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मेवाड़ इतिहास के पांच रत्न

मेवाड़ वीरों की भूमि रही है। यहाँ पर बहुत सारे वीरों ने जन्म लिया है। इसका सबसे सर्वोत्तम उदाहरण है “महाराणा प्रताप”। इनके साथ में कुछ और भी व्यक्तित्व के धनी लोग थे, जिन्होंने मेवाड़ की वीर भूमि पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इन्ही में से कुछ पांच रत्नों की बात आज हम यहाँ कर रहे है।

1. पन्नाधाय

panna dhaay
पन्नाधाय

जनवरी 1535 की बात है। गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने चित्तौड़ पहुंचकर दुर्ग को घेर लिया था। हमले की खबर सुनकर चित्तौड़ की राजमाता कर्मवती ने अपने सभी राजपूत सामंतो को सन्देश भिजवा दिया कि-यह तुम्हारी मातृभूमि है, इसे मैं तुम्हे सौंपती हूँ, चाहो तो इसे रखो, चाहो तो दुश्मन को सौंप दो।

इस सन्देश से पूरे मेवाड़ में सनसनी फैल गई और सभी राजपूत सामंत मेवाड़ की रक्षा करने चित्तौड़ दुर्ग में जमा हो गए। रावत बाघ सिंह किले की रक्षात्मक मोर्चेबंदी करते हुए स्वयं प्रथम द्वार पाडन पोल पर युद्ध के लिए तैनात हुए। मार्च 1535 में बहादुर शाह के पुर्तगाली तोपचियों ने अंधाधुन गोले दाग कर किले की दीवारों को काफी नुकसान पहुंचाया तथा किले के नीचे सुरंग बनाकर उसमें विस्फोट कर किले की दीवारें उड़ा दी।

राजपूत सैनिक अपने शौर्यपूर्ण युद्ध के बावजूद तोपखाने के आगे टिक नहीं पाए और ऐसी स्थिति में जौहर और शाका का निर्णय लिया गया। राजमाता कर्मवती के नेतृत्व में 13000 वीरांगनाओं ने विजय स्तम्भ के सामने लकड़ी के अभाव में बारूद के ढेर पर बैठ कर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया। जौहर व्रत संपन्न होने के बाद उसकी प्रज्वलित लपटों की छाया में राजपूतों ने केसरिया वस्त्र धारण कर शाका किया। वहीँ किले का द्वार खोल शत्रु सेना पर टूट पड़े। बहादुर शाह दिल्ली का मुग़ल बादशाह था। वो चित्तौड़ किले में पहुंचा और उसने भयंकर लूटपाट मचाई। चित्तौड़ विजय के बाद बहादुर शाह, हुमायूं से लड़ने के लिए रवाना हुए और मंदसौर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया। जिसकी खबर मिलते ही 7000 राजपूत सैनिकों ने आक्रमण कर पुनः दुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया। विक्रमादित्य, जो रानी कर्मवती के पुत्र थे, पुनः उन्हें उनकी गद्दी पर बैठा दिया गया।

चित्तौड़ लौटते समय विक्रमादित्य ने देखा कि नगर नष्ट हो चुका है, अब चित्तौड़ के असली उत्तराधिकारी विक्रमादित्य थे। उनका एक छोटा भाई था, जो उस समय मात्र छः वर्ष का था। परन्तु उस समय एक दासी पुत्र बनबीर ने रीजेंट के अधिकार हथिया लिए थे। उसकी नियत और लक्ष्य चित्तौड़ की राजगद्दी हासिल करना था। उसी के चलते उसने विक्रमादित्य की हत्या कर दी थी। अब उसका एकमात्र लक्ष्य चित्तौड़ के वंशानुगत बालक उत्तराधिकारी उदय सिंह को मारना था।

बालक उदय की धाय माँ पन्नाधाय ने उसकी माँ राजमाता कर्मवती के जौहर द्वारा स्वर्गारोहण पर पालन पोषण का दायित्व संभाला था। वे स्वामी भक्तित्व अनुकरणीय लगन से उसकी सुरक्षा कर रही थी। तभी महल के एक तरफ से तेज चीखे सुनाई देने पर पन्नाधाय ने यह अनुमान लगा लिया था की शत्रु राजकुमार बालक उदय सिंह की तलाश में आ ही गया। उसने तुरंत बालक उदय सिंह को टोकरी में सुलाकर पत्तियों से ढक कर एक सेवक को उसे सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी सौंप दी और उस खाट पर उदय सिंह की जगह अपने बालक को सुला दिया। सत्ता पाने के नशे में चूर बनबीर ने वहां पहुँचते ही पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर तलवार से वही मार डाला।

