। इतना ही नहीं अगर कोई व्यक्ति गंभीर बीमारी से पीड़ित है, तो योग उससे भी लड़ने की शक्ति देता है।

शरीर को लचीला बनाए
योग पूरे शरीर में ब्लड सर्कुलेशन को बेहतर बनाता है, जिससे सभी अंग सुचारू रूप से काम करते हैं।

हमारे ऋषियों और आयुर्वेद द्वारा दी गयी क्रियाओं और चिकित्सों का लाभ उठाएं इसी से तनाव कम होगा और देश की प्रगति भी होगी और युवाओं की मौतें भी नहीं होंगी और यह बीमारियाँ पूरी तरह ख़त्म हो जायेंगी और देश के युवा निरोग रहेंगे और तनाव भी ख़त्म हो जाएगा। 21 जून को मनाया जाने वाला अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस प्राचीन भारतीय कला के लिए एक अनुष्ठान है।

इस रोज की भाग दौड़ मर्रे वाली जिंदगी में अगर खुश रहना है तो दिन में सिर्फ थोड़ा समय निकल कर 15 से 20 मिनट योगा करना ही चाहिए जो हमारे शरीर के साथ हमारे मन को भी स्वस्थ रखेगा। जीवन के तनाव को कम करने में मदद करेगा, चेहरे पर निखार लाएगा, फ्लेक्सिबल बॉडी बनाएगा जो हमे जल्दी बूढ़ा नहीं बनाएगा। मन को दिमाग को शांत रखेगा कई सारी गंभीर बिमारियों को आने से रोकेगा, रोग प्रतिरोध क्षमता को बढ़ाएगा।

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आरएनटी अस्पताल में मजबूत हो रही हेल्थ सर्विस

उदयपुर आरएनटी मेडिकल कॉलेज के 3 अस्पतालों (एमबी, जनाना और सुपर स्पेशिएलिटी ) में 300 से ज्यादा सीसीटीवी कैमरे लगाए गए है। जनरल वार्ड से लेकर ऑक्सीजन प्लांट,आईसीयू वार्ड, ओपीडी, आईपीडी, कोविड वार्डो तक मरीजों और स्टाफ की हर छोटी से बड़ी गतिविधियां स्क्रीन पर है। सर्वर रूम में प्रिंसिपल कार्यालय से नोडल अधिकारी 3 पारियों में 24 घंटे निगरानी कर रहे जबकि एनालिस्ट कम प्रोग्रामर एक शिफ्ट में। इन सीसीटीवी लगाने का मकसद मरीजों और तीमारदारों के लिए व्यवस्था के साथ स्टाफ के कामकाज पर नजर रखना है ताकि कोई गड़बड़ी या असुविधाजनक गतिविधि और चोरियां के साथ स्टाफ की हरकते होने पर उन पर कार्यवाही की जा सकती है। इसके साथ ही और सुरक्षा बढ़ाने के लिए हॉल, गैलरी, पोर्च, प्रवेश द्वार और पार्किंग तक 100 से भी ज्यादा और कैमरे लगाए जाएंगे। कोविड काल में 180 कैमरे लगाए गए थे व्यवस्था में सुधार होने पर 120 कैमेरे और बढ़ाए है।

आरएनटी मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ लाखन पोसवाल का कहना है की कोरोना के दूसरे चरणों में मरीजों की संख्या ज्यादा होने से आपाधापी जैसे हालात हो रहे थे। वजह यह थी की आईसीयू में तीमारदारों के जाने की मनाही थी और कई सारी शिकायते भी मिल रही थी की स्टाफ ध्यान नहीं दे रहा है इसलिए मारीजों और कर्मचारियों की निगरानी के लिए सिसिटीवी कैमरे लगाए थे। कैमरे लगाने से सफलता मिली तो कैमरे बढ़ाने के साथ कंट्रोल रूम को स्थायी किया है।

सीसीटीवी से कायम अनुशासन
सीटीवी सर्विलैंस से आईसीयू में भर्ती मरीज,गार्ड की मौजूदगी, स्टाफ की ड्यूटी, समय की पालना आदि में अनुशासन कायम हुआ है। इसके साथ ही अस्पताल परिसर में चोरियों की शिकायत अब थमने लगी है और स्टाफ को लेकर शिकायत भी घटने लगी है। प्रिंसिपल कार्यालय में सीसीटीवी की नोडल अधिकारी डॉ रिचा पुरोहित ने बताया की कोविड के दूसरे चरण में ऑक्सीजन प्लांट,आईसीयू आदि पर निगरानी रखी गई है। सोशल मीडिया ग्रुप पर हर घंटे में प्लांट के प्रेशर मीटर की रीडिंग, मरीज के पास मॉनिटर पर हेल्थ पैरामीटर (पेशेंट का नांम, बीपी – प्लस, ऑक्सीजन सेचुरेशन आदि) की शीट मंगवाई थी। अब मरीज के बेड के आसपास रिश्तेदारों की भीड़, नर्सरी या डॉक्टरो के नजर नहीं आने पर वार्ड इंचार्ज या अधीक्षक को फ़ोन कर व्यवस्था करवा रहे है। आरएनटी में 2018 से सीसीटीवी से निगरानी है, लेकिन तब कमरे कम थे, जिस वजह से रोज चोरी के मामले सामने आ रहे थे। कैमरे बढ़ने से अब चोरी के मामले बिलकुल भी नहीं आ रहे है।

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1993-2015 तक संघर्ष उदयपुर के साथ, झील प्राधिकरण जयपुर में क्यों?

