बड़े-बुज़ुर्ग कहते है.. “सपने देखने चाहिए वो भी खुली आँखों से”, अब दिक्कत ये है, सपने देखने के लिए आँखें खोलो तो धूल चली जाती है। फिर करना ये पड़ता है कि चश्मा पहनकर मंजिले खोजनी पड़ती है। यही हाल है मेरा। सुबह फेसवाश लगा कर निकलो तो ऑफिस पहुँचते-पहुँचते फिर से चेहरे पर 2 इंच मोटी धूल और मिट्टी की परत जमा हो जाती है।
पर भाई किस की गलती निकाले ? धूल-मिट्टी है बैठी तो रहेगी नी…उड़ेगी ही, ट्रेवल ही करेगी, शायद ये भी वांडरर होती होगी तब ही। आजकल वैसे भी ट्रेंड में है ये सब और भाई टूरिस्ट सिटी में नहीं करेगी तो क्या गाँव-खेड़े में करेगी? तुम भी यार बात करते हो….
अच्छा हाँ… ये कार वाले ना मेरी परेशानी नहीं समझेंगे । ये तो मेरे जैसे उन दुःखी लोगो की कहानी है जो सुबह-सुबह मुँह धोकर बाइक-स्कूटी पर निकलते है और ऑफिस, दूकान, मुकाम पर पहुँचते है तो सुनने को मिलता है, “ कारे हांपड़ी ने नि आयो कई? कमु-कम मुंडो तो धोई ने आतो !!”
अब आप ही बताओ इंसान दुखी होगा के नी… ये कार वाले तो शीशे बंद कर देते है । हम क्या बंद करे..?
सोचा प्रशासन से मदद मांगता हूँ, पर वो हर बार एक ही चीज़ देते है.. भरोसा। अब ये समझ नहीं आता इस भरोसे का इस्तेमाल करूँ तो करूँ कैसे ? अब कोई दूसरा मुझसे पूछता है तो मैं भी उसे प्रशासन का दिया हुआ भरोसा फॉरवर्ड कर देता हूँ … शादी में आए कपड़ो की तरह।
हेलमेट पहनते है तब मुँह तो बच जाता है पर गर्दन के नीचे ऐसा लगता जैसे अभी-अभी अखाड़े से लौटे हो। बहुत दुःख है भाई जीवन में…
अगर आपको भी मेरी प्रॉब्लम अपनी प्रॉब्लम लगती है और आपके पास कोई इससे जुड़ा कोई सुझाव हो तो बताओ भाई, कमेंट्स करो, कैसे निपटे इन सड़कों पर उड़ती धूल-मिट्टी से? क्योंकि अब मेरे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
व्हाट्सएप पर कृपा वाले मेसेज फॉरवर्ड करने से कुछ कृपा नहीं आने वाली साथियों, ऐसे मेसेज फॉरवर्ड करोगे तो शायद उदयपुर प्रशासन तक बात पहुँच जाए, और हम जैसो पर दया आ जाए।
– एक दुःखी राहगीर