अध्यापक प्रसन्न मुद्रा में, छात्र भी प्रसन्नचित्त, अध्यापक गंभीर मुद्रा में, छात्र भी गंभीर व सहमे हुए। यानी अध्यापक का प्रतिबिंब छात्रों में देखा जा सकता है।
अध्यापक का कार्य अध्यापन तक सीमित नहीं है बल्कि वह बालक के भविष्य का निर्माता है। निश्चित ही पहला दायित्व अध्यापन है। अध्यापक की अपने विषय पर अच्छी पकड़ होनी चाहिए। निरंतर अध्ययन कर स्वयं को अपडेट रखना चाहिए। कोई भी विषय क्यों ना हो भाषा के साथ समझौता नहीं किया जा सकता है, भाषा संबंधी अशुद्धियों की शिक्षण व्यवसाय में कोई छूट नहीं है।भाषा सभी संप्रेक्षण का मूलभूत माध्यम है,भाषा बिना सारे विषय अधूरे हैं।
अध्यापन के लिए उसे नित नए नवाचार व प्रयोग करते रहना चाहिए। विभिन्न बौद्धिक स्तर, विभिन्न सांस्कृतिक व सामाजिक पृष्ठभूमि के बालकों को एक साथ समाहित करना आसान काम नहीं है। ऐसे रास्ते खोजने होंगे जिसमें हर बालक अधिगम प्रक्रिया में आगे बढ़ सके, खासतौर पर प्रथम पीढ़ी अधिगमकर्ता जिन के समक्ष कई चुनौतियां हैं जैसे भाषाई अवरोध, अनियमित उपस्थिति, शिक्षा विहीन पृष्ठभूमि, भिन्न सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि, निम्न आर्थिक स्थिति तथा सहपाठियों का असहयोग। इस वर्ग के छात्रों के साथ न्याय करना आवश्यक है।
किसी प्रकार का नकारात्मक व्यवहार (डांट या पीटना या अशब्द बोलना) स्थिति को और बदतर कर सकती है और छात्रों के विद्यालय छोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ सकती है। इन दिनों अध्यापक द्वारा शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना के केस निरंतर बढ़ रहे हैं जबकि आरटीई एक्ट धारा-17 या सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार जारी शिक्षा विभाग के परिपत्र के तहत शारीरिक दंड पर पूर्णरूपेण रोक है इसके बावजूद तकरीबन हर विद्यालय में छड़ी लेकर घूमते शिक्षक नजर आ जाएंगे। सवाल यह है कि शिक्षक को इस छड़ी को रखने की आवश्यकता क्यों है। क्या स्नेह से बच्चों को अनुशासित नहीं किया जा सकता है?
राजस्थान के शिक्षा मंत्री का यह बयान कि समय-समय पर शिक्षकों को खेल-खेल में शिक्षा तथा आनंददायी शिक्षा का प्रशिक्षण दिया जाता है, इसकी हकीकत यह है कि सरकारी विद्यालयों में यह दो पर्सेंट कक्षाओं में भी प्रतिबिंबित नहीं हो रहा है। बच्चों को खेल खूब पसंद होते हैं, यदि खेल द्वारा शिक्षण करवाया जाता है तो कोई कारण नहीं कि बच्चे अधिगम में रुचि न लें या कक्षा में ध्यान ना दें। पिटाई जैसे कृत्यों की नौबत ही नहीं आएगी। यानी अध्यापन कार्य रोचक और आनंददायी होने पर कई समस्याएं स्वत ही समाप्त हो जाती हैं।
अध्यापक की भूमिका में एक महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षार्थियों के चरित्र निर्माण की है। यह तभी संभव है जब अध्यापक का स्वयं का चरित्र आदर्शतम व मूल्य उच्च हो। अध्यापक के शब्दों व व्यक्तित्व में समरसता होने चाहिए। छात्र अध्यापक से अनौपचारिक रूप से बहुत कुछ सीखते हैं। छात्र अध्यापक का बारीकी से अवलोकन करते हैं, उनके पहनावे को, कार्य करने के तरीके को, संप्रेक्षण के तरीके को, अपने में उतारते हैं। अतः अध्यापक का अपने हर व्यवहार के प्रति सचेत रहना चाहिए। यदि अध्यापक ब्लैक बोर्ड पर टेढ़ा-मेढ़ा, ऊपर-नीचे, अव्यवस्थित लिखता है यही स्थिति छात्रों की कॉपी में देखी जा सकती है। अध्यापक चुस्त-दुरुस्त है तो कक्षा के सभी बच्चों में वही ऊर्जा संचरित होती देखी जा सकती है। मूल्य शब्दों से नहीं बल्कि अध्यापक के व्यक्तित्व से बच्चों में उतरते हैं ।अध्यापक में धैर्य व कठिनाइयों से जूझने की क्षमता होनी चाहिए तभी वह अपने छात्रों में इन गुणों का विकास कर सकता है। आज के छात्रों में न धैर्य है ना समस्याओं से जूझने की क्षमता, यही कारण है कि छोटे-छोटे व्यवधानों से टूट जाते हैं। आत्महत्याओं का बढ़ता ग्राफ भी इसी ओर इशारा करता है।
इससे जुड़ा एक और दायित्व है, अध्यापक को परामर्श की मूलभूत समझ होनी चाहिए। बच्चा गुमसुम है, उदास है या अत्यधिक आक्रमक व्यवहार करता है तो बजाय उसे दंडित करने के उसके इस व्यवहार के तह में जाने की जरूरत है। किसी प्रकार के असामान्य व्यवहार के निश्चित ही कारण होते हैं, ऐसे व्यवहारों के प्रति समय रहते ध्यान न देने या नकारात्मक व्यवहार से लक्षण उग्र होते चले जाते हैं जो परिवार व समाज के लिए घातक साबित होते हैं।
शिक्षण एक बहुत ही पवित्र कार्य है, इस की गरिमा बनी रहनी चाहिए। शिक्षक बनना इतना आसान भी नहीं होना चाहिए कि इसे अंतिम विकल्प के रूप में लेने के रास्ते खुले रहें। शिक्षक बनने के लिए आयोजित प्रवेश परीक्षाओं का स्तर इतना चुनौतीपूर्ण तो होना ही चाहिए कि सिर्फ उन्हीं को प्रवेश मिले जिसमें अध्यापक बनने के गुण मौजूद हैं।
डॉ सुषमा तलेसरा
सेवानिवृत्त प्रिंसिपल, विद्या भवन GST कॉलेज, उदयपुर