पूरी दुनिया में मशहूर उदयपुर नगर झीलों के लिए सुप्रसिद्ध शहर हैं। यहाँ कई सारी झीलें स्थित हैं, इसलिए इसे झीलों की नगरी भी कहा जाता है। यहां पर फतेहसागर, पिछोला, स्वरुपसागर, कुमहारी तालाब, दूधतलाई, गोवर्धन सागर, रंगसागर, उदयसागर, रूपसागर, बड़ी, जयसमन्द, राजसमंद जैसी आदि झीलें हैं जिनके आस-पास ही पूरा नगर बसा हैं। ये झीलें कई शताब्दियों से उदयपुर की जीवनरेखा हैं, जो एक-दूसरें से जुड़ी हुई हैं।

अगर किसी प्रदेश में इतनी सारी झीले हैं, तो उसके संरक्षण व विकास के लिए प्राधिकरण भी होना जरुरी है। उदयपुर संभाग में प्रदेश की सबसे ज्यादा 35 झील-जलाशय है। 1993-1994 में करीब 29 साल पहले उदयपुर से ही झील संरक्षण और प्राधिकरण की मांग उठी थी जिसकी स्थापना भी उदयपुर में ही होनी थी और ड्राफ्ट भी माँगा गया था। 1996 में प्रदेश सरकार की एडमिनिस्ट्रेटिव एंड रिफार्म कमिटी ने इस ड्राफ्ट को स्वीकार किया, लेकिन प्राधिकरण की स्थापना नहीं हुई।  हालाँकि यह मामला हाई कोर्ट तक भी पहुंचा और 2007 में झील विकास के प्राधिकरण की स्थापना के निर्देश भी दिए। इसकी लम्बी लड़ाई के बाद 2015 में राजस्थान झील विकास प्राधिकरण अस्तित्व में आया लेकिन इसका मुख्यालय तो जयपुर में खोल दिया जबकि जयपुर संभाग में तो केवल 8 झीले-जलाशय ही हैं। हालाँकि इस प्राधिकरण के अधिनियम के ड्राफ्ट में साफ़-साफ़ उल्लेख है कि मुख्यालय किसी और जिले में भी खोला जा सकता है। 

उदयपुर से जयपुर की सड़क मार्ग दूरी करीब 400 किमी है

उदयपुर से जयपुर की सड़क मार्ग दूरी करीब 400 किमी हैंऐसे में प्राधिकरण जयपुर होने की वजह से उदयपुर की झीलों पर इनकी नजऱ नहीं रहेगी। गन्दगी-बदहाली, मलिनता, दुर्गंंध, अतिक्रमण, अवैध गतिविधि और अवैध निर्माण से दम तोड़ रहे और ख़राब दुर्दशा का यही बड़ा कारण है इन पर प्राधिकरण बने तो इस पर काफी हद तक अंकुश लग जाएगा। उदयपुर में जलाशयों के प्राधिकरण व संरक्षण-संवर्धन का काम कलेक्टर के हाथों में हैं पर कलेक्टर के पास अन्य गतिविधियां होने की वजह से उनका उतना फोकस नहीं है जितना होना चाहिए।

प्रमुख 85 झीलों के जलाशय कुछ इस प्रकार है- 

  • उदयपुर-35
  • कोटा-14
  • अजमेर-12 
  • जयपुर-8 
  • भरतपुर-6 
  • जोधपुर-6
  • बीकानेर-4  

उदयपुर में क्यों होना चाहिए प्राधिकरण ?

प्रदेश के सातो संभाग में कुल 85 प्रमुख झीले-जलाशय हैं। इनमे से सबसे ज्यादा 41 प्रतिशत झीले उदयपुर संभाग में है बाकि 59 प्रतिशत प्रदेश के 6 संभागो में है। अधिकतर बड़े-बड़े बांध भी उदयपुर में है और बन भी रहे हैं। सबसे ज्यादा जरुरत भी यही है क्योंकि यहाँ का पानी जोधपुर और जयपुर तक पहुंचने की तैयारी में है, इसका मतलब राजस्थान के आधे से ज्यादा आबादी को पानी उदयपुर संभाग ही पहुंचाता है। ज्यादा झीले है तो उसकी रखरखाव की भी जरुरत ज्यादा ही होती है।  उदयपुर से जयपुर की दुरी करीब 400 किमी की है, अगर कुछ शिकायत है तो इसकी शिकायत लेकर जयपुर जाना मुश्किल है और ना ही इस प्राधिकरण के मुखिया झील जलाशयों की दुर्दशा देखने इतने दूर से आते है। 

 

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क्या उदयपुर शहर में भी आ गया है वीरप्पन ?

