आज हरियाली तीज के मौके पर हम आपको इसी के कुछ पहलुओं से अवगत करवाने वाले है। हरियाली तीज का त्यौहार प्रतिवर्ष श्रावण के महीने की शुरुवात में मनाया जाता। देवी पार्वती को समर्पित, तीज का त्यौहार देवी पार्वती और भगवान शिव के मिलन की स्मृति में मनाया जाता है। सावन का महीना और भगवान शिव और देवी पार्वती का पवित्र रिवायत इस त्यौहार का आधार है।
हरियाली तीज का इतिहास
हरियाली तीज का त्यौहार देवी पार्वती का भगवान शिव के प्रति अनंत निष्ठा व प्रेम का प्रतीक है। इस दिन भगवान शिव और देवी पार्वती, हज़ारों सालों के बाद, फिर से, एक हो गए थे। इस त्यौहार के रीति- रिवाज और परंपरा भी प्रेम और निष्ठा के अद्भुत संगम का आधार है। इसका का कुछ विवरण मेवाड़ के इतिहास की प्रसिद्ध किताब, महामहोपाध्याय कविराज श्यामलदास (महाराणा सज्जन सिंह जी के आश्रित कवि) द्वारा रचित “वीर विनोद” में भी मिल जाता है। किताब का अंश कुछ इस प्रकार है-
“श्रावण शुक्ल 3 को तीज का त्यौहार मनाया जाता है। इस त्यौहार को राजपूताना में राजा व प्रजा सब मानते है, और महाराणा जगनिवास महल में पधार कर गोठ जीमते है और रंगीन रस्सों के झूलो पर औरते झूलती और गायन करती है। शाम के वक़्त महाराणा जुलुस के साथ नाव सवार हो कर राग रंग के किनारे पर पहुंचते है। यदि इच्छा हो तो वह से हाथी या घोड़े पर सवार हो कर सीधे महलो में पधार जाते है। पश्चात, जगनिवास महल और बाड़ी महल में वैसी ही तैयारियाँ होती है जैसी गणगौर के उत्सव में बयान की गयी है।”
हरियाली तीज का महत्व
सावन का महीना त्यौहार मनाने योग्य ही तो है क्योंकि वर्षा का आगमन जो होता है भूमि पर। इस दिन, सभी वर्ग की औरते लहरिए-बांधनी साड़ी पहने, गेहेनो और मेहँदी से सज कर देवी पार्वती के दर्शन हेतु जाती है और बाघों में झूले लगाए जाते है। “सावन के झूले” का प्रसंग काफी प्रसिद्ध है। तीज का त्यौहार झूलो के बिना अधूरा सा लगता है और इनकी सजावट भी कुछ राजस्थानी ढंग से की जाती है। चमकीले लाल-पीले-हरे रंग के घाघरा- चोली पहने सभी विवाहित महिलाएँ इन झूलो का आनंद लेती है और साथ ही साथ देवी पार्वती की भक्ति से सराबोर लोक गीत गाती है इसी आशा में की देवी पार्वती सदैव उन पर अपनी कृपा बनाए रखेंगी। सावन के गीत गाने की परंपरा भी काफी प्रचलित है। मेहँदी भी काफी प्रचलित और मान्य परंपराओं में से एक है। मेहँदी और चूडियो से सजे हाथ, तीज के पर्व की शोभा में चार चाँद लगा देते है।तीज के त्यौहार पर घेवर का राजस्थान में एक अलग महत्व है। यह पारंपरिक मिठाई मैदा, चीनी और अलग-अलग ड्राई फ्रूट्स सब मिलकर बनी होती है साथ ही साथ इसके ऊपर केसर का छितराव और चाँदी का वर्क चढ़ा होता है। इस मिठाई की आपको दस के आस-पास वैरायटी देखने को मिल जाएगी जिनमें केसर घेवर, पनीर घेवर, मलाई घेवर बहुत प्रसिद्ध है। मिठाई पर घी की मोटी परत होने के बावजूद यह खाने में बेहद सुपाच्य मानी जाती है। तीज पर घेवर को शादीशुदा लड़की को देने का भी परंपरा है। सावन मैं घेवर बनाना उत्तम क्यों रहता है, इसके पीछे कारण यह है की यह सावन की नमी भरे वातावरण को पूर्ण रूप से सोख लेता है जिससे इसका स्वाद बना रहता है। ऐसा माना जाता है कि यह मिठाई वाजिद अली शाह द्वारा जयपुर लाई गई थी। इतने सालों के बाद आज भी घेवर राजस्थान के कई भागों में मिल जाता है।
सावन, हरियाली, लहेरिये, झूले, मेहँदी, घेवर, मालपुए यह सभी इस पर्व के पर्याय है और संस्कृति व श्रद्धा से परिपूर्ण यह पर्व आज भी उसी हर्षोउल्लास से मनाया जाता है और आशा यही है की इसकी गरिमा सदैव यूही बनी रहे।