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The Story Behind Jag Mandir Palace, Udaipur

Jag Mandir Island Palace is an architectural marvel which in true senses contributes to the beauty of Udaipur. The property comes under HRH group (Historic Resorts and Hotels) which is owned by Shree Arvind Singh Ji Mewar. It is a beautiful Palace located on the southern island of Lake Pichola. It is a major tourist attraction especially for the foreigners and its famous hosting for big fat and lavish Indian weddings. Jag Mandir Palace is commonly called as ‘Lake Garden Palace’.

One can visit Jag Mandir only through a boat. The hotel includes few rooms, café, artistic restaurants, bar, and spa. You can enjoy your buffet dinner and get lost in the soothing atmosphere of the surroundings.

source: Quora
source: dreammakersevent.com
A still of Jag Mandir in the night

But do you know how and when Jag Mandir Palace was built and who built it?

source: eternal mewar
maharana Amar Singh

The construction of Jag Mandir began in 1551 by Maharana Amar Singh and later succeeded by Maharana Karan Singh (1620-1628) and finally the construction was completed by Maharana Jagat Singh I in 1652 and for this reason, it was named ‘Jag Mandir’ in the honor of Maharana Jagat Singh.

Structure of Jag Mandir

source: TripAdvisor
Elephant statues at Jag Mandir

Jag Mandir is a three-storied deluxe palace made of marble and yellow sandstone in Mughal and Rajputana architecture. Life-sized carvings of Elephant statues add to the majestic beauty of Jag Mandir Palace.

The courtyard has a flower garden setup which includes bougainvillea, jasmine, palm trees, jasmine, and roses. The garden also has a marble fountain in the center.

The Palace also has a museum called Jagriti museum which showcases the royal history of Mewar.

Visiting hours: 10 am to 6 pm

Entry fees for Jag Mandir: Rs.400 per person adult (between 10 am to 2 pm).

Rs.700 per person (after 2 pm).

How to reach: Because Jag Mandir is located on an island, it is accessible only by boat. The boats depart from Jetty near City Palace.

Lunch: Rs. 1217 per thaali.

Dinner: Rs. 3200 for a couple (A-la-carte).

Contact information: 

Boat ride: 0294-2528016

For reservations: 0294-2424186/187/188

 

Every Udaipurite should visit this mesmerizing place once and for all the tourists out there, add this Palace on your Wish list so that you can visit it on your next trip to Udaipur.

 

 

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“Maharana” – The story of the Rulers of Udaipur

Maharana the story of rulers of udaipur

Udaipur has always been one of the finest piece of nature’s beauty. It always fascinates with its lakes, palaces, gardens and what not. But Brian Masters unfolds another facet of this City of Lakes in his newly launched book “Maharana”. In this book, he writes about the rulers of Udaipur who founded this city and ruled it for a long period stretching for nearly one thousand five hundred years in unbroken succession.

This is the first account of the long and colorful history of one very powerful State that has given many legends to India, foremost among them being Maharana Pratap. The author presents vivid portraits of such rulers that continue to inspire many lives and their influence on art and architecture of India. Despite the evolution of the State of Mewar from an independent ‘Princely State’ into a part of the democratic Republic of India, the rulers have not forgotten their vow to look after the people of this land on behalf of the local deity to whom it finally belonged. They are still the ‘custodians’ of the pledge and promise made by their ancestors to their guru.

Brian Masters is a master of non-fiction works, holding the experience of 25 books covering a wide range of subjects from French literature, to literary biography, criminal psychology, animal welfare, and moral philosophy. His narrative make the history come so real that it grips the reader from the beginning till the end. If you are fond of peeping into the past or adore non-fiction writings, then “Maharana” is sure to content your desire for a good book – a book that will take you on a journey into the past of our own city.

 

You can find more details about the book from : http://bit.ly/Maharana

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यो म्हारो उदियापुर है…!

My Udaipur City

यो म्हारो उदियापुर है…!