भारत की पुलिस को इस आदमी ने जितना दौड़ाया था, उतना शायद किसी ने नहीं दौड़ाया। वीरप्पन के नाम से प्रसिद्ध कूज मुनिस्वामी वीरप्पन दक्षिण भारत का कुख्यात चन्दन तस्कर था जो 1970 से पुलिस और फाॅर्स के लिए चुनौती बना रहा। चन्दन के हर पेड़ पर उसकी तिरछी नज़र रहती थी। 18 वर्ष की उम्र में वह एक अवैध रूप से शिकार करने वाले गिरोह का सदस्य बन गया जिसका एक वक्त चंदन तस्कर वीरप्पन के नाम से तमिलनाडु जंगल में ख़ौफ़ पसर जाया करता था जो 2004 में मारा गया। वीरप्पन के बाद जंगलों से ख़ौफ़ तो खत्म हो गया लेकिन तस्करी का खेल कई गुना बड़ा हो गया।

क्या कोई वीरप्पन हमारे शहर में भी आ गया है ?

उदयपुर शहर की विश्व प्रसिद्ध झील फतहसागर के किनारे बनी काले किवाड़ के आगे मेवाड़ दर्शन दीर्घा पार्क में आए दिन चन्दन के पेड़ के चोरी होने की ख़बरे आ रही थी। कला दीर्घा पार्क में चन्दन के कुल 66 पेड़ थे। चोर इसी जगह से कई पेड़ आधुनिक हथियारों से काटकर लेकर गए थे और कुछ पेड़ो पर आरी से निशान बनाकर चेतावनी भी दे गए थे की ये पेड़ काटकर भी ले जाएंगे और नतीजा यह था की चोर उसमे से कुछ पेड़ आखिरकार लेकर ही गए। कुछ पेड़ो को तो इतना तक काट दिया था की हल्का सा धक्का देते ही वे निचे गिर पड़ेंगे।

ये पेड़ वीरप्पन जैसे अनगिनत तस्करों को शरण दे रहे हैं। दरअसल चोर चन्दन के पके पेड़ लेकर जाते है, जानकर बताते है की चन्दन की खुशबू पेड़ की जड़ से लेकर ऊपर तक के 4-5 फीट तक के तने में रहती है। इसके लिए चोर पेड़ो के ऊपरी हिस्से को आसपास के पेड़ या जालियो से बाँध देते है। इसके बाद ज़मीन से चार से पांच फीट का हिस्सा काटकर अलग कर देते है। चोरो की नज़र अब कटे पेड़ो की जड़ो पर भी है इसलिए कई चबूतरों तक को तोड़ दिया गया है।

इस ख़बर के बाद चेते नगर निगम ने चन्दन के पेड़ को सुरक्षित करने के लिए करीब-करीब सभी पेड़ो के चारो और लोहे के एंगल लगा दिए है। नगर निगम इन पर भी ध्यान नहीं देता तो चंदन तस्कर सभी पेड़ो को गायब कर देंगे। चन्दन तस्करो की निगाहें तो अभी भी पेड़ पर जमी है। जिले में लगातार चन्दन के पेड़ घटते जा रहे है , क्या विभाग की और से चन्दन तस्करी रोकने के लिए और कड़े प्रकरण करने की आवश्यकता नहीं है?  क्या पार्क में चौकीदार बढ़ाने की जरुरत नहीं है ? क्या पार्क में सीसीटीवी कैमरे की जरुरत नहीं?

कितने साल में तैयार होता है एक पेड़ ?

  •  15 साल में तैयार होता है एक पेड़ ।
  • हर साल चंदन का तना बढ़ता है – 12 से.मी ।
  • 12 से 15 साल के पेड़ की ऊंचाई होती है – 5 फीट (तने का व्यास करीब 80 से.मी.) ।
  • 15 साल के पेड़ से मिलती है लकड़ी – 20 से 35 किलो (लसदार) ।
  • मौजूदा लकड़ी की कीमत 6000 से 12,000 रुपए प्रतिकिलो।( 6000 रुपए प्रतिकिलो के मान से 20 किलो लकड़ी की कीमत ही बाजार में 1 लाख 20 हजार रुपए होती है) ।
  • चंदन चार तरह का होता है सफेद, लाल, मयूर और नाग चंदन।

एक चन्दन के पेड़ की कीमत करीब 10 लाख होती है, करीब 10 पेड़ किसी को भी करोड़पति बना सकते है। सवाल हजारों पेड़ों की तस्करी का हो तो अंदाजा लगाइए कितनी बड़ी रकम का खेल होगा। ये धंधा इतने शातिर तरीके से किया जाता है कि इसमें सिर्फ छोटे मोहरे ही फंसते हैं। बड़े खिलाड़ी कानून के चंगुल से दूर रहते हैं। हालात नहीं सुधरे तो आशंका ये भी है कि अगले 15-20 साल में चन्दन के पेड़ की प्रजाति पूरी तरह खत्म हो सकती है।