पन्ना कई समय तक दुष्ट बनबीर के चंगुल में न आने के डर से इधर-उधर भटकती रही। फिर उन्हें कुम्भलगढ़ में शरण मिली। उदय सिंह किलेदार का भांजा बनकर बड़े हुए, तेरह वर्ष की उम्र में उनको मेवाड़ी उमरावों ने अपना राजा स्वीकार कर लिया और राज्याभिषेक कर दिया। इस तरह उदय सिंह मेवाड़ के वैधानिक महाराणा बन गए। स्वामिभक्ति एवं निःस्वार्थ भाव से पन्नाधाय ने अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा के लिए अपने पुत्र का बलिदान दे दिया। एक माँ का इस प्रकार से अपने स्वामी की रक्षा के लिए पुत्र का बलिदान का उदाहरण इतिहास में कहीं भी नहीं मिलेगा।

 

2. भामाशाह

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भामाशाह

भामाशाह महाराणा प्रताप के बचपन के ख़ास मित्र है। उनका जन्म ओसवाल जैन परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम भारमल था, जो रणथम्भौर के किलेदार थे। उन्हें बाद में महाराणा उदय सिंह के नेतृत्व में प्रधानमंत्री बना दिया था। भामाशाह ने अपने छोटे भाई ताराचंद के साथ मेवाड़ की बहुत सी लड़ाइयों में भाग लिया था। कहा जाता है कि जब महाराणा प्रताप अपने परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे, तब भामाशाह ने अपनी सारी जमा पूंजी महाराणा को समर्पित कर दी थी। जिस समय मेवाड़ एवं महाराणा प्रताप को धन की अत्यधिक आवश्यकता थी, ऐसे कठिन समय में ताराचंद एवं भामाशाह ने महाराणा प्रताप को लाखों रुपए एवं सोने के सिक्के भेंट किए। इस धन से महाराणा ने एक सेना संगठित की तथा बाद में मुग़लों की सेना के शिविरों पर हमला किया। 11 जनवरी 1600 को इनकी मृत्यु किसी बीमारी के कारण हो गई थी। भामाशाह ने अपना पूरा जीवन लालच और स्वार्थ से ऊपर उठकर मेवाड़ पर बलिदान कर दिया।

 

3. राणा पूंजा

rana punja
राणा पूंजा

राणा पूंजा भील जनजाति के थे। वे महाराणा प्रताप के विश्वसनीय सैनिक थे। पूंजा ने महाराणा प्रताप हल्दी घाटी युद्ध में मुग़ल सेना से लड़ाई लड़ी थी। पूंजा एवं उनके साथी, भील जनजाति ने महाराणा प्रताप युद्ध में अपना एक बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया था। आज भी इतिहास के पन्नो में एक तरफ महाराणा प्रताप तो दूसरी तरफ राणा पूंजा का नाम भी आता है। स्वयं महाराणा प्रताप ने पूंजा के नाम के आगे “राणा” की उपाधि लगाईं थी। संपूर्ण मेवाड़ पूंजा के त्याग के कारण भील जनजाति का अत्यधिक ऋणी है। मेवाड़ के इतिहास में इनके त्याग के फलस्वरूप जब भी कोई नया महाराणा राजगद्दी का उत्तराधिकारी बनता था तो एक भील अपने खून से नए महाराणा का राजतिलक किया करता था। उसके बाद ही नए महाराणा को मान्यता मिलती थी। इसके साथ ही राणा पूंजा एवं भील जाति के लोगों के त्याग एवं बलिदान की भावना का सम्मान करते हुए, मेवाड़ के राजवंश ने अपने राजचिन्हों अथवा मेवाड़ के झंडो में एक राजपूत के साथ-साथ एक भील को भी शस्त्रों के साथ खड़ा दिखाया है, जो भील समुदाय के लिए अत्यंत सम्मान की बात थी। भील समुदाय के योगदान मेवाड़ के लिए अविस्मरणीय रहेंगे।

 