उदयपुर में एक खास किस्म की नफासत है जो दिल्ली, जयपुर या किसी और शहर में नहीं मिलती. केवल इमारतें या बाग-बगीचें ही नहीं,बल्कि उदयपुरी जुबां भी ऐसी है कि कोई बोले तो लगता है कानों में शहद घोल दिया हो. केवल राह चलते लोग ही नहीं बल्कि इस शहर में तो सब्जी बेचने वाले हो या सोना-चांदी बेचने वाले  सब इसी खास जुबान में ही बात करते है. “रिपिया कई रुखड़ा पे लागे जो थारे ठेला री अणि  हुगली साग ने पांच रिपिया पाव लूँ.. तीन में देनी वे तो देई जा भाया…!” जब बनी ठनी छोटी चाची जी सब्जी वाले से कुछ इस तरह भाव-ताव करती है तो फक्र महसूस होता है  अपनी मेवाडी पर. कई बार तो परकोटे के भीतर माहौल कुछ ऐसा हो जाता है कि अजनबी यही सोचकर कुछ बोलने से डरते है कि वह सबसे अलग दिखने लगेंगे.
केवल उदयपुर के मूल निवासियों या राजपूतों ने ही नहीं बल्कि शहर की इस तहज़ीब भरी जुबां को अन्य समुदायों ने भी अपने जीवन में समाहित किया है.. “म्हारा गाबा लाव्जो मम्मी, मुं हाप्डी रियो हूँ ” ये शब्द सुने मैंने “बड़ी होली” मोहल्ले में रहने वाले एक ईसाई बच्चे के मुह से. यकीन मानिए,इतना सुनने  के बाद कोई नहीं कह सकता कि ये ईसाई है. उस बच्चे के मुह से मेवाडी लफ्ज़ इस खूबसूरती और नरमाई लिए निकल रहे थे कि लगा मानो, वो मेवाडी तहज़ीब का चलता फिरता आइना हो.
उदयपुर के कूंचों में आप मेवाडी ज़बान सुन सकते हैं. मशहूर मांड गायिका मांगी बाई के मुह से “पधारो म्हारे देस” सुनने के लिए दस दस कोस के लोग लालायित रहते है. यहाँ के हर लोक कलाकार, कवि सभी में कहीं न कहीं मेवाडी अंदाज़ ज़रूर झलकता है. और तब  ” पूरी  छोड़ ने आधी खानी, पण मेवाड़ छोड़ने कठेई नि जानी” कहावत सार्थक हो उठती है. . कवि “डाडम चंद डाडम” जब अपनी पूरी रंगत में आकर किसी मंच से गाते हैं- “मारी बाई रे कर्यावर में रिपिया घना लागी गिया.. इ पंच तो घी यूँ डकारी गिया जू राबड़ी पि रिया वे…” तो माहौल में ठहाका गूँज उठता है.

बात राबड़ी की निकली तो दूर तलक जायेगी…

बचपन में सुना करते थे कि अगर सुबह सुबह एक बड़ा कटोरा भरके देसी मक्की की राब पी ली जाये तो दोपहर तक भूख नहीं लगती. जो लोग गाँव से ताल्लुक रखते है, उन्हें वो दृश्य ज़रूर याद आता होगा, जब आँगन के एक कोने में या छत पर जल रहे चूल्हे पर राबड़ी के  तोलिये (काली बड़ी मटकी,जिसे चूल्हे पर चढ़ाया जाता था)से भीनी भीनी खुशबु उठा करती थी और घर के बुज़ुर्ग चिल्लाते थे.. “अरे बराबर हिलाते रहना, नहीं तो स्वाद नि आएगा.” और देसी लफ़्ज़ों में कहे तो “राब औजी जाई रे भूरिया” ..
वो भी गजब के  ठाठ थे राबड़ी के, जिसके बिना किसी भी समय का भोजन अधूरा माना जाता था. मक्की की उस देसी राब का स्वाद अब बमुश्किल मिल पाता है. होटलों में राब के नाम पर उबले मक्की के दलिये को गरम छाछ में डालकर परोस देते है.
“दाल बाटी चूरमा- म्हारा काका सुरमा “
चूल्हे पर चढ़ी राब और निचे गरम गरम अंगारों पर सिकती बाटी. नाम सुनने भर से मुह में पानी आ जाता है. पहले देसी उपलों के गरम अंगारों पर सेको, फिर गरम राख में दबा दो.. बीस-पच्चीस मिनट बाद बहार निकाल कर.. हाथ से थोड़ी दबाकर छोड़ दो घी में..  जी हाँ, कुछ ऐसे ही नज़ारे होते थे चंद बरसों पहले.. अब तो बाफला का ज़माना है. उबालो-सेको-परोसो.. का ज़माना जो आ गया है. अब घर घर में ओवन है, बाटी-कुकर है. चलिए कोई नहीं. स्वाद वो मिले न मिले..बाटी मिल रही है, ये ही क्या कम है !!
अब शहर में कही भी उस मेवाडी अंदाज़ का दाल-बाटी-चूरमा नसीब नहीं. एक-आध रेस्टोरेंट था तो उन्होंने भी क्वालिटी से समझौता कर लिया. कही समाज के खानों में बाटी मिल जाये तो खुद को खुशकिस्मत समझते हैं. और हाँ, बाटी चुपड़ने के बाद बचे हुए घी में हाथ से बने चूरमे का स्वाद… कुछ याद आया आपको !
आधी रात को उठकर जब पानी की तलब लगती है तो दादी का चिर परिचित अंदाज़ सुनने को मिलता है.. “बाटी पेट में पानी मांग री है”  चेहरे पर मुस्कान आ जाती है.

