“चांदी रे रथ थे चढो रे सांवरिया.. मनमोहक कर ल्यो श्रृंगार, सांवरिया री आरती
आरती संजोयिलो, चर्मृत लेई-लो, ले लो प्रभुजी रा नाम… सांवरिया री आरती “
महलों के पास ऊँचे मंदिरों में बिराजने वाले मेवाड़ के कान्हा “भगवान जगदीश जी” अपने गर्भगृह में बैठे बैठे पूरे साल बाट जोहते है इस खास एक दिन, आषाढ़ शुक्ल पक्ष की दूज का , जब वे खुद उन भक्तों के लिए मंदिर की कठिन सीढियाँ उतरे, जो ये सीढियां चढ नहीं पाते है…
आप क्या सोचते है ? हम भगवान के दर्शन करते है ? जी नहीं , कभी कभी भगवान भी अपने सच्चे भक्तों के दर्शन करने को आतुर रहते है. भक्ति की परीक्षा हितार्थ बिराज तो गए ऊँचे मंदिरों में हमारे ठाकुर जी, किन्तु उनका मन नहीं लगता वहाँ,बगैर अपने “प्रिय” से मिले.. तभी तो रजत रथ में बैठ भगवान इस एक खास दिन निकल पड़ते है अपने सभी सखाओं से मिलने. और जब मंदिर से निकलते है तो ऐसे ही नहीं निकलते, पूरा श्रृंगार करके, इठलाते-बलखाते जगदीश ठाट-बाट के साथ मेवाडी राजधानी के कण कण को स्वयं स्पर्श करते है. दर्शन देते है सभी को…
इस वर्ष भी भगवान ने सभी के मन की मुराद को पूरा करने की ठानी और लगभग दोपहर के तीन बजे छोटे बेवान (रथ) में बैठ कर पहले मंदिर की परिक्रमा करके चारों कोनों में बैठे मित्र देवों से भेंट की. तत्पश्चात मंदिर की सीढियाँ उतरकर प्रभु नीचे रजत रथ में आकर बिराजे. हर मेवाडी ह्रदय ने आत्मीयता से प्रभु का स्वागत किया. हमारे ठाकुरजी ने भी सभी के नमन को स्वीकार किया. दरबार महेंद्र सिंह जी मेवाड़ ने सैकड़ों सालों की परम्परा का निर्वहन करते हुए रथ के आगे झाड़ू लगाया और प्रभु के मार्ग को साफ़ किया. आज उदयपुर भगवान के प्रिय रंग पीताम्बर (केसरिया) से रंगा रंगा सा लग रहा था. हर एक सर पर पीताम्बरी पाग शोभायमान थी. हर एक महिला ने गोपी का रूप धर लिया. पीताम्बरी साडी या बेस पहने भगवान के पीछे पीछे गीत गाती चल रही थी.
सबसे आगे गजानन के स्वरुप गजराज तो पीछे पीछे शौर्य के प्रतीक अश्व , प्रीत के प्रतीक ऊंट चल रहे थे. चारो तरफ केसरिया ध्वज लहरा रहे थे. सैकड़ों हाथ पीताम्बरी रस्सी को थामे जगन्नाथ का रथ आगे खिंच रहे थे. जैसे जैसे भगवान का रथ आगे बढ़ता, छतों-चौबारों, गोखडों, सड़कों से प्रभु के दर्शनों को तरसती हजारों बूढी आँखे गीली हो जाती.. मुह से आवाज़ ना निकलती..प्रीत में यही तो होता है.. आँखे ही सारी बातें कह देती है. बूढ़े पैरों से मंदिर की सीढियाँ ना चढ पाने का गम भूल कर बस भगवान की बलायियाँ लेती.. म्हारा कान्हा , थाने कन्ही री निजर ना लागे …
सेक्टर सात से निकलने वाली शोभायात्रा, जो मूल रथ यात्रा में शामिल होती है, किसी भी मायने में पुरी रथयात्रा से कम नहीं होती.. प्रभु जगन्नाथ, भ्राता बलराम और बहन सुभद्रा के विग्रह पुरी की याद दिला देते है. शहर में सबसे लंबी दुरी तय करके सेक्टर सात से पुराने शहर तक का सफर तय करके तीनो भाई-बहन जगदीश जी की रथ यात्रा की शोभा बनते है. यह रथ यात्रा सेक्टर सात से प्रातः 11 बजे प्रारंभ होती है, जो मूल रथ यात्रा के समापन के पूरे तीन-चार घंटे बाद आधी रात को पुनः अपने स्थान पर जाकर विश्राम लेती है
पारंपरिक मार्ग से गुजरते भगवान जगदीश सभी को दर्शन देते है. सभी के मन की सुनते है. और कहते है…मैं तुम्हारे दर तक खुद आया, अब तुम मेरी शरण में आ जाओ,फिर तुम्हारा कोई कष्ट ना रहेगा… आधी-व्याधि ना रहेगी.. अगर रहेगा तो सिर्फ प्रेम.. स्नेह.. मुरली का रस…
“मात-पिता तुम मेरे , शरण गहुँ मैं किसकी…
तुम बिन और ना दूजा, आस करूँ मैं जिसकी.. “
जय जगदीश हरे…
Pictures by : Mujtaba R.G.
Edited By : Arya Manu