4. झाला मन्ना

JHALA MANNA
झाला मन्ना

झाला मन्ना बड़ी सादड़ी से थे। झाला मन्ना हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से मुगलों के विरुद्ध लड़े थे। झाला ने हल्दीघाटी युद्ध में अपना पूरा बहादुरी के साथ त्याग समर्पण बलिदान दिया था। जब राणा पूंजा हल्दी घाटी युद्ध में घायल हो गए थे तथा जब उनको युद्ध क्षेत्र से बाहर ले जाया गया था, तब झाला मन्ना ने स्वयं को महाराणा प्रताप के भाँती मेवाड़ के राजमुकुट एवं महाराणा प्रताप के प्रतीक चिन्हों से सजाया एवं निरंतर लड़ाई जारी रखी। झाला मन्ना की चाल कामयाब रही और शत्रुओं ने झाला मन्ना को ही महाराणा प्रताप समझ लिया और उन पर आक्रमण करने के लिए टूट पड़े। इसी भीषण युद्ध को करते-करते झाला मन्ना वीरगति को प्राप्त हुए। वीरगति को प्राप्त होने से पहले ही झाला मन्ना मुगल सेना को पूर्व की ओर पीछे धकेल चुके थे। इनके इसी बलिदान की वजह से महाराणा प्रताप मेवाड़ को मुक्त करवा पाए।

 

5. हकीम खां सूर

Hakim khan suri
  हकीम खां सूर

इनको हकीम सोज खां अफगान के नाम से भी जाना जाता है। ये एक अफगानी मुस्लिम पठान थे, जो महाराणा प्रताप के प्रमुख सैनिक थे। वे महाराणा प्रताप के तोपखाने के प्रमुख हुआ करते थे। हकीम खां हल्दी घाटी के युद्ध में अकबर की सेना के खिलाफ प्रताप की सेना के सेनापति के रूप में रहे। इन्होने महाराणा प्रताप युद्ध में वीरता से युद्ध किया और युद्ध क्षेत्र में ही इनकी मृत्यु हो गई। हकीम खां, सूर वंश शेरशाह सूरी के वंशज थे। ये एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जो मुग़लो के खिलाफ मुसलमान होते हुए भी महाराणा प्रताप की तरफ से लड़े। हकीम खां वीरता, बहादुरी, त्याग, ईमानदारी के अतुलनीय उदाहरण है।

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जानिए उदयपुर की ऐसी जनजाति जिसने हल्दी घाटी युद्ध में दिया था अपना महत्वपूर्ण योगदान

भील यह राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजाती हैं। भील शब्द की उत्पति “बिलू” शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘कमान’। यह जनजाति तीर कमान चलाने में काफी निपुण होती हैं। मुख्यतः यह जनजाति उदयपुर के साथ-साथ बांसवाड़ा, डूंगरपुर, चित्तौड़गढ़ और प्रतापगढ़ में रहती है।। ये मेवाड़ी, भील तथा वागड़ी भाषा का प्रयोग करते हैं।

भीलों की जीवनशैली बहुत ही अलग ढंग की होती हैं, यह उबड़-खाबड़ पहाड़ी क्षेत्र तथा वन में रहते हैं। इनके मकानों को टापरा, कू, फलां और पाल भी कहते हैं।

पौराणिक कथाओं के अनुसार भील जनजाति की उत्पत्ति भगवान शिव के पुत्र निषाद द्वारा मानी जाती है। कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव जब ध्यान मुद्रा में बैठे हुए थे, तब निषाद ने अपने पिता के प्रिय बैल नंदी को मार दिया था तब दंडस्वरूप भगवान शिव ने उन्हें पर्वतीय क्षेत्र पर निर्वासित कर दिया था, वहां से उनके वंशज भील कहलाये। इसके साथ यह भी कहा जाता है की रामायण के रचयिता वाल्मीकि भी भील पुत्र थे। महाभारत में वर्णित गुरु द्रोणाचार्य के भक्त एकलव्य भी भील जनजाति के थे। रामायण में शबरी जिसने राम को अपने झूठे बेर खिलाए थे वह शबरी भी भील जाति से ही थी। इस जाति की कर्त्तव्यनिष्ठा, प्रेम और निश्छल व्यवहार के उदाहरण प्रसिद्ध है। 

हल्दी घाटी युद्ध के समय महाराणा प्रताप की सेना में राणा पुंजा और उनकी भील सेना का महत्वपूर्ण योगदान था। इसी कारण से मेवाड़ राजचिन्हों में एक तरफ महाराणा प्रताप तो दूसरी तरफ राणा पुंजा भील का नाम भी आता है। महाराणा प्रताप को भील लोगो द्वारा पुत्र भी कहा जाता है इसके पीछे भी एक कहानी है, दरअसल मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा बार-बार आक्रमण किए जाने पर महाराणा प्रताप के पिता महाराणा उदय सिंह समझ चुके थे कि, चित्तौड़गढ़ दुर्ग अब सुरक्षित नहीं रहा इसलिए उन्होंने सुरक्षा के लिए पहाड़ियों के बीच एक नया शहर बसाया। इसमें पहले से ही वहां रह रहे भील बस्तियों के निवासियों ने महाराणा उदय सिंह का यथोचित सहयोग किया। इसी दौरान भीलों के बच्चे व महाराणा प्रताप एक साथ रहते थे। महाराणा प्रताप ने भीलो को इतना प्रेम, स्नेह व अपनत्व दिया था कि भील उन्हें “कीका” कहने लगे जिसका सामन्य अर्थ पुत्र होता है। भीलों के साथ महाराणा प्रताप के संबंध अंत तक बने रहे। इसी वजह से सीमित संसाधनों के होते हुए भी भीलों के सहयोग से महाराणा प्रताप ने मुस्लिमों के विरुद्ध अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की। भीलों के साथ महाराणा प्रताप के संबंध मेवाड़ राज्य के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध हुए। महाराणा प्रताप भीलों के साथ राजा- प्रजा का नहीं बल्कि बंधुत्व का संबंध रखते थे। भीलों द्वारा किये गये सहयोग एवं वीरतापूर्ण कार्यो के सम्मान स्वरूप उन्होंने भीलों को मेवाड़ के राज चिह्न में जगह दी।

आइये जानते है और भी बहुत कुछ भील जनजाति के बारे में –

वस्त्र – भील पुरुष सामान्य तंग धोती पहनते है जिसे भील भाषा में ठेपाडु कहते है और सर पर साफा पहनते है जिसे पोत्या और फाडिंयु कहते है। भील स्त्रियों की वेशभूषा आम तौर पर वे लुगडी, घाघरा और चौली पहनती है। 

नृत्य– गैर नृत्य, घूमर,गवरी नृत्य इस जनजाति के प्रसिद्ध नृत्य हैं। 

मेले– गौतमेश्वर मेला, बेणेश्वर का मेला, ऋषभदेव का मेला 

 प्रमुख प्रथाए-

  • दापा प्रथा – इस प्रथा के अनुसार विवाह के समय लड़के के पिता द्वारा लड़की के पिता को कन्या का  मूल्य चुकाना होता है।  
  • गोदना प्रथाइस प्रथा के अनुसार भील पुरुष और महिलाएं अपने चेहरे व शरीर पर गोदना गुदवाते हैं जिसमे महिलाएं अपने आँखों के ऊपर सर पर दो आड़ी लकीरे गुदवाती हैं जो उनके भील होने का प्रतिक माना जाता हैं। 
  • गोल गोधेड़ा प्रथाभील जनजाति में एक प्रथा है जिसे गोल गोधेड़ा प्रथा कहते है, इस प्रथा के अनुसार यदि कोई भील युवक अपनी वीरता और शौर्य को प्रमाणित कर देता है तो वह युवक अपनी पसंद की लड़की से शादी कर सकता है। 

भील जनजाति में लोकगीतों, लोकनृत्य, लोकनाट्य का काफी प्रचलन है – इसमें से एक गवरी नृत्य जो उदयपुर संभाग में सावन-भादो के समय किया जाने वाला एक धार्मिक नृत्य है, जो केवल पुरुषों द्वारा किया जाता है। इस नृत्य को राइ नृत्य भी कहते है क्योंकि इसमें नृत्य के साथ मादल व थाली भी साथ में बजाई जाती है। 

भील लोग देवी-देवताओं का बहुत मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं। ये लोग साहसी, वचन के पक्के, निडर और स्वामिभक्त होते हैं। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो भील जनजाति अत्यंत निर्धन होते हैआर्थिक व सामजिक रूप में यह जनजाति समाज का बहुत ही पिछड़ा वर्ग है पर फिर भी इनका इतिहास अति रोचक साहसी एवं प्राकृतिक वातावरण से पूर्ण रहा है। इतिहास के पन्नो पर अगर देखो तो भील समाज की सम्पन्नता शूरवीरता एवं आर्थिक सम्पनता के बखान मिलते है।