“मैं मेवाड़ हूँ.”
मोतीमगरी पर ठाठ से विराजे महाराणा प्रताप सिंह जी, चेटक सर्किल पर रौब से तीन टांग पर खड़ा उनका घोडा चेटक… जगदीश मंदिर की सीढियाँ  चढ़ता फिरंगी और अंदर जगन्नाथ भगवान के सामने फाग गाती शहर की महिलाएं.. गणगौर घाट के त्रिपोलिया दरवाज़े से झांकती पिछोला.. नेहरु गार्डन में मटके से पानी पिलाती औरत की मूर्ति, सहेलियों की बाड़ी मे छतरी के ऊपर लगी चिड़िया के मुह से गिरता फिरता पानी.. गुलाब बाग में चलती छुक छुक रेल, सुखाडिया सर्किल पर इतनी बड़ी गेहूं की बाली… लेक पेलेस की पानी पर तैरती छाया, दूर किसी पहाड़ से शहर को आशीर्वाद देती नीमच माता… जी हाँ ये हमारा उदयपुर है.
शहर की इमारतों का क्या कहना.. मेवाड़ के इतिहास की ही तरह ये भी भव्य है..अपने में एक बड़ा सा इतिहास समेटे हुए. पिछोला किनारे से देखने पर शहर का मध्य कालीन स्वरुप दिखता है. यूँ तो उदयपुर को कहीं से भी देखो,ये अलग ही लगता है पर पिछोला के नज़ारे का कोई तोड़ नहीं. एक तरफ गर्व से सीना ताने खड़ा सिटी पेलेस.. तो दूसरी तरफ होटलों में तब्दील हो चुकी ढेर सारी हवेलियाँ. जाने कितने राजपूतों के आन-बाण शान पर खड़ा है ये शहर..
शाम के समय मोती मगरी पर “साउंड और लाईट शो” चलता है. यहीं पर स्थित मोती महल में प्रताप अपने कठिनाई भरे दिनों में कुछ दिन ठहरे थे. खंडहरों पर जब रौशनी होती है और स्वर गूंजता है…”मैं मेवाड़ हूँ” तो यकीन मानिये आपका रोम रोम खड़ा हो जाता है. कुम्भा, सांगा, प्रताप, मीरा, पन्ना, पद्मिनी… जाने कितने नाम गिनाये… तभी माहौल में महाराणा सांगा का इतिहास गूँजता है. कहते ही उनका जन्म तो ही मुग़लों को खदेड़ने के लिए हुआ था. उनकी लहराती बड़ी बड़ी मूंछें,गहरे अर्थ लिए शरीर के अस्सी घाव, लंबा और बलिष्ठ बदन उनके व्यक्तित्व को और अधिक प्रभावशील बना देता था. और तभी मुझे मेरठ  के मशहूर वीर रस कवि “हरी ओम पवार” के वे शब्द याद आते है… ” अगर भारत के इतिहास से राजस्थान निकाल दिया जाये, तो इतिहास आधा हो जाता है.. पर राजस्थान से अगर मेवाड़ को निकाल दिया जाये, तो कुछ नहीं बचता !”

इसी बीच घूमते घूमते आप देल्ही गेट पहुच जाये और “भोला ” की जलेबी का स्वाद लेते लेते अगर आपको ये शब्द सुनने को मिल जाये.. ” का रे भाया..घनो हपड हापड जलेबियाँ चेपी रियो हे.. कम खाजे नि तो खर्-विया खावा लाग जायगा.” तो यकीन मानिये आप ने शहर को जी लिया… वैसे उदयपुर निहायत ही खूबसूरत शहर है, और जब हम इसकी जुबान, खान पान की  बात छेड़ देते है तो बहुत कुछ आकर्षक चीज़ें हमसे छूट जाती है..