हमारे दादा-दादी और मम्मी-पापा के लिए जाना-पहचाना नाम है-कँवरपदा, आज की जनरेशन ने ये नाम उन्ही से कभी न कभी ज़रूर सुना होगा ना सिर्फ नाम बल्कि जिस जगह यह स्कूल चलता है शायद उस इमारत की ख़ासियत भी सुनी हो! अगर कोई महरूम रह गया हो तो ये आर्टिकल पढ़ कर उसे मालूम चल ही जाएगा।
उदयपुर ओल्ड सिटी के बिलकुल बीचों-बीच बना ये स्कुल एक ऐतेहासिक इमारत में चलता है, और ख़ुद एक ऐतेहासिक स्कूल भी है। एक हायर-सेकेंडरी स्कूल जहाँ 9-12 तक की क्लासेज़ लगती है।
इमारत बनने से लेकर आज के कँवरपदा तक की कहानी:
इस इमारत के निर्माण की प्रगति महाराणा स्वरुप सिंह जी के शासन काल में हुई। सन् 1816 में इसका निर्माण शुरू हुआ और 1876 में मेवाड़ गवर्मेंट के अंडर ही ये पूरी तरह बनकर तैयार हुई। ये बिल्डिंग 22,000 वर्ग मीटर में फैली हुई है।
यहाँ 1921 से पहले प्राइमरी स्कुल हुआ करता था जिसका नाम ‘शम्भुनाथ पाठशाला’ था। लेकिन 1921 के बाद इसे मिडिल स्कुल बना दिया। 1921 से 1930 तक ये मेवाड़ गवर्मेंट के अंडर चलता था बाद में 1930-42 के बीच संयुक्त राजस्थान सरकार के अंतर्गत आ गया था। इस दौरान ये सेकेंडरी स्क्कुल में तब्दील हो गया। 1950 में राजस्थान सरकार ने इसे हायर सेकेंडरी बना दिया।
दरबार राज के दौरान यहाँ पर टकसाल हुआ करती थी जहाँ पर चांदी के सिक्के रखा करते थे। यहीं पर ‘दोस्ती लन्दन का’ सिक्का भी रखा हुआ था, दोस्ती लन्दन का सिक्का दोस्ती की पहचान के लिए बनाया गया था। जिसके एक तरफ उस समय की इंग्लैंड की महारानी और दूसरी तरफ महाराणा का चित्र उकेरा हुआ है।
चूँकि यहाँ राजदरबार के बच्चे पढाई करते थे इसी वजह से इसका नाम कँवरपदा पड़ा, ये बच्चे न सिर्फ यहाँ पढाई करते थे जबकि युद्ध के दौरान वो यहाँ सुरक्षित भी रहते थे।
बख्तावर सिंह जी ‘कारोही’ यहीं पढ़ा करते थे और इस हवेली के भावी राजकुमार होने वाले थे। इनके दादाजी तब दरबार में राजस्व अधिकारी थे। लेकिन ‘कारोही’ परिवार के अन्दर ही भावी राजकुमार बनने के चलते बख्तावर सिंह जी इस हवेली में जिस स्थान पर पूजा कर रहे थे वहीँ उनकी ह्त्या कर दी गई। ऐसा बताया जाता है कि हत्या के 2 घंटे बाद ही वो पूर्वज बनकर प्रकट हुए और इस तरह उन्हें इस जगह स्थापित किया गया। आज भी उनका उसी जगह एक छोटा सा मंदिर बनाया हुआ है। हालाँकि बख्तावर जी के बाद कोई इस गद्दी पर बैठ नहीं पाया।
इस स्कूल से कुछ ही दुरी पर ‘कारोही हवेली’ बनी हुई है जिसे संग्राम सिंह जी ने 45,000 रुपयों में ख़रीदा था। संग्राम सिंह जी के बेटे शक्तिसिंह जी आज की तारीख में क्षत्रिय महासभा के अध्यक्ष है।
ये स्टोरी हमें लगभग 10 साल तक यहीं रहे राजकुमार सोनी ने बताई।