पिछले कई दिनों से लोकल मीडिया, आबादी क्षेत्र में पैंथर के आ जाने की खबर लगातार छाप रहे हैं। स्थानीय अख़बारों से लिए आकड़ें बताते हैं कि साल 2019 में अबतक, पैंथर के आबादी क्षेत्र में आने और उनके द्वारा शिकार करने की लगभग सात से आठ घटनाएँ सामने आ चुकी हैं। सभी घटनाएँ शहर के आसपास के गाँवों की थी, इसलिए ये लाइमलाइट में नहीं आ सकी। इन सभी घटनाओं में जान-माल का नुकसान ग्रामीणों का हुआ, इसलिए ये घटनाएँ चर्चा का विषय नहीं रही।
तीन दिन पहले शहर के स्मार्टफोंस पर एक विडियो वायरल हुआ जिसमें एक पैंथर को माछला मगरा की पहाड़ियों पर घुमते देखा गया और बिजली की गति से गली-गली यह बात पहुँच गई कि “पैंथर आया हुआ है दूध-तलाई मत जाना।”, “करनी माता साइड पैंथर दिखा, उधर मत जाना।”
दो दिन पहले गुलाब-बाग़ के चौकीदार ने एक पैंथर जोड़े को गुलाब-बाग़ में देखने का दावा किया। सभी के होश उड़ गए। क्यों उड़े होश? कौन है पैंथर के शहर में इतने अन्दर तक आ जाने, के पीछे का ज़िम्मेदार? मेरा तो यह कहना है कि पैंथर में दिमाग होना चाहिए कि वह गुलाब बाग़ कैसे आ धमका? उसके जैसों को तो यहाँ पिजरों में रखा जाता था। अब इतनी हिम्मत की गुलाब-बाग़ में वह खुले में घूमे? उसे पता होना चाहिए कि यह इंसानों का इलाका है, यहाँ उसकी कोई जगह नहीं है।
यह सब आपको वकालतनामा तो नहीं लग रहा न! अगर नहीं लग रहा है तो आप ग़लत हैं। लेकिन यह कोई कोर्ट-रूम ड्रामा नहीं है। उस छोटे से कमरे के बाहर का ड्रामा है, जहाँ इन्सान और जानवर एक ऐसे कोंफ्लिक्ट में फंस चुके हैं जिसका अब कोई अंत दिखलाई नहीं पड़ता।
सारे साँप ज़हरीले नहीं होते ठीक वैसे ही सभी इंसान भी गिरे हुए नहीं होते। लेकिन साँप होना बदनाम होना है चाहे वह ज़हरीला हो या न हो और यही बात अब इंसानों पर भी लागू होती है। दोनों को यदि एक ही कहावत में पिरोया जाए तो “एक मछली पूरे तालाब को गन्दा करती है ” कहावत एकदम सटीक बैठेगी।
कुछ दिनों पहले परसाद में एक बच्ची को मार डालने वाले पैंथर को मार दिया गया। बच्ची का मरना वाकई एक दुखद घटना थी लेकिन उस पैंथर को मार देना कहाँ तक सही था? क्या ‘प्रशासन’ जो कि अपने आप में बेहद भारी-भरकम शब्द है, पहले सचेत नहीं हुआ? वन-विभाग की क्या ज़िम्मेदारी बनती थी? क्या उनके पास और विकल्प मौजूद नहीं थे?
मुझे कोई उम्मीद नहीं है कि इन प्रश्नों के उत्तर मुझे मिल ही जायेंगे और यदि मिल भी जाते हैं तब भी एक इंसान होने के खातिर इतनी समझ तो है कि उस पैंथर को मार गिराने का काम, कोई बहादुरी का काम नहीं माना जाएगा।
हम विकास और स्मार्ट बनने की दौड़ में अंधे हो चले हैं। सिक्स लेन, अहमदाबाद ब्रॉडगेज़, होटल, अपार्टमेंट्स सभी अरावली की छाती को चीरकर बनाए जा रहे हैं। इस दौरान लाखों पेड़ इस तरह से काटे गए जैसे किसी युद्द में भयंकर नरसंहार हुआ हो। उनके कटने से वहाँ की ज़मीने लाल नहीं हुई लेकिन उसका असर अब दीखने लगा है। गर्मी का हद से ज़्यादा बढ़ना, बारिश की कमी, जंगली जानवरों का आबादी क्षेत्रों में आना, इसके उदाहरण हैं।
मैं अमेज़न के जंगलों की बात नहीं करूँगा और न ही मैं अपने आप को इस लायक मानता हूँ। मैं अपना ही घर नहीं संभाल पा रहा तो दूसरों के घरों की चीज़ें क्या सही करूँगा! सभी उदाहरण यहीं के हैं। इसी अरावली के, जो हमें मानसून आते ही आकर्षित करने लग जाती है और हम उसपर कुदाल चलाने पहुँच जाते हैं।
हम अधिकारियों-अफसरों की बात नहीं करें तो बेहतर है। वे क्या समझेंगे! उन्हें तो AC के रिमोट मिले हुए हैं, कारें मिली हुई हैं और बंगलों में उनके निवास हैं। मैं, मेरे जैसे लोगों से बात कर रहा हूँ। जिनके मन में शहर और शहर की प्राकृतिक धरोहर के लिए प्यार तो है पर वे इसे कहीं दिल में दबाए बैठे हैं।
मैं आपको बता दूँ, जिस समय मैं यह आर्टिकल लिख रहा हूँ, मेरे एक-एक शब्द पर एक-एक पेड़ कट रहा होगा और उसकी चीख़ तक नहीं निकलेगी। हो सकता है, इस आर्टिकल के अंत तक यहीं आसपास एक और पैंथर को त्रेन्क्युलाइज़ कर, मार दिया जाए और फिर जश्न की तैयारियां शुरू कर दें। लेकिन उस पैंथर का कराहना, इन पेड़ों को काटती, ज़मीनों को चीरती मशीनों की चिन्गाड़ में दब जाए।
यह भी हो सकता है कि आने वाले समय में इन बेज़ुबानों की आवाज़ बनने वालों पर भी कुदाल चला दी जाए। लेकिन हक़ीकत की दहाड़ दूर तक जाने वाली है। वह आज नहीं निकलेगी लेकिन आने वाले कल में, अगली पीढ़ी के कानों में ज़रूर गूंजेगी और तब वे हमें दुत्कारेंगे और कहेंगे, “हमारे पूर्वज बहुत दोयम दर्जे के थे